आज़ादी एक्स्प्रेस रायपुर स्टेशन में दो दिन खड़ी रही , पहले दिन ही उसमें भ्रमण के दौरान जो तस्वीरें हमने ली उनमें से कुछ यहां प्रस्तुत है। पहली बोगी में प्रवेश करते ही साथ चार-पांच कदम चलने पर बाएं तरफ़ लगे लार्ड मैकाले के प्रस्ताव की यह प्रति बरबस ही आपका ध्यान खींच लेगी और आप थमकर इसे पढ़ने लग जाएंगे। पढ़ने के बाद आपके मन में दो तरह के भाव आएंगे, एक तो यह कि तब का भारत कैसा था, दूसरा यह कि लार्ड मैकाले की योजना कितनी सफ़ल साबित हुई! और फ़िर आप मन ही मन लार्ड मैकाले को कोसने भी लगेंगे शायद। 12 बोगियों में फ़ैली इस संपूर्ण गाथा को ही अपने कैमरे में समेटने का दिल करता है। खैर! प्रस्तुत है कुछ तस्वीरें।
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13 टिप्पणी:
मैकाले को सलाम.
भोपाल से पहुंची है ट्रेन । पर दुर्भाग्य हम इस प्रदर्शनी को नहीं देख पाए क्यों कि यहां पर साइंस एक्सपो भी लगा था और सिर्फ एक ही दिन मिला था उसे देख पाने का। बहरहाल अब आपके दिखाए चित्रों में देख लिया है। अलबत्ता मैकाले वाली टिप्पणी जबर्दस्त है। दूरदर्शी तो था भाई....
आप बहुत आशावादी लगते हैं। ज्ञानदा से आय में हिस्सा बँटाई की बातें करने लगे। याद नहीं हाल ही में उन्होंने फटे तल्ले वाले जूते का फोटो सबको दिखाया था ....
इस रायपुर एक्सप्रेस को हम तक पहुचाने के लिए धन्यवाद
Sanjeet Tripathi जी नमस्कार,लार्ड मैकाले की आत्मा कितनी खुश होगी,उसके सपनो का INDIA (भारत ) बिल्कुल वेसा ही बन रहा हे,जेसा वो चाहते थे,एक लेख लिख सको तो जरुर लिखे *** गुलामी की ओर***
राज भाटिया
बन्धु, अखबार वाले भी इससे लेखन/रिपोर्टिंग की प्रेरणा ले सकते है। बहुत सुन्दर।
मैकाले का यह कथन तो बहुत विवादास्पद और ब्रिटिश दम्भ है।
बेहतरीन संकलन का दर्शन करवाया है। धन्यवाद
इस पर पहले भी आपका एक लेख पढा था। मै तो चूक गया। नही जा पाया। आपके बाबूजी के विषय मे कैसी प्रस्तुति की गई, इस पर भी पोस्ट लिखियेगा।
भाई संजीत जी,
इस बारे में मैंने अपने अप्रैल के एक ब्लॉग में लिखा था, उस समय "मिर्ची सेठ" ने कहा था कि यह मैकाले का कथन है या नहीं यह तथ्य सिद्ध नहीं हो पाया है, कृपया इस लिंक को और टिप्पणियों को देखें...
http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2007/04/blog-post_04.html
लार्ड मैकाले को पढ़ते ही पुराने ज़ख्म हरे हो गए जब हम अध्यापन के दिनों में पढाते समय मैकाले की शिक्षा-व्यवस्था को कोसते हुए CBSE से शिकायत किया करते थे कि इस शिक्षा-प्रणाली को बद्ला जाए लेकिन आज अच्छी तरह से समझ आ गया कि रीढ़ की हड्डी टूटते ही हमारी व्यवस्था को लकवा मार गया सो कैसे बदलाव आ सकता है....
यह तो कोई बड़ी भूल चूक लगती है कि मैकाले के कथन को सरकारी महकमें ने इतनी उदारता से आजादी एक्सप्रेस में चिपका दिया. सरकार तो मैकाले के मानसपुत्रों से भरी है, फिर यह गलती कैसे हो गयी?
एक आदमी पूरी की पूरी जेनरेशन को प्रभावित कर सकता है सोच कर डर लगता है और गुस्सा भी आता है। अगर ये मैकाले न होता तो भारत का रूप ही कुछ और होता।
धन्यवाद, संग्रहणीय जानकारी ।
मैकाले साहब को कई बार धन्यवाद कहने की भी इच्छा होती है। तमाम राष्ट्रवादी सोच को एक तरफ रखते हुए। क्षेत्रवादी , धार्मिक, छुआछूत जैसी संकीर्ण सोच से हम तब भी ग्रस्त थे और कमोबेश आज भी। विदेश जाने पर समाज से बहिष्कार का दंश झेलने वाले भारतीय समाज में वह जागृति मैकाले की इसी सोच के तहत अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की वजह से आई। ज्ञान के दरवाजे खुले। बाहरी दुनिया सामने आई। अच्छा बुरा समझा गया और नतीजे में आजादी मिली। सर्वाधिक मज़बूत लोकतंत्र उभरा। यह न हुआ होता तो क्या होता यह काल्पनिक बात है मगर अंग्रेजी राज से हमने काफी सीखा।
मैकाले की शिक्षा पद्धति पर अकबर इलाहाबादी का एक शेर पेशे नज़र है-
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़कर के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं
प्रस्तुति के लिए आभार
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