दो दिन पहले स्थानीय समाचार पत्रों में एक खबर आई, खबर थी आदिवासी इलाके से। जिसमें बताया गया था कि नक्सली अब अपनी मदद के लिए बच्चों का सहारा लेने लगे हैं, बकायदा "बाल संघम' नामक अपनी एक शाखा बनाकर। बाल संघम में बच्चों को जोड़ा जाता है। ये बच्चे अक्सर नक्सलियों के लिए मुखबिर का काम करते हैं, उन्हें पुलिस के आने जाने की और पुलिसिया हरकतों की खबर पहुंचाते हैं। पत्रादि या सूचना लाते ले जाते हैं।
ऐसी ही एक बच्ची, अखबार में जिसका नाम सुरक्षागत या अन्य कारणों से चैती बताया गया है। आठ साल की है, कभी स्कूल नही गई तो हिंदी नही बोल सकती पढ़ना तो दूर। अखबार में इस बच्ची की तस्वीर भी आई है, बताती है कि वह एरिया कमाण्डर नक्सली को भी जानती है और अन्य को भी। बच्ची ने और भी कई सूचनाएं पुलिस को दी है। खैर……
विस्तृत जानकारी नीचे लिखे वाक्य पर क्लिक कर पाई जा सकती है।
"बाल संघम सदस्य देते है नक्सलियों को सूचना"
खबर पढ़कर अफ़सोस हुआ कि नक्सली बच्चों का ऐसा उपयोग कर रहे हैं। सीधे जान का खतरा, ये छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें किसी किस्म के "वाद" से कोई मतलब ही नही। न यह राजनीति जानते होंगे ना ही नक्सलवाद की मुख्य बातें। क्या इन बच्चों की जान खतरे में नही डाल रहे यह नक्सली। बाल अधिकारों की दुहाई देने वाले एक-दो एन जी ओ के सदस्यों से हमने इस मामले में बात की तो उन्होने मौन धारण कर लिया।
खूनी हिंसा के खेल में नादान बचपन को शामिल करने पर अब सब खामोश हैं, कहां है वे बड़े-बड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, बुद्धिजीवी, जिनके लिए हमने "मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व एक्टिविस्ट के नाम एक छत्तीसगढ़िया का पत्र" लिखा था। उनसे फ़िर हम यही सवाल करना चाहेंगे कि क्या नक्सली अब भी जो कर रहे हैं वह ठीक कर रहे हैं, हफ़्ते भर पहले ही एक आदिवासी इलाके के स्कूल में आग लगा दी गई ताकि वहां पढ़ाई बंद हो जाए और बच्चों को बाल संघम के माध्यम से अपने इस खूनी खेल का हिस्सा बना रहे हैं। क्या ये सही कर रहे हैं।
सड़क पर उतर कर अपराधियों के मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले इन बड़े बड़े नामों और बड़े बड़े व्यक्तियों को इन नन्ही जानों की कोई परवाह है?
अरे जीने दो यार इन बच्चों को कम से कम, शिक्षा न पा रहे हैं न सही पर उन्हें जीने तो दो। क्यों उन्हें इस खूनी खेल का एक हिस्सा बना रहे हो।
08 December 2007
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6 टिप्पणी:
प्रकारांतर से यही कश्मीर में भी हुआ, कुम उम्र के नौजवानों को निशाना बनाया जाता है क्यांकि वे आसानी से छलावे में आ जाते हैं. नक्सलवाद की जड़ में कही न कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था की खामियां हैं लेकिन शासन इसे समझना नहीं चाहता. बच्चों का इस्तेमाल होने लगा है तो जाहिर है समस्या अब और गंभीर होगी.
नक्सलियों ने बहुत कुछ किया है जो मानवता के विरुद्ध है...ये समस्या पूरी तरह से कानून और व्यवस्था की है...जब समस्या अपने चरम पर हो तो ऐसी समस्या के लिए सामजिक कारणों को खोजना, आंखें बंद करने के समान है.
बच्चों का इस तरह से इस्तेमाल हो रहा है...कहाँ हैं मानवाधिकार वाले?
एक तरह से ठीक है - जब तक पूरी तरह अपनी वीभत्स नीचाइयां दिखायेगा नहीं, तब तक नक्सलवाद जायेगा कैसे? पर वे बुद्धिजीवी कहां हैं?!
ये एक गंभीर समस्या है जो उत्पन होती है घोर सामाजिक असंतुलन से और फिर विकराल रूप धारण कर लेती है हमारे महान नेताओं के महान कर्मो से और सरकारी तंत्र की असफलता के कारन.
आपने बहुत अच्छे से अपनी बात कही.
आप आवाज़ अपनी बुलन्द रखिए...
शायद अज़ान की तरह किसी कान में जाकर कुछ करिश्मा कर जाए...
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं..
इस पर एक बड़ी रिपोर्ट बीबीसी पर भी आयी थी। शायद एनडीटीवी पर भी थी। बहुत गंभीर मसला है यह।
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