एक आम भारतीय, जिसकी योग्यता भी सिर्फ़ यही है कि वह एक आम भारतीय है जिसे यह नहीं मालूम कि आम से ख़ास बनने के लिए क्या किया जाए फ़िर भी वह आम से ख़ास बनने की कोशिश करता ही रहता है…।
भावातिरेक के क्षणों में रेत के कणों में कोशिश करता हूं मैं उसे ढूंढने की। लुप्त हो गई है पहचान गढ़ा है मैंने तराशा है उसे कमी रह गई शायद तराशने में। वह वह न रहा मनुष्य मनुज न रहा लुप्त हो रही उसकी पहचान।
बहुत ही सुन्दर शब्द, भाव व दर्शन ! परन्तु सच तो यह है कि मनुष्य सदा से ही ऐसा ही था । शायद बनाने वाले में ही कोई दोष था या वह हमें ऐसा ही बनाना चाहता था ताकि हम गलत करते रहे और वह सजा देते रहे । घुघूती बासूती
मनुष्य के पास ही भावों के संयम का दम है यदि यह शक्ति नहीं है तो वह मनुज नहीं दानव है, वाह चंद लाईनों में पूरे पृष्टों की कहानी । यह .... जैसा कुछ नहीं है कविता ही है ।
(आपके जबरदस्त चिंतन पर मेरी टिप्पणी भतीतेवाद वाली)
PRIYA BHAI, BESHAK AAPMEIN KAVITA JAISA KUCH HAI JO VAHAN KAR SAKTA HAI DUKH-DARD DUNIYA KA ...VARNAA IS BEPRVAH DAUR MEIN MANUJ KI MOORAT KA KYAAL KAUN RAKHTA HAI ...?
EK PATTHAR BHI AGAR TARASHNE KA DARD SAH LE TO VAH SUNDAR MURTI BAN JATA HAI. AADMI NA JANE KYON IS DARD SE DOORI BANAKAR RAKHTA HAI,VARNA USKE INSAAN BANANE MEIN DER KYON HOTI ?
19 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर शब्द, भाव व दर्शन ! परन्तु सच तो यह है कि मनुष्य सदा से ही ऐसा ही था । शायद बनाने वाले में ही कोई दोष था या वह हमें ऐसा ही बनाना चाहता था ताकि हम गलत करते रहे और वह सजा देते रहे ।
घुघूती बासूती
बहुत गहरे भाव वाली कविता लिखी है आपने ..अच्छी लगी यह बहुत !!
सुंदर…भाव व कविता दोनो ही…
अरे ! आप ने तो कहा की कविता नहीं करते आप. खैर. बधाई हो सर जी. बहुत ही बढ़िया. मस्त कर दिया आप ने.
बहुत ही समकालीन बात कही है आप ने अपनी इस छोटी सी रचना में
भाई बहुत गहरी बात करते हैं आप कविता में...कमाल है..वाह. चंद शब्दों में ही सब कह गए आप...बधाई
नीरज
बहुत खूब, संजीत..बहुत ही अच्छे भाव..अच्छी कविता का अच्छा उदाहरण.
इतनी धीर गम्भीर कविता और आपका टिप्पणियों में अलमस्त स्वभाव - भाई, असली संजीत कौन है!
नये वर्ष मे उपहार के रूप मे एक कवि मिल गया और भला क्या चाहिये।
वाह क्या बात है! कितना जबरदस्त चिंतन है काव्य में...
सहजता में गहरी बात कह गए आप...कविता जैसा कुछ नहीं यह तो कविता ही है..आधुनिक युग की मुक्त कविता .
भाई घणी सीरियस बात करणै लाग रे हो। तबीयत ऊबीयत ठीक है ना।
मनुष्य के पास ही भावों के संयम का दम है यदि यह शक्ति नहीं है तो वह मनुज नहीं दानव है, वाह चंद लाईनों में पूरे पृष्टों की कहानी ।
यह .... जैसा कुछ नहीं है कविता ही है ।
(आपके जबरदस्त चिंतन पर मेरी टिप्पणी भतीतेवाद वाली)
संजीव
कम से कम शब्दों में आपने इतना अर्थ भर दिया है कि मेरा सुझाव है कि बंजारे को आवारागर्दी करने के बदले इस तरह का कुछ गंभीर काम करना चाहिये.
लेखों के साथ इस विधा को भी पकड लो. एतिहासिक बातों को भी काव्य में रख सकते हो क्या -- कोशिश करके देखो !!
ई मेल पर प्राप्त अजित वडनेरकर जी का कथन-
"पहचान की तलाश के क्षण ही सर्जनात्मकता का आधार बनते हैं। बढ़िया है।"
शुक्रिया आप सभी का!
ज्ञान जी, संजीत दोनो ही है।
हम अपने मन में कितने ही वैचारिक संघर्ष लिए हुए चलते है और साथ में अलमस्तता भी बनी रहती है।
iwil like to say only one word "WAHA"
अति सुंदर, क्या खूब लिखी है वह, वह ना रहा
PRIYA BHAI,
BESHAK AAPMEIN KAVITA JAISA KUCH HAI JO VAHAN KAR SAKTA HAI
DUKH-DARD DUNIYA KA ...VARNAA IS BEPRVAH DAUR MEIN MANUJ KI MOORAT KA KYAAL KAUN RAKHTA HAI ...?
EK PATTHAR BHI AGAR TARASHNE KA DARD SAH LE TO VAH SUNDAR MURTI BAN JATA HAI.
AADMI NA JANE KYON
IS DARD SE DOORI BANAKAR RAKHTA HAI,VARNA USKE INSAAN BANANE MEIN DER KYON HOTI ?
SAMVEDNA-SAMPANNA RACHNA KE LIYE BADHAI.
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