कल छब्बीस जनवरी थी। साल के कुछेक दिन ऐसे जरुर होते हैं जब अपने स्वर्गीय पिता का न होना बड़ी शिद्दत से याद आता है। याद आता है कि कैसे इन दिनों से एक-दो दिन पहले ही मीडिया वाले बाबूजी के पीछे पड़े रहते थे थे "तब और अब" के लिए उनके विचार जानने। इलेक्ट्रानिक मीडिया तो था नही आज जैसा,सिर्फ़ अखबार थे। याद आता है कि कैसे बचपन में पंद्रह अगस्त,तेईस जनवरी,छब्बीस जनवरी,दो अक्टूबर और तीस जनवरी को एक दिन पहले ही बाबूजी दूसरे दिन की अपनी तैयारी में रहते थे। रात में ही खादी के बुर्राक सफेद धोती-कुर्ता और गांधी टोपी को सहेज कर अपने सिरहाने ही रख लिए होते थे ताकि सुबह ढूंढना न पड़े।। छब्बीस जनवरी-पंद्रह अगस्त की सुबह मैं अपने स्कूल के लिए तैयार होता था और बाबूजी अपने कार्यक्रमों के लिए। स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते उन्हें इस दिन कई जगहों के कार्यक्रम में जाना होता था लेकिन पूरे मन से वह सिर्फ़ एक-दो जगहों पर जाते थे और वह जगह थी हमारे बचपन वाले मोहल्ले से गुजरते नेशनल हाईवे क्रमांक छह पर स्थित आज़ाद चौक की एक गांधी प्रतिमा। बाबूजी मुझे अपने साथ इस गांधी प्रतिमा के पास झंडा फहराने जरुर ले जाते थे जहां उनके अन्य मित्र स्वतंत्रता सेनानी भी मौजूद होते थे। सबसे पहले यहीं झंडा फहराकर गांधी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर राष्ट्रगीत-राष्ट्रगान के साथ गांधी जी के प्रिय भजन आदि गाने के बाद ही बाबूजी अन्य किसी संस्था के कार्यक्रम में जाते थे। उन्होनें भले ही कांग्रेस की सदस्यता आज़ादी के बाद ही त्याग दी थी पर पंद्रह अगस्त, तेईस जनवरी, छब्बीस जनवरी के साथ-साथ दो अक्टूबर और तीस जनवरी को ज़रुर रायपुर के कांग्रेस भवन में जाया करते थे जहां झंडारोहण और भजन-आदि गाए जाते थे। लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ कांग्रेस भवन में बढ़ते असामाजिक तत्वों और अव्यवस्था के आलम के कारण उन्होनें इन चार दिन भी कांग्रेस भवन जाना बंद कर दिया था। और आश्चर्य यह था कि कांग्रेस की सदस्यता त्याग देने के बाद भी 70 के दशक में उनके पास कांग्रेस की तरफ से ही विधानसभा चुनाव लड़ने का ऑफर भी आया जिसे बाबूजी ने अपनी माली हालात का हवाला देते हुए नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था।
बचपन में साल के इन गिने चुने दिनों में कभी-कभी मैं भी उनके साथ दिन भर रहता था और नेशनल हाईवे पर स्थित आज़ाद चौक की गांधी प्रतिमा से लेकर कांग्रेस भवन और फिर कभी स्टेशन चौक स्थित नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा। सारी जगहें पैदल ही नापते हुए,बाबूजी अपने तेज़ दृढ़ कदमों से तो मैं उनके साथ लगभग दौड़ते हुए। देखा करता कि कैसे कांग्रेस भवन में लोगों को इन राष्ट्रीय पर्वों या जयंती पुण्यतिथि को मनाने से ज्यादा अपनी-अपनी राजनीति की फिक्र होती थी। कभी-कभी तो कांग्रेस भवन मछली बाज़ार की तरह लगा करता था और ऐसा लगता था कि लोग अब भिड़े आपस मे या तब भिड़े खैर! भिड़ंत होते तब तो नही लेकिन बाद में ज़रुर देखा बतौर पत्रकार मौजूद रहकर।
ऐसे दिनों में सुबह सात बजे के आसपास घर से निकले बाबूजी झंडारोहण और उसके बाद यूनिवर्सिटी, आकाशवाणी और न जाने कहां-कहां आयोजित गोष्ठी-चर्चा में शामिल होकर देर दोपहर में ही लौटते थे,हाथ में होती थी कुछ फूल मालाएं और सेव-बूंदी जिसे बच्चों को अर्थात मेरे साथ-साथ आस-पड़ोस के बच्चों को पहले दिया जाता था। कुछ सालों बाद मैनें पाया कि बाबूजी ऐसे दिनों में पहले से ज्यादा व्यस्त रहने लगे। दर-असल समाज में राजनीति कुछ ज़ियादा ही प्रवेश कर चुकी थी और संस्थाओं का भी कुकुरमुत्तों की तरह उगने का फैशन शुरु हो गया था। ऐसी संस्थाएं जो चंदा कर राष्ट्रीय पर्व मनाती थी और उसके बाद उनके कामों का कुछ अतापता नही होता था। ऐसी संस्थाएं बाबूजी या उनके अन्य स्वतंत्रता सेनानी मित्रों को बुलाने लगी झंडारोहण के लिए और उसके बाद गोष्ठी की खानापूर्ति के लिए, पहले तो बाबूजी उत्साह के साथ जाते थे ऐसे कार्यक्रम में फिर उनका उत्साह धीरे-धीरे कम होने लगा। वह फ़िर ऐसी संस्थाओं को मना कर देने लगे कि "नही आ सकता आप किसी और को ढूंढ लीजिए, मै भला और अपने आज़ाद चौक वाली गांधी प्रतिमा भली"। लेकिन फिर भी कुछ संस्था वाले ऐसी होते थे जो एक तरह से धरना देकर बैठ जाते थे कि आपको चलना ही होगा। और इसी समय इलेक्ट्रानिक मीडिया भी अपनी पैठ जमाने लगा था तो अब चैनल वाले तो घर आ धमकते थे राष्ट्रीय पर्व या महापुरुष की जयंती-पुण्यतिथि पर बाईट लेने।
बाईट से याद आया,बाबूजी के गुजरने से दो महीने पहले वह नई दिल्ली से लौटे थे जहां राष्ट्रपति भवन मे नौ अगस्त 2004 को अगस्त क्रांति दिवस के मौके पर उनका सम्मान था और वही उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया उसी हालत में रायपुर लाए गए ग्यारह अगस्त को,तेरह अगस्त को मुझे प्रेस क्लब से "आज तक" के रायपुर संवाददाता का फोन आया कि वह पंद्रह अगस्त के लिए उनका एक खास इंटरव्यू लेना चाहते है। मैनें इन संवाददाता को बताया कि वे बात तो कर रहें है पर उनका स्वास्थ्य ठीक नही है। संवाददाता ने कहा कि ठीक है ज्यादा बातें नही होंगी। सो संवाददाता आए घर और बाबूजी का बिस्तर लेटे-लेटे हीइंटरव्यू लिया गया। पता नही वह इंटरव्यू प्रसारित भी हुआ या नही क्योंकि चौदह अगस्त को बाबूजी को अस्पताल शिफ्ट किया गया और वहां वे एक महीने रहे फ़िर घर में एक महीने और गुजर गए। इसके बाद इन हालातों से उबर कर जब मैने आज तक वाले उन संवाददाता को तलाशा तो पता चला कि उनका ट्रांसफर हो गया है,दरअसल मैं चाहता था कि आज तक वाले इन संवाददाता से बाबूजी की अंतिम रिकार्डिंग ले लूं बतौर उनकी स्मृति,पर नही मिला।
बाबूजी के जाने के बाद से ही पंद्रह अगस्त,छब्बीस जनवरी ये सब दिन आम दिनों की तरह ही आते हैं और पता ही नही चलता जबकि बाबूजी रहते थे तो दो दिन पहले ही मालूम चल जाता था कि हां फलां दिन आ रहा है। यह सब बातें इसलिए याद आ गईं क्योंकि पच्चीस जनवरी की शाम भतीजे गट्टू और भांजी महिमा ने यह बताया कि वे कल अर्थात 26 जनवरी को स्कूल नही जाएंगे तो मैनें उन्हें डांटा कि नही,पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी को जरुर जाना है स्कूल और झंडा फहराना है। अपने स्कूल के दिनों में हमारी हिम्मत कभी नही हुई यह कहने की कि पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी को स्कूल नही जाएंगे।
27 January 2008
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12 टिप्पणी:
बेहतरीन यादें । मुझे अपना बचपन याद आया । भोपाल में पापा लाल परेड ग्राउंड पर ले जाते थे । परेड दिखाने । लकड़ी की बनी बेहद ठंडी गैलरीज़ । छब्बीस जनवरी को अकसर ही ठंड बहुत बढ़ जाया करती थी । परेड करते घुड़सवार सिपाहियों को देखकर अचछा लगता था । फिर किसी के घर कलर टी वी पर दिलली वाली परेड देखना । जसदेव सिंह की कॉमेन्ट्री । बिस्मिल्ला खां की शहनाई । सब कुछ सब कुछ बहुत याद आया और हां स्कूल में गुलाबी काग़ज़ में लपेटकर दिये जाने वाले बूंदी के लाल वाले लड्डू भी याद आए संजीत भाई । जिन्हें हम नुक्ती के लड्डू कहते हैं ।
बहुत सुन्दर सन्स्मरणीय पोस्ट संजीत। आपके बाबूजी के व्यक्तित्व के बारे में जान कर एक चित्र सा गढ़ने का प्रयास कर रहा हूं। उसमें रह रह कर मेरे अपने परिवार के बुजुर्गों का चित्र गड्ड-मड्ड हो जा रहा है।
याद रहेगी यह पोस्ट।
(जरा फॉण्ट साइज बड़ा करो, पढ़ने में थोड़ा असहज लगता है।)
बाबूजी की स्मृति को नमन।
आपका इलाका तो मुझे महान व्यक्तित्वों की खान लगती है।
आना पड़ेगाजी.
बेहतरीन संस्मरण, भगवान करे आप को वो लास्ट की रिकॉर्डिग मिल जाए
कुछ बातें और यादें ऐसी होती है जो हमारे जीवन को मोड़ देती है। आपके बाबूजी के बारे मे पढ़कर अच्छा लगा।
वाह संजीत भाई ..कितना सजीव चित्रण किया है आपने...जबरदस्त निखार आ रहा है आपकी लेखनी में...बधाई
संजीत , आत्मीयता से यादें लिखी हैं। अच्छा लगा। उनकी यादें आपके लिए थाती हैं। उन्हें संजोए रखें और अपने सार्वजनिक जीवन में उसकी झलक दिखलाते रहें।
संजीत जी,
आपके संस्मरण एवं विचार मंथन ने बचपन की याद दिला दी.. मेरे पिता एक शिक्षक हैं और उनकी क्षत्र छाया में स्वतंत्र दिवस और गणतंत्र दिवस किसी त्यौहार जैसा ही मानते थे... एक दिन पहले गणवेश एवं नाटक इत्यादी से जुडे सामग्री को जमा करना.. दर्पण के सामने अपने संवाद, भाषण या कविता को पढ़ना... सब याद आगया...
धन्यवाद,
मनीष
संजीत भाई, वेदेमातरम ।
बहूत अच्छा लगा पढकर, धन्य हैं आप जिन्हें ऐसा परिवेश मिला, यह एक सौभाग्य है । आपको तो पता ही है मैं मजाक में ही सहीं दिल में हकीकत को आत्मसाध करते हुए ही तुम लोंगों को चिढाता हूं 'स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के परिजन' पर मन में एक गर्व पलता है कि किस्मत से मैं भी उन्हीं का हिस्सा बन पाया ।
संजीव
बाबू जी के बारें में जितना भी तुम्हारी कलम से जाना श्रद्धा उतनी ही बढती जाती है।आज के नेताऒं से तो किसी भी तरह उनका मुकाबला नहीं हो सकता। काश उनके जैसे जीवन मुल्यों वाले आज के नेता हो जायें तो...........
श्रद्धा सुमन भावभीने नमन के साथ..
बहुत अच्छी संस्मरणात्मक पोस्ट लिखी है। बाबूजी की स्मृति को नमन!
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