अभी शाम में स्थानीय "सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़" ऑनलाईन पढ़ रहा था। पहले पन्ने पर ही मुख्य खबर के रूप में जिस खबर ने ध्यान खींचा वह इमेज फॉर्मेट में यहां पर संलग्न कर रहा हूं।
इस खबर को पढ़कर मुझे अपनी एक पुरानी पोस्ट "नक्सली हिंसा और हमारे कुछ पत्रकार बंधु" याद आ गई। दो बातें मन में आई, पहली यह कि क्यों एक "वाद" को भूलकर हिंसात्मक रूप धारण कर चुके इस "आंदोलन" से सहानुभूति रखते हैं कुछ मीडिया वाले जबकि मीडिया से निष्पक्षता की उम्मीद रखी जाती है। दूसरी बात यह कि क्यों मीडियाकर्मी अपने को कानून से ऊपर समझ लेते हैं या यह धारणा रखते हैं कि कानून उनका कुछ नही बिगाड़ेगा।
अफसोस!!
12 February 2008
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6 टिप्पणी:
यह तो निहायत अफसोसजनक है। पर इसमें आश्चर्य नहीं हो रहा।
अब क्या करे कितना कंप्टिसन हो गया है जब सब ही नोच कर खा रहे है तोह ये पीछे क्यो रहे भला.
अफ़सोस जनक भी और विचारणीय भी…ऐसे ही लिखते रहिए
संजीत भाई जब पत्रकारिता धंधा बन जाए और खबरें बिकने लगें तो और उम्मीद भी क्या की जा सकती है.
पत्रकारिता और न्यूज़ रूम की इसी बदहाली की चर्चा हमने दलितों के मीडिया में प्रवेश वाली बहस के संदर्भ में मोहल्ले में की थी। मगर दलितों के मसीहा बनने वालों को ये मुद्दा नही लगता है।
पता नहीं पुलिस के इस दलील में कितनी सत्यता है यदि यह सत्य है तो जिन्होंनें पैसा लिया है वे इसे नक्सली पैसा समझ कर लिये है या किसी सामान्य व्यक्ति से पीत पत्रकारिता के पैसे की उगाही हुई है पर यदि लिया है तो दोनों स्थितियों में मामला चिंतनीय है ।
एक स्थिति और हो सकती है जो अनुमान के बिलकुल करीब है वह है, ऐसे समाचारों से पुलिस का मानसिक दबाव प्रेस पर अवश्य पडेगा । अब युद्ध वैचारिक रूप से आरंभ हुआ है ।
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