राजिम कुंभ
भारतीय मन प्रकृति के सारे उपहारों जल,अग्नि, वायु, पर्वत, वन सबको चकित करने वाले अनुभवों,कृपा और श्रद्धा के रुप में ग्रहण करता है। शायद यही कारण है कि तेजी से बदलते समय में भारतीयता का अद्भुत आलोक शेष है। आस्थाओं की रोशनी जब एक साथ लाखों ह्र्दयों में उतरती है,तब हम उसे कुंभ कह लेते हैं। इतिहास की चेतना से परे के ये अनुभव कभी महाकुंभ के रूप में जीवित होते हैं तो कभी छत्तीसगढ़ के राजिम में महानदी के तट पर। हमारा भारतीय मन इन तटों पर अपने भीतर पवित्रता का वह स्पर्श पाता है जो जीवन की सार्थकता को रेखांकित करता है। रायपुर से दक्षिण-पूर्व में करीब 45 किमी पर राजिम के त्रिवेणी संगम पर हर साल माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक लाखों श्रद्धा के तार एक साथ बजते हैं तब राजीव लोचन की उपस्थिति और ॠषि परम्परा से सारा जगत अर्थवान हो जाता है। अनादि काल से चल रहे चेतना के स्फुरण को,परम्परा और आस्था के इस पर्व को राजिम कुंभ कहा जाता है। गौरतलब है कि इस त्रिवेणी संगम में तीनों नदियां साक्षात प्रकट हैं जबकि इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम में सरस्वती लुप्तावस्था में है।
पुरातत्ववेत्ता राजिम के सुप्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर को आठवीं या नौवीं सदी का बताते हैं और एशियाटिक रिसर्च सोसायटी के रिचर्ड जैकिंस इसे राजा राम के समकालीन राजीव नयन नामक राजा से जोड़ते हैं लेकिन मंदिर के पुजारी ठाकुर ब्रजराज सिंह ने जो कथा बताई थी वह शायद इतिहास और कल्पना का मिश्रण होने के बाद भी सीधे दिल में उतर जाती है।
कथा कुछ यूं है-
त्रेता युग से भी एक युग पहले अर्थात सतयुग में एक प्रजापालक अनन्य भक्त था। उस समय यह क्षेत्र पद्मावती क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था। इसके आसपास का इलाका दंडकारण्य के नाम से प्रसिद्ध था। यहां अनेक राक्षस निवास करते थे। राजा रत्नाकर समय-समय पर यज्ञ,हवन,जप-तप सोमवंशी राजा हुआ,नाम था रत्नाकर। वह ईश्वर करवाते रहते थे ऐसे ही एक आयोजन में राक्षसों ने ऐसा विघ्न डाला कि राजा दुखी हो कर वहीं खंडित हवन कुंड के सामने ही ईश आराधना में लीन हो गए और ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि वे स्वयं आकर इस संकट से उबारें। ठीक इसी समय गजेंद्र और ग्राह में भी भारी द्वन्द्व चल रहा था, ग्राह गजेंद्र को पूरी शक्ति के साथ पानी में खींचे लिए जा रहा था और गजेंद्र ईश्वर को सहायता के लिए पुकार रहा था।उसकी पुकार सुन भक्त वत्सल विष्णु जैसे बैठे थे वैसे ही नंगे पांव उसकी मदद को दौड़े। और जब वह गजेंद्र को ग्राह से मुक्ति दिलवा रहे थे तभी उनके कानों में राजा रत्नाकर का आर्तनाद सुनाई दिया। भगवान उसी रूप में राजा रत्नाकर के यज्ञ में पहुंचे और राजा रत्नाकर ने यह वरदान पाया कि अब श्री विष्णु उनके राज्य में सदा इसी रूप में विराजेंगे।तभी से राजीव लोचन की मूर्ति इस मंदिर में विराज रही है।कहते हैं कि इस मूर्ति का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने किया था।
इतिहासकारों की दृष्टि से पकी हुई ईंटो से बने इस राजीव लोचन मंदिर का निर्माणकाल आठवीं सदी के लगभग ही माना जाता है।
पद्मपुर कैसे बना राजिम
जनश्रुति के अनुसार राजा जगतपाल इस क्षेत्र पर राज कर रहे थे तभी कांकेर के कंडरा राजा ने इस मंदिर के दर्शन किए और उसके मन में लोभ जागा कि यह मूर्ति तो उसके राज्य में स्थापित होनी चाहिए पुजारियों को धन का प्रलोभन दिया पर वे माने नही तो कंडरा राजा बलपूर्वक सेना की मदद से इस मूर्ति को ले चला। एक नाव में मूर्ति को रखकर वह महानदी के जलमार्ग से कांकेर रवाना हुआ पर धमतरी के पास रूद्री नामक गांव के समीप मूर्ति सहित नाव डूब गई और मूर्ति शिला में बदल गई, कंडरा राजा खिन्न मन से कांकेर लौट गया। उसी समय राजिम में महानदी के बीच में स्थित कुलेश्वर महादेव मंदिर की सीढ़ी से आ लगी इस "शिला" को देख 'राजिम' नाम की तेलिन उसे अपने घर ले गई और कोल्हू में रख दी। उसके बाद से तो उसका घर धन-धान्य से भर उठा उधर सूने मंदिर को देखकर दुखी होते राजा जगतपाल को भगवान ने स्वप्न दिया कि वे जाकर तेलिन के घर से उन्हें वापस लाकर प्रतिष्टित करें। पहले तो तेलिन राजी ही नही हुई पर अंतत: पुन:प्रतिष्ठा हुई और तभी से यह क्षेत्र राजिम तेलिन के नाम से राजिम कहलाने लगा। आज भी राजीव लोचन मंदिर के आसपास अन्य मंदिरों के साथ राजिम तेलिन का मंदिर भी विराजमान है।
जनेऊधारी क्षत्रिय यहां के पुजारी हैं
राजा रत्नाकर के समय से ही कहते हैं यहां ब्राम्हणों के स्थान पर क्षत्रिय पुजारी देव की सेवा में रहे हैं। स्तुतिपाठ आदि के लिए ब्राम्हण पुजारी भी नियुक्त होते हैं पर मुख्य पुजारी के पद पर क्षत्रियों का ही अधिकार है।
कुलेश्वर महादेव का मंदिर-
पंचमुखी महादेव का यह मंदिर त्रिवेणी संगम पर बना हुआ है। इसका निर्माण एक जगती पर किया गया है, सामान्यतया अन्य मंदिरों में जहां जगती का वास्तुसंस्थापन आयताकार रूप में है वहीं इस जगती को अष्टभुजाकार में प्रस्थापित किया गया है यह जगती 17 फुट ऊंची है।
यहां पर और भी कई प्राचीन मंदिर हैं जिनमे से कोई नौवीं सदी का है तो कोई आठवीं सदी का तो कोई 14वीं सदी का।
सोंढूर-पैरी-महानदी इन तीन नदियों के त्रिवेणी संगम तट पर बसा राजिम प्राचीनकाल से छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक सम्पूर्ण नही होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नही कर लेता। कहते हैं माघ पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान जगन्नाथ पुरी से यहां आते हैं।उस दिन जगन्नाथ मंदिर के पट बंद रहते हैं और भक्तों को भी राजीव लोचन में ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन होते हैं। महाभारत के आरण्यक पर्व के अनुसार संपूर्ण छत्तीसगढ़ में राजिम ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां बदरीनारायण का प्राचीन मंदिर है। इसका वही महत्व है जो जगन्नाथपुरी का है। इसीलिए यहां भी "महाप्रसाद" का खास महत्व है। यहां चावल से निर्मित "पीड़िया" नामक एक मिष्ठान्न भी प्रसाद के लिए उपलब्ध रहता है। माघ पूर्णिमा से यहां जो मेला लगता है उसकी छटा निराली ही होती है। यह मेला पंद्रह दिन तक चलता है। तो आईए आज से शुरु हो रहे राजिम कुंभ में। इस कुंभ में देश भर से नागा साधु व साधु-महात्माओं के अखाड़े विशेष रूप से आमंत्रित रहते हैं।
कैसे पहुंचे राजिम
हवाई मार्ग- रायपुर(45किमी) निकटतम हवाई अड्डा है तथा दिल्ली,मुंबई,नागपुर,भुवनेश्वर,कोलकाता,रांची, विशाखापट्नम और चेन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग- रायपुर निकटतम रेलवे स्टेशन है जो कि मुंबई-हावड़ा रेल मार्ग पर स्थित है।
सड़क मार्ग- राजिम नियमित बस तथा टैक्सी सेवा से रायपुर व महासमुंद से जुड़ा हुआ है।
रचना स्त्रोत- पर्यटन मंडल के ब्रोशर व समाचार पत्र। फोटो सौजन्य रुपेश यादव रायपुर
Technorati Tags:
14 टिप्पणी:
आज जाना था पर सम्भव नही हो पाया। पिछले वर्ष मैने तस्वीरे ली थी जो इस कडी पर उपलब्ध है।
Photo Album of Rajim Mela 2007
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&Keyword=melarajim&Thumbnails=Only
रोचक जानकारी के लिये आभार।
कभी देखा जायेगा। सोंढूर-पैरी-महानदी का संगम गूगल अर्थ पर कैसा दीखता है? आज रात मैं कोशिश करूंगा देखने की घर पर।
अच्छे लेख के लिये धन्यवाद।
कपड़े पहन कर आना अलाउड है क्या गुरू ;)
कुंभ जाने का अवसर तो कभी नहीं मिला पर तुम्हारे द्वारा रोचक इतिहास और जानकारी अवश्य मिल गई।
वाह छत्तीस गढ़ में कुंभ
कभी तो रायपुर आना ही पड़ेगा। आसपास की जिम्मेदारी आप पर। पर अभी दो-चार साल नहीं।
रोचक जानकारी पढ़कर लगा कि कुम्भ यहीँ हो गया. धन्यवाद
हम को तस्वीरे पसन्द आई :)
आलेख काफ़ी रोचक है एवम छायाचित्र भी बहुत ही अच्छा है. मैने तो केवल चार स्थानो(प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नसिक)मे अर्ध एवम पुर्ण कुभ होता है कह कर पडा हु. किन्तु राजिम कुभ के बारे मे अभी पता चला. आपने राजिम कुभ के पौराणिक विवरण भी देते काफ़ी आच्छा होता.
छत्तीसगढ के इस पावन तीर्थ पर शासन जिस तरह से मेहरबान है और पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है उससे इस बात की आशा बंधी है कि देर सबेर नंगा साधुओं को आमंत्रित करने के लिए दिये जाने वाले भारी भरकम दक्षिणों की राशि मंदिर स्थल, रेल लाईन, व नदियों में पानी की उपलब्धता पर भी खर्च की जायेगी ।
आपकी आई टानिकों का यहां क्या हाल चाल रहता है यहां ?
छत्तीस गढ़ मे कुम्भ ये तो पहली बार जाना। जानकारी से भर पूर लेख।
wah? bhai sanjeet kbuh ke baare bahut jankari rakhate ho sarkar eske prchar-prsar main khoob paisa kharch kar rahi tum to fokat maain kar rahe ho tumari sifarish karni hogi ant main bahut-bahut sabhuvad
bhai, 27 feb ko meree aik dost punita sharma ke kathak dance ka program tha.
SAMYOCHIT AUR UPYOGI JANKARI.BADHAI...
Post a Comment