अहमदाबाद निवासी हमारी एक मित्र वैशाली शाह पिछले दिनों हमें याहू चैट पर मिली। जब वह मिली तो हमने उनसे उनका हाल चाल पूछा। जवाब में टुकड़ों-टुकड़ों में उन्होंने जो कहा, उसे एक साथ पढ़ने से लगा कि यह तो "कविता जैसा कुछ" बन गया है। पूछने पर पता चला कि स्कूल-कॉलेज के दिनों में मोहतरमा लिखने का शौक फ़रमाती थी पर पिछले कई सालों से बंद है। उनकी इज़ाज़त से उनकी लिखीं पंक्तियां, हम यहां डाल रहे हैं।
चल रही है ज़िंदगी
धीरे-धीरे।
कभी उपर कभी नीचे
थोड़ी आगे थोड़ी पीछे
खुद को सुलझाती हमको उलझाती
कभी बिगड़ती तो कभी संभलती,
हैरान हूं थोड़ी ज़िंदगी से।
समझने की नाकाम कोशिश सी
जारी है
जिंदगी समझ में आती नही मुझे
मैं उसे और उलझाती जाती हूं।
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मन को इतनी छूट न दो
कि वह कहते-कहते
तुम्हारी सुनना ही बंद कर दे।
अगर उसकी सुनने लगो इतनी
तो यह न हो
कि बोलना ही वह तुम्हारा बंद कर दे।
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14 टिप्पणी:
अच्छी है.
पढ़कर सच ही अहसास हुआ कि बात की बात मे कविता बन गई.
'खुद को सुलझाती हमको उलझाती
कभी बिगड़ती तो कभी संभलती,"
बहुत खूब. एकदम सही.
भौत बढि़या है जी।
जिंदगी की व्याख्या बडे ही सरल शब्दों मे की है।
बहुत खूब वैशाली जी... वैसे अब आप संजीत जी की मित्र हैं तो इतना तो पक्का है की लिखने का शौक आपको जरूर होना कहिये. कविता अच्छी है और एक अलग सी मस्ती भरी हुई है..
संजीत जी, कृपया ये सन्देश वैशाली जी को "पास" कर दीजियेगा...
मन को इतनी छूट न दो
कि वह कहते-कहते
तुम्हारी सुनना ही बंद कर दे।
-- बहुत गहरी बात कह दी... शुभकामनाएँ
बात बात में बहुत ही सुन्दर भावों वाली बहुत सुन्दर कविता बनी है ।
घुघूती बासूती
मन को इतनी छूट न दो
कि वह कहते-कहते
तुम्हारी सुनना ही बंद कर दे।
सही बात
अच्छी लगी ज़िन्दगी को समझने की ईमानदार कोशिश
सही है - लगाम मन पर भी कसें और बोलने पर भी। अति सर्वत्र वर्जयेत!
antim panktiyaan bahut achhhi lagin,vaisey mujhey lagaa ki ye hamari vaali vaishaali hai..magar pic to kuch aur kah raha hai.
बहुत खूब संजीत भाई, अहमदाबाद से वैशाली जी का पैगाम 'कविता जैसा कुछ' नहीं कविता ही है ।
बधाई हो वैशाली जी भावो को बेहतर उकेरा है शव्दो में ।
संजीतजी
आपकी अहमदाबाद की मित्र को सलाह दीजिए। ब्लॉग बनाएं उस पर लिखना शुरू कर दें।
कविता ही है और क्या.....
आपकी जाल-मित्र भाग्यशाली हैं कि आप जैसा काव्य का पारखी मित्र मिला
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