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15 January 2008

भोला छत्तीसगढ़िया,चतुर बी एस पी

सन 2004 में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक अधिनियम लाकर तकनीकी विवि की स्थापना की। विवि मुख्यालय भिलाई में रखा गया परंतु किराए के भवन में। खुद का भवन बनाने के लिए जमीन की तलाश हुई और भिलाई स्टील प्लांट से जमीन मांगी गई। 2007 में ना-नुकुर के बाद अंतत: बी एस पी प्रबंधन मान तो गया लेकिन किन शर्तों पर। इस पूरे मामले पर दैनिक भास्कर रायपुर में बतौर सिटी रिपोर्टर कार्यरत गोविंद पटेल ने एक नज़र डाली है। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय से एम जे करने वाले गोविंद पिछले पांच सालों से पत्रकारिता जगत में है और इससे पहले दैनिक भास्कर के ही भिलाई संस्करण में ही रह चुके हैं।

भोला छत्तीसगढ़िया,चतुर बी एस पी

जमीन के बदले आरक्षण देने के मामले को भिलाई स्टील प्लांट की ओछी मानसिकता कहें या फिर राज्य सरकार का निकम्मापन। इस मामले ने साबित कर दिया कि राज्य बनने से पहले ही नहीं बल्कि बाद में भी छत्तीसगढ़ का शोषण हो रहा है। राज्य शासन ने प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों को संचालित करने के लिए एक अलग से विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसकी जरुरत इसलिए थी क्योंकि तकनीकी विषय होने की वजह से पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय न तो समय पर परीक्षा ले पा रहा था और न इंजीनियरिंग कॉलेजों मे निर्धारित मापदड़ों को पूरा करवा पा रहा था। चूंकि भिलाई शिक्षा के लिए मशहूर है और वहां पांच इंजीनियरिंग कॉलेज पहले से संचालित थे। इसलिए विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडेय की पसंद पर उनके विधानसभा क्षेत्र में इसे स्थापित किया गया। लेकिन भिलाई में जितनी जमीन है वह बीएसपी के अधिकार क्षेत्र में आती है। इसलिए बीएसपी से 250 एकड़ जमीन मांगी गई। पहले तो बीएसपी ने जमीन के लिए सहमति जता दी क्योंकि इसके शिलान्यास में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह आ रहे थे। लेकिन बाद में बीएसपी को लालच आ गया। उसने जमीन मुफ्त में देने से इनकार कर दिया। उसने इसके बदले 40 करोड़ रुपए मांगे। यानि 16 लाख प्रति एकड़। शासन इतनी जमीन कहीं और खरीदती तो वह सस्ती पड़ती। यह वही भिलाई है जिसे बसाने के लिए 1955 में छत्तीसगढ़ के लोगों ने अपने डेढ़ सौ से ज्यादा गांवों को बिना किसी विरोध के उजाड़ दिया। इसकी पीड़ा आज भी उनके दिलों में है। लोगों ने एक औद्योगिक तीर्थ के लिए भागीरथी जैसा त्याग किया। उस समय उन्हें मामूली मुआवजा दिया गया। उन्होंने इसके लिए कोई शर्त नहीं रखी। लेकिन इतने बड़े संयंत्र को जब इन भागीरथी के संतानों के लिए जमीन की जरुरत पड़ी तो बीएसपी ने सौदा शुरु कर दिया।


सौदा भी ऐसा कि क्रूर से क्रूर व्यापारी भी शरमा जाए। जब राज्य शासन ने 40 करोड़ देने से इनकार कर दिया तो बीएसपी ने नया हथकंड़ा अपना लिया। बीएसपी ने 40 करोड़ लेकर 50 करोड़ रुपए दान करने का प्रस्ताव रखा। लेकिन दान दिया तो उसकी वसूली की योजना भी बना ली। इंजीनियरिंग कॉलेजों में बीएसपी कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षण मांगा। यानि हर कॉलेज में तकरीबन 10 सीटें। इनके अलावा यूनिवर्सिटी में जो पीजी के कोर्स संचालित होंगे उसमें बीएसपी ने 50 प्रतिशत आरक्षण मांग लिया है। बीएसपी वालों ने विश्वविद्यालय की संचालन समिति में अपने दो अधिकारियों को शामिल करने की शर्त भी मनवा ली है। अहसान फरामोशी की पराकाष्ठा तब हो जाती है जब बीएसपी ने यह कहा कि इस आरक्षण योजना का लाभ सेल के कर्मचारियों को भी मिले। यानि भिलाई के अलावा बोकारो, राऊरकेला और दुर्गापुर के संयंत्रकर्मियों भी मिलेगा। जिनका न तो बीएसपी में कोई योगदान है और न ही छत्तीसगढ़ में।

हमारे जनप्रतिनिधि भी इतने भोले हैं जो इतनी छोटी बात समझ नहीं पाए। उन्होंने बड़ी आसानी से छत्तीसगढ़ को फिर लुटने दे दिया। क्या छत्तीसगढ़ के लोगों ने बीएसपी बसाने के बदले कोई आरक्षण मांगा था? क्या यहां के लोगों ने यह कहा कि उन्हें या उनकी पीढ़ी को नौकरी में छूट मिलेगी। जब भर्ती की बारी आती है तो बीएसपी में देशभर के लोगों को मौका दिया जाता है। उसमें यह नहीं देखा जाता कि छत्तीसगढ़ के लोगों ने अपनी जमीन दी है तो उन्हें भर्ती में छूट दी जाए। यही बात मैनेजमेंट स्तर पर लागू होती है। बीएसपी ने विश्वविद्यालय के कार्य परिषद में अपने दो व्यक्ति रखने की शर्त मनवा ली। लेकिन क्या छत्तीसगढ़ का कोई भी व्यक्ति बीएसपी का एक्जिक्यूटिव या मैनेजिंग डायरेक्टर तक पहुंच सका है। बीएसपी जिसका नाम शिक्षा के क्षेत्र में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है उनके अधिकारियों को आरक्षण की बैशाखी मांगते हुए जरा भी शर्म नहीं आई।

यदि ऐसा ही है तो राज्य सरकार को उन गांववालों को आरक्षण देना चाहिए जहां की जमीन पर दूसरे विश्वविद्यालय बन रहे हैं। इसे पढ़ने के बाद शायद काठाडीह (रायपुर) के ग्रामीण कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय की सीटों में आरक्षण मांगने लगें। बीएसपी के मुताबिक तो उनका भी ऐसा अधिकार बनता है क्योंकि उनकी 100 एकड़ जमीन इस विश्वविद्यालय के लिए ली गई है।



12 टिप्पणी:

Ashish Maharishi said...

एक अच्‍छी और गंभीर किस्‍म की रिपोर्ट पढ़वाने के लिए शुक्रिया संजीत भाई

Unknown said...

बेहतरीन खोजी लेख… निश्चित ही इसमें राज्य के बाहरी लोगों ने "महत्वपूर्ण" भूमिका निभाई है… छग सरकार को केन्द्र से शिकायत करके जमीन निरस्त कर देना चाहिये और रायपुर के पास किसी फ़ालतू जमीन पर नया विवि खोलना चाहिए…

विनीत कुमार said...

aisi rapat padkar mujhe to visbaas hone laga hai ki aane waale samay me mainsteream ki media blogs ko news agency ke roop me legi. shaandaar.

Shiv said...

सब जगह लेन-देन की राजनीति हावी है. बढ़िया रपट है. विनीत जी की बात से सहमति है.

Gyan Dutt Pandey said...

भिलाई स्टील प्लाण्ट वालों की यह आर्मट्विस्टिंग समझ नहीं आयी। उनके कर्ता-धर्ताओं का क्या कहना है - वह सामने आना चाहिये।

Tarun said...

lekh to achha hai lekin usse kahin aadhik sachi hai haathi wali photo.

Haathi hai politican, kanoon aur gunde aur neeche jo adhmara hone ko hai woh hai aam janta. Hume to aisa hi lag reha hai koi aur matlab hai to batayen.

Manish Kumar said...

भिलाई स्टील प्लांट ने अगर अपने कर्मचारियों के पुत्र पुत्रियों के लिए कोटे की मांग की है तो इसमें अनुचित बात क्या है? जब भी कोई औद्योगिक इकाई शिक्षण संस्थान के लिए अपनी जमीन देती है तो ये लाजिमी है कि वो अपने कर्मचारियों के हित को देखे। और जहाँ तक मेरी जानकारी है भिलाई स्टील प्लांट के कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ से आता है।
टाटा और बिड़ला के हर शिक्षण संस्थान में ऍसे कोटे पिछले ३० ४० वर्षों से हैं.
हाँ सेल की अन्य इकाईयों के कर्मचारियों को ये आरक्षण उपलब्ध करना सही नहीं जान पड़ता।

mamta said...

आपकी रिपोर्ट से अंदाजा होता है की कितनी धांधली होती है। फोटो खूब जबरदस्त है। (दूसरी वाली)

36solutions said...

पटेल जी धन्‍यवाद बहुत अच्‍छा मुद्दा उठाया है आपने ।
भूमि अधिग्रहण के मामलों में मानवता के आधार पर भूमि स्‍वामी को भूमि के मूल्‍य के अतिरिक्‍त, उनके परिवार जनों को नौकरी या आरक्षण दी जाती है किन्‍तु बीएसपी के निर्माण के समय में इस नियम के बावजूद छत्‍तीसगढ के लोगों नें बीएसपी में नौकरी करना मुनासिब नहीं समझा ।
उस समय के प्राय: सभी छत्‍तीसगढिया कर्मचारी बिना इच्‍छा के इस संस्‍था में जुडे जबकि दूसरे प्रदेशों के लोग पूर्ण उत्‍साह के साथ बीएसपी में सेवा करने भारी तादात में पहुंचे फलत: बीएसपी एक लघु भारत के रूप में जाना जाने लगा ।
बाद में जब छत्‍तीसगढिया अस्मिता जागा तब तक बीएसपी के सारे उच्‍चपदों पर गैर छत्‍तीसगढिया आसीन थे जिनके साथ उनका अनुभव था कि छत्‍तीसगढिया बीएसपी में काम करने के उत्‍सुक ही नहीं रहे हैं जिसके कारण यहां इनकी संख्‍या घटती गई और आरक्षण के लिए होने वाले सिफारिशों में छत्‍तीसगढ-भिलाई-बीएसपी हटकर संपूर्ण सेल का नाम आने लगा ।
आज आकडे बताते हैं कि दूसरे देशों में काम करने वाले भारतीयों की पूरी संख्‍या में भिलाई या भिलाई से संबंधित व्‍यक्तियों की संख्‍या आधे से भी अधिक है किन्‍तु वे छत्‍तीसगढ से कतई लगाव नहीं रखते उन्‍होंनें इसे एक सीढी के तौर पर इस्‍तमाल किया और फेंक दिया, आपको याद होगा इस वर्ष के आप्रवासी भारतीय सम्‍मान प्राप्‍त वेंकटेश शुक्‍ला नें इसे पूरी दमदारी के साथ कहा था हमने अपने अधिकारों का प्रयोग जब करना था तब किया नहीं, अब कुछ भी नहीं हो सकता जो मिल रहा है उसे हम ब्राह्मण दक्षिणा समझ कर स्‍वीकार करते हैं, आप मीडिया कर्मी हैं आपको ऐसी आवाज स्‍थानीय स्‍तर पर उठानी चाहिए हो सकता है कुछ सार्थक पहल हो ।

ghughutibasuti said...

एक जानकारी पूर्ण रिपोर्ट पढ़वाने के लिये धन्यवाद ।
घुघूती बासूती

anuradha srivastav said...

आँखें खोलने वाल लेख........ आरक्षण और शर्तें ये तो सरासर मनमानी है।

Anonymous said...

The writer of the blog has broght into light the shrewdness of the BSP & other authorities and long continuous suffering of common local mass. This kind of reports in contemporary mode of media would sooner or later, but definitely bring awareness to people of their rights and act as deterrant to authorities which till now have been taking us for granted to fulfil their own motives..
a commendable & nice article, keep the good work up

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