आइए आवारगी के साथ बंजारापन सर्च करें

29 February 2008

लोहे का पिघलना और कविता का रचित होना व्हाया अशोक सिंघई

लोहे का पिघलना और कविता का रचित होना व्हाया अशोक सिंघई

अशोक सिंघई कोई नए हस्ताक्षर नही हैं लेकिन फिर भी उनकी कविताओं में एक नयापन दिखता है। इससे पहले उनके और भी कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जबकि कविता का सफरनामा नाम की एक समीक्षा भी। भिलाई स्टील प्लान्ट में बतौर जनसंपर्क अधिकारी कार्यरत श्री सिंघई लोहे को पिघलकर एक नया आकार लेते देखते हैं,शायद काव्य सृजन प्रक्रिया भी कुछ ऐसी ही होती है विचार जब गढ़कर एक कविता के रुप में ढलता है।

प्रस्तुत कविता संग्रह "सुन रही हो न" उनका नया कविता संग्रह है जिसमें ज्यादातर रचनाएं "रोमांटिक" हैं। सिर्फ़ रोमांटिक कहकर परिचय देना इन कविताओं के साथ नाइंसाफी होगी। दर-असल किसी तेज और स्पष्ट बातें करने वाले इंसान के मन में इतनी कोमल भावनाएं कैसे जाग जाती है कभी-कभी तो यही सोचकर आश्चर्य होता है लेकिन चूंकि इनकी कविताएं ही बता रही हैं कि बाहर से यह अशोक सिंघई जो भी हों पर अंदर से बहते झरने के ताजे पानी की मानिंद निर्मल और कोमल हैं

एक उदास चांद में वह लिखते हैं -
दिखता ही नहीं काजल/चाँदनी ऐसी बिखरी उपवन में/घूम घूम कर/चूम चूम कर/रो लेती नींद सारी/तुम नहीं हो पास/आज चाँद बहुत उदास है

वहीं दूसरी तरफ वह दर्पण में बिन्दी में लिखते हैं कि -
छूटी नहीं आदत तुम्हारी/हमारी आलमारी के दर्पण पर/बिन्दी चिपकाने की/बिन्दी भी इतनी ठीक/नाप-तौल कर/छोड़ जाती हो / दर्पण पर/गड़ती है मेरे सीने पर/जब देखता हूँ मैं स्वयं को/बिन्दी से सजे / इतराते दर्पण में

कविता संग्रह की ही नही बल्कि कवि की भी पूर्णता की एक बानगी इस बात पर देखिए कि इस संग्रह में सिर्फ़ रोमांटिक कविताएं ही नही है बल्कि बुढ़ाते मां-बाप को भी याद किया गया है।


रोशनदान हो जाती हैं/खिड़क़ियाँ/बौने होते जाते हैं/खिड़कियों के पल्ले पकड़े खड़े/बुढ़ाते माँ बाप

और फिर अंत में वही मूल समस्या पर सिंघई जी लौटते से नज़र आते हैं कि

कुछ भी तो नहीं है स्वतंत्र/न पेड़, न फूल/नदियॉं, पहाड़, हवा, धरती/सूरज तक नहीं है स्वतंत्र

और

दरअसल जरूरी है बहुत/जीवन में इतना जीवन/खेल सकें खिलौने खुद से/मुझसे-तुझसे



शुभकामनाएं अशोक सिंघई जी के लिए। समय को जीते रहें और लिखते रहें।
वेबलॉग पर इस काव्य संग्रह के प्रकाशन अर्थात इस समूचे काव्य संग्रह को ब्लॉग पोस्टों में समेटने और उसे अंतर्लिंकित कर एक किताब की शक्ल देने की मेहनत "श्री संजीव तिवारी (आरंभ)" ने की है।

उम्मीद है कि पाठक सिंघई जी के इस नए काव्य संग्रह "सुन रही हो न" को भी उतना ही दुलार देंगे जितना कि उनके पूर्वप्रकाशनों को दिया।

8 टिप्पणी:

Anita kumar said...

सिंघई जी की कविता वाकई काबिले तारिफ़ है पूरा संग्रह पढ़ेगें

Sajeev said...

bashai, haan avashy padhenge

रंजू भाटिया said...

शुक्रिया इस पुस्तक के बारे में बताने के लिए ..यहाँ दी गई कुछ पंक्तियों ने इसको पढने की उत्सुकता जगा दी है !!

anuradha srivastav said...

जितना भी उल्लेखित है उसने प्रभावित किया । अब तो कविता संग्रह पढना ही पडेगा।

डॉ. अजीत कुमार said...

संजीत जी,
सिंघई साहब की रचनाओं के इस ज़रा से तआर्रुफ़ से ही उनकी कविताओं के प्रति एक कशिश सी उठी है.
ख़ास कर "दर्पण में बिंदी", और भी - रोशनदान हो जाती हैं .. खिड़क़ियाँ.
अगर सम्भव हुआ तो कविताओं को एक एक कर जरूर पढूंगा.
धन्यवाद.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

SANJEEV JI,
MUJHE BHEE KHUSHEE HUI
CHATTISGARH SE
AAPKE SAROKARON KO JAANKAR.
MEREE KAVITAYEN AAPNE PASAND KEE..SHUKRIYA..
SINGHAEE JI AUR SHUKLA JI PAR SARGARBHIT SAMEEKSHATMAK TIPPNEE
ACHCHEE LAGEE.BADHAEE...

Tarun said...

inse milanane ke liye aabhar.

अजित वडनेरकर said...

अच्छी कविताएं....

Post a Comment

आपकी राय बहुत ही महत्वपूर्ण है।
अत: टिप्पणी कर अपनी राय से अवगत कराते रहें।
शुक्रिया ।