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15 August 2007

"हम लोग"



पंद्रह अगस्त, कैलेंडर पर देखें तो सिर्फ़ एक आम दिन, पर तवारीख से देखें तो भारतीयों के लिए एक खास दिन! हां, इसे हम आज़ादी का दिन कहते-मनाते आएं है और कहते-मनाते ही रहेंगे यह तो निश्चित है। बावजूद देशवासियों में से "कुछ" और "कुछ" के नज़रिए के बाद भी, इनमे से पहला "कुछ" वह है जो यह सोचता है कि लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई हमारे सरकार, हमारे कानून अंतत: हमारा, आम जन का ही शोषण करने के लिए हैं। मै उन्हें यह नही कहने जा रहा कि वे सिरे से गलत सोच रखते हैं, हां हमारे कुछ कानून कहें या उनके पेंच कहें ऐसे हैं जिनके बारीक छिद्रों से कभी कोई अपराधी बच निकलता है वैसे ही उन्ही छिद्रों के आधार पर आम-जन पिस जाता है, या बलि का बकरा बना दिया जाता है। पर सिर्फ़ कुछेक या ऐसे कुछ ज्यादा कानूनों के आधार पर यह सोच ज़िन्दा रखना कि हमारी सरकारें और हमारा कानून शोषण करने के लिए ही है यह कहना कहां तक सही है मेरी नासमझी मुझे नही समझा पाती। यह पहले "कुछ" वें ही है जो अक्सर यह सोचा करते हैं कि इस देश को बचाना होगा उन सभी से जो इस सोच में हमारे सहभागी नही हैं। क्या ये "कुछ" हमारे देश के संविधान और कानून को इस लायक नही समझते कि उनके सहारे यह देश बचा रहेगा। ऐसी सोच रखते वक्त ये यह भूल जाते हैं कि ये वही संविधान और कानून है जिसके कारण यहां ऐसे फ़ैसले भी आते हैं जो ऐतिहासिक साबित होते है। यहां पर यह बात उठ सकती है कि ऐसे फ़ैसले उंगलियों पर गिनाए जा सकते हैं। इसके पीछे ज़िम्मेदार कौन, निश्चित तौर पर हम ही!! हम अर्थात ये दोनो "कुछ" और कुछ समेत, मैं, आप जो इसे पढ़ रहे हैं वे भी जो इस लिखे को नही जानते, या हर वह इंसान जो इस देश का नागरिक है, क्योंक यह समाज़ हम से ही बना है और इसकी बुराइयों के लिए भी हम ही ज़िम्मेदार हैं। जब उंगलियां उठने की बात होती है तो क्यों हम नागरिक अपने को इन बुराइयों का अंश-मात्र भी ज़िम्मेदार होने से इनकार कर अपने को एक आदर्श नागरिक साबित करने में लग जाते हैं और क्यों हम तब एक आदर्श आलोचक की भूमिका निभाते हुए सिस्टम या राजनीति को कोसने बैठ जाते हैं। यह सिस्टम, यह राजनीति इनके लिए भी ज़िम्मेदार हम नागरिक ही तो हुए ना। पहला "कुछ" वर्ग वो है जो दबे कुचले लोगों की हिंसा को ज़ायज़ बताते हैं। अगर शोषित वर्ग किसी एक खास "वाद" के रास्ते पर चलते हुए हथियार उठा ले तो क्या वह सही है, क्या यह सही है कि वे इस तरह हथियार उठा कर बेकसूर लोगों के खून से अपने हथियार रंग रहे हैं। किस आधार पर सही कहा जाए इसे सिर्फ़ इस आधार पर कि जो हथियार उठाए हुए हैं वे सदियों से शोषित ैं। "वाद" सही हो सकता है पर यह खूनी हिंसा किस आधार पर सही है यह मेरी नासमझी मुझे नही समझा पा रही।


और दूसरे "कुछ" साहिबान जो यह सोच रखते हैं कि पंद्रह अगस्त का जश्ने-आज़ादी फ़ालतू है , क्योंकि यह एक तरह का "सत्ता-हस्तांतरण" ही मात्र था क्योंकि "कंपनी" चली गई पर "कंपनीराज" आ रहा है। इस कंपनीराज की बात से तो मै भी सहमत हूं क्योंकि इस से होने वाले नुकसान मुझे मेरी नासमझी के बाद भी समझ में आते है लेकिन इस बात ही से मेरे मन में सवाल उठा कि अगर वह पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को जो हुआ वह आज़ादी नही था तो क्या इस देश के वे लोग जिन्हें हम शहीद और सेनानी कह कर जानते हैं इन्होनें क्या सिर्फ़ एक सत्ता हस्तांतरण के लिए अपनी जान कुरबान की। क्यों तब हजारों तरुणों ने अपनी तरुणाई के दिन जेलों में गुजारे, क्या सिर्फ़ एक सत्ता हस्तांतरण की खातिर। क्यों कई मांओं ने तब अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अपनी इकलौती संतान को भी वतन की माटी पर कुरबान कर दिया, क्या सिर्फ़ एक सत्ता हस्तांतरण के लिए, क्यों तब हजारों पत्नियों ने अपनी मांग के सिंदूर को अपनी आंखों के सामने जेल जाते या अंतिम सफ़र पर जाते देखा होगा, क्या सिर्फ़ "सत्ता-हस्तांतरण" की खातिर। साहिबान, "कंपनी राज" आ रहा है तो उस "सत्ता हस्तांतरण" के कारण नही बल्कि मेरी, आपकी, हमारी सोच के कारण, हमारी चाहत के कारण। बदलाव समय के साथ आते ही हैं अगर हम यह सोचें कि हम देश चलाएंगे पर बाहर के देशों मे अपना माल बेचेंगे बस, उन्हें यहां कुछ बेचने की इज़ाज़त नही देंगे। यह बात कहने सुनने में अच्छी लग सकती पर व्यवहारिकता के धरातल पर कितना सच होता है यह एक परचूनिया भी समझ सकता है मेरे जैसी नासमझी के बाद भी।

जिन्होनें हमें आज़ादी दी उन्होने हमें कुछेक सपने पूरे करने की ज़िम्मेदारी भी दी थी, हमने आज़ादी तो ले ली पर उन सपनों का क्या हुआ, कहां गुम हो गई उन सपनों को पूरा करने की कोशिश। क्यों हम आज साठ साल बाद भी सिर्फ़ यही कहते आ रहे हैं कि हमें सपनों का
भारत बनाना है, अगर साठ साल बाद भी हम यही कहेंगे तो बनाएंगे कब। लेकिन बात वही है कि हम क्यों नही बना पाए है उस सपने का भारत जो आज़ादी के दीवानों ने देखा था। क्योंकि हम में कमी थी, हममें वो जज्बा नही रहा जो उस "सत्ता-हस्तांतरण" के लिए मर-मिटने वालों, तरुणाई जेल में होम करने वालों मे था। अक्सर हम हर बात के लिए राजनीति को दोष देते हैं कि राजनीति बहुत ही गंदी हो गई है पर हम यह भूल जाते हैं कि एक प्रसिद्ध लेखक ने अपने और भी प्रसिद्ध उपन्यास मे लिखा था कि "पतितावृत्ति के बाद एक राजनीति ही मनुष्यों का सबसे पुराना पेशा है।" तो फ़िर सिर्फ़ राजनीति को दोष क्यों, राजनीति को भी इस हाल में लाने का दोष स्वीकार करने का साहस क्या हम बतौर नागरिक कर पाएंगे। हम अक्सर परनिन्दा करने मे आगे होते है, दूसरे की आलोचना, समीक्षा करने में अव्वल रहते हैं पर क्या कभी हम अपना खुद का बतौर एक नागरिक विश्लेषण कर पाते हैं कि एक आदर्श नागरिक के रुप में हम कितने खरे उतरते हैं। लाख टके का सवाल यह कि जब नागरिक ही आदर्श ना बन पाएं तो देश कैसे आदर्श होगा!! हम अपना कचरा सड़क पर फ़ेंके पर दूसरे से अपेक्षा यह करें कि वह निर्धारित जगह पर ही फ़ेंके, हम भले ही ट्रैफ़िक सिगनल का पालन ना करें लेकिन जब हमारी गाड़ी पर किसी की जल्दबाज़ी से खरोंच आ जाए तो लड़ने बैठ जाएं कि उसने ट्रैफ़िक सिगनल तोड़ा इसलिए ऐसा हुआ। यह है तो छोटी छोटी बातें पर एक नागरिक के रुप मे हम इन्ही छोटे पैमानों पर ही अपने आप को तौलना शुरु तो करें। अब एक और बात, क्यों ऐसा होता है कि हिंसा "वाद" वाले नई पीढ़ी को अपनी ओर आकर्षित करने में सफ़ल हो जाते हैं, क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे अपने तर्कों और सबूतों के आधार पर यह साबित करने मे सफ़ल हो जाते हैं कि सरकार और कानून सिर्फ़ दमन जानते है। क्यों, क्यों समाज इस नई पीढ़ी को आदर्शों से जोड़ पाने मे असफ़ल साबित होता है जिसके कारण वे इस नकारत्मक दृष्टिकोण की ओर ज्यादा जल्दी आकर्षित हो जाते हैं। यहां पर मै दो फ़िल्मों का उल्लेख करना चाहूंगा बावजूद इसके कि मै फ़िल्में कम ही देखता हुं और ना ही उनकी समीक्षा करने लायक दिमाग मेरे पास है। पहली फ़िल्म "रंग दे बसंती" जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे क्रांतिकारियों पर फ़िल्म बनाने की इच्छुक एक विदेशी बाला हमारे ही देश में आकर विदेश जाने की चाह रखने वाले लड़के और उसके दोस्तों जो जिन्हें "आज़ादी" जैसी चीज का अर्थ यही समझ मे आता कि भ्रष्टाचार की आज़ादी, इन युवाओं के लिए देशभक्त्ति सिर्फ़ किताबों की बातें हैं से मिलती है। पर वह विदेशी बाला हार नही मानती और हालात बदलते हैं मौज मस्ती को ही जीवन मानने वाले लड़के कैसे एक कथानक के माध्यम से जुड़ते हुए देशभक्ति को जीते हैं । हालांकि इस फ़िल्म का अंत मेरे नासमझ नज़रिए से गलत है क्योंकि वह हिंसा का सहारा लेती है फ़िर भी मै इसे आजकल की " मस्ट सी " श्रेणी मे रखूंगा । इस फ़िल्म की बात कहते हुए मै यही कहना चाहूंगा कि जब देशभक्ति का जज्बा इस फ़िल्म में मौजमस्ती के शौकीन युवाओं मे जगाया जा सकता है तो फ़िर क्यों यथार्त में हिंसा "वाद" जगाने वाले ज्यादा सफ़ल हो पा रहें है। कमी हममें, हमारे समाज में ही कहीं हैं। इस कमी को ढूंढ कर दूर भी हमें ही करना होगा। दूसरी फ़िल्म के रुप में मै "लगे रहो मुन्नाभाई" का नाम लेना चाहूंगा। जिसमें गांधीवाद को एक नए अंदाज़ "गांधीगिरी" के रुप मे पेश कि्या गया है, हालांकि इस गांधीगिरी शब्द पर विवाद भी हुआ क्योंकि "गिरी" शब्द या प्रत्यय से जो ध्वनि निकलती है उसमें आदर की ध्वनि नही है जबकि हम मनस से "गांधी" के साथ आदर देखते-सुनते आएं हैं। लेकिन बात इसकी नही है बात यह है कि भले ही "गिरी" कहा गया हो पर इससे गांधीवाद की महत्ता इस फ़िलम ने कम नही की है बल्कि इस "वाद" की गंभीरता को बनाए रखा है और यह बताया कि यह "वाद" आज भी उतना ही प्रासंगिक है। किस तरह अपने नए रुप मे यह वाद युवाओं से जुड़ सकता है यह इस फ़िल्म में हल्के-फ़ुल्के हास्य के सहारे बताया गया है। इसे भी मै मस्ट सी श्रेणी मे रखना चाहूंगा( कृपया ज्ञानदत्त जी दोनो फ़िल्मों के नाम नोट कर लें)। इस फ़िलम का जिक्र मै यहां पर सिर्फ़ इस नज़रिए से कर रहा हूं कि इन फ़िल्म ने यह बताया है कि अगर नई पीढ़ी को पुरानी चीजों, बातों से जोड़ना है तो इसके लिए हमें तरीके उनके, नई पीढ़ी के ही आजमाने होंगे तभी हम सफ़ल हो पाएंगे!! सिर्फ़ उपदेश देकर हम नई पीढ़ी के मन तक राष्ट्र और राष्ट्रवाद के सिद्धांत को, आदर्शों को बिठाने मे सफ़ल नही हो पाएंगे! चिंतन प्रक्रिया चालू आहे और यही बात इस मन में बार बार उभरती है कि चाहे देश में माटी से जुड़े ऐसे लोगों की संख्या कितनी भी बढ़ जाए जो इस हिंसा "वाद" को समर्थन दें या फ़िर जश्ने-आज़ादी को सिर्फ़ एक "सत्ता-हस्तांतरण" मानें या फ़िर वे जो भ्रष्टाचार, धर्म आदि के कारण इस देश को रसातल में जाता सोच रहें हो फ़िर भी उनकी संख्या इस देश की माटी से जुड़े ऐसे लोगों से कम ही होगी जिन्हें लोकतंत्र में गहरी आस्था है और रहेगी बावजूद इसके कि राजनीति गंदी हो चुकी है या फ़िर और गंदी होती जा रही है( हम करते ही जा रहे हैं इसे और गंदा, अपने-अपने स्वार्थों की खातिर)। इस देश के करोड़ो लोग यही सोचते थक कर चूर हुए रोज रात में सोते हैं कि सपनों का भारत लेकर एक नई सुबह आएगी ही क्योंकि
होंगे कामयाब, होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो हो मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन
होगी शान्ति चारों ओर होगी शान्ति चारों ओर
होगी शान्ति चारों ओर एक दिन
हो हो मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
होगी शान्ति चारों ओर एक दिन
हम चलेंगे साथ साथ डाले हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
हो हो मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो हो मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
(गिरिजा कुमार माथुर)
अंत में मै फ़िर से एक बार कहना चाहूंगा कि सपनों का भारत बनाने के लिए पहले हमें सपनों का समाज बनाना होगा क्योंकि बकौल निदा फाज़ली साहब

" हरेक घर में दिया भी जले अनाज भी हो,
अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो।
हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नही,
हुकूमतें जो बदलता हो वह समाज भी हो।"
(एहतिजाज=विरोध)



नमन है उन सभी जाने-अनजाने शहीदों को और उन जाने-अनजाने सेनानियों को भी जिन्होंनें एक सपना देखा आज़ाद भारत का और उसे पूरा कर हमें सौंप भी गए! नमन है ऐसी माताओं को जिन्होनें ऐसे सपूतों को जन्म दिया!! सर्वजन को स्वतंत्रता दिवस की बधाई व शुभकामनाएं

अंतिम चित्र को छोड़कर बाकी सभी चित्र विकीपीडिया से साभार

21 टिप्पणी:

Urban Jungli said...

Very nice presentation bhaiya..

Happy Independence to you and to everyone.. !!!!

Jai Hind..

Aman..

36solutions said...

भावविभोर करती रचना, शव्‍द शव्‍द सोंचने को मजबूर करती हैं लेख का मूल भाव जो आप कहना चाहते है उससे मैं भी पूरी तरह से सहमत हूं कि प्राचीन परंपराओं एवं संस्‍कृति को नये लोगों में थोपा जाना उचित नहीं है बल्कि उसे नई पीढी व नई सोंच के अनुसार ही उनमें इसे आत्‍मसाध कराने का प्रयास करना चाहिए आखिर हम सब के खून में वही भारतीयता का खून दौड रहा है आवश्‍यकता है तो सिर्फ उसे आकार देने का हमारे मानस में स्‍वतंत्रता दिवस जैसे महान पर्व एवं राष्‍ट्रवाद के लिए सम्‍मान पैदा करने का ।

दूसरी बात आपकी समझदारी इस लेख से स्‍पष्‍ट परिलक्षित होती है अपने जो भी कहा है वह सत्‍य है ।

पुन: बधाई समसामयिक तथ्‍यपरक चिंतन को प्रस्‍तुत करने के लिए ।

वंदे मातरम ।

“आरंभ” संजीव का हिन्‍दी चिट्ठा

Anita kumar said...

बहुत ही बड़िया और मौलिक लिखा है,आपका प्रसतुतीकरण बहुत ही रोचक है...मुबारक हो...

Anita kumar said...

मैं सजींव जी से सहमत हूँ आपकी समझदारी इस लेख से स्पष्ट झलकती है...आप जैसे चितकं हैं इस लिये इस देश का भविष्य उज्जवल है

anuradha srivastav said...

संजीत जी स्वतंत्रा दिवस की बधाई । समसामयिक और गम्भीर लेखन के लिये साधुवाद ।
आपने जो भी लिखा सोचने और गुनने को मजबूर करता है । राजनीति पूरी तरह से भ्रष्ट
है और सबसे बडे भ्रष्ट हम खुद हैं । आँख मूंद कर ,लकीर के फकीर बन कर
परिपाटी की बात करते हैं । पर यथार्थत; हम सिर्फ बात ही करते हैं । कथनी और करनी
का फर्क मिटाना होगा साथ ही युवापीढी को नये सिरे से आजादी की परिभाषा से वाकिफ करना होगा ।
इसी तरह लिखते रहिये कुछ तो होगा ।

Gyan Dutt Pandey said...

अच्छा है, बुरा है, देश अपना है. और अगर देखें तो बहुत कुछ है जिस पर गर्व किया जा सकता है. बहुत विकास है.
एक अच्छा विचारोत्तेजक लेख देने को बधाई.

Pankaj Oudhia said...

सोचने के लिये मजबूर करती सशक्त अभिव्यक्ति।

Gyan Dutt Pandey said...

और फिल्मों के नाम याद कर लिये हैं!

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया विस्तार से लिखा है, आभार.

स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें।

mamta said...

बिल्कुल सही लिखा है।
स्वतंत्रता दिवस की पावन संध्या पर हार्दिक बधाई।

श्रद्धा जैन said...

aapki is rachna ne bhaut had tak aaj ke har pidhi ke soch ko likh diya hai
aapki gharayi aur soch main tharaav safa jhalakta hai ismain

sajeet ji aapke bhaav aur aapke chintan karne ki aadat se bahli bhaanti parichit hoon
aapke is lekh ke liye aapko badhayi

sawantra diwas ke liye bhaut si badhyi aapko

aur bus viswas ki aapke aur bhi lekh padhne milenge

ghughutibasuti said...

स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें। आपका लेख बहुत ही सही , अच्छा व समयानुकूल
है । मैं आपसे शत प्रतिशत सहमत हूँ ।
घुघूतीबासूती

vimmi said...

dil ko chhota hua lekh...........simply great.........

गरिमा said...

जी बिल्कुल इसे हम आज़ादी का दिन कहते-मनाते आएं है और कहते-मनाते ही रहेंगे, इसका सीधा सा उदाहरण मैने अपने घर मे ही देखा है... मेरी मम्मी, जो कि राजनिती, इत्यादि से दूर ही रहती हैं, फिर भी 15 अगस्त के आते ही किसी और दुनिया मे रहने लगती हैं, या यूँ कहिये कि वास्तव मे हमे जिस दुनिया मे जीना चाहिये वहाँ चली जाती हैं, इस समय इनका चेहरा देखो तो लगता है कि हाँ, यह है स्वतंत्रता की सही अभिव्यक्ति।

आपने जो "कुछ" और "कुछ" पर नज़र डाला है.. बहुत सही है, हम भी इन्ही कुछ मे हैं, कितना कुछ किया है और करना है, यह खुद ही सोचना पडेगा, वरना कुछ ना करने के बावजुद कुछ ना कुछ कहने वालो की भीड़ मे अपना पहला नाम होगा।
किसी ने सही कहा है कि दुसरे की तरफ अंगुली उठाने वाले पहले सोच ले कि बाकी की चार अंगुलिया आपको ही इशारा कर रही होती हैं।
इसलिये सही यही होगा कि कुछ कहे बिना कुछ करे।
आपकी हरेक बात से सहमत हूँ, और बहुत कुछ ऐसा भी मिला, जो नयेपन के साथ अच्छा लगा, और बहुत कुछ सोचने, समझने और करने को भी दे गया.... आपका बहुत बहुत शुक्रिया :)।

जय हिन्द

Ashwini Kesharwani said...

achchhi aur prernadayee rachna hai, dhanyawad.
ashwini kesharwani

सुनीता शानू said...

संजीत जी मैने कल आपको टिप्पणी दी मगर आपकी पोस्ट पर नजर नही आई है...
आपका लेखन बहुत ही अच्छा लगा पढते-पढते अचानक फ़िल्मो के नाम भी पता चले...:)

सबसे मुख्य बात यह है की आजादी को जो लोग "सत्ता-हस्तांतरण" का नाम दे रहे है गलत है... "सत्ता-हस्तांतरण" के लिये क्यों इतनी कुर्बानी होगी,हमारे देश ने स्वतंत्रता की अनेको लड़ाईयाँ लडी़ है...अगर वह "सत्ता-हस्तांतरण" की लड़ाई होती तो कोई भी सेनानी शहिद नही होता...आज भी तिरंगे की आन-बान और शान की खातिर सैनिक सीमा पर तैनात हैं...क्या आज भी उन्हे सत्ता का लालच है?
आजादी के साठ साल बाद भी हम आजादी की वो सपनों वाली तस्वीर नही बना पायें जो हमारे बुजुर्ग हमारे लिये देख गये थे...इसका मुख्य कारण आज हर आदमी अपने बारे मै सोचने लगा है...

"सविंधान" बदलने से या "सत्ता-हस्तांतरण" करने से कोई हल नही निकलेगा...जरूरी है हमे अपने नैतिक मूल्यो को समझना...मिल जुल कर एक दूसरे को प्रोत्साहित करेगा ...जब समस्त राष्ट्र
आजादी के सपनो को पूरा करहे के लिये आगे होगा

सुनीता(शानू)

Satyendra PS said...

संजीत भाई ,
बहुत खूब , अब कुछ करने का वक़्त आ गया है,ब्लोगिन्ग से आगे जाकर भटकते लोगों को रास्ता दिखाने का और खुद उसपर चलने का !

Satyendra PS said...

संजीत भाई ,
बहुत खूब , अब कुछ करने का वक़्त आ गया है,ब्लोगिन्ग से आगे जाकर भटकते लोगों को रास्ता दिखाने का और खुद उसपर चलने का !

रंजू भाटिया said...

मैने इस रचना पर पहले भी टिपणी दी थी
पता नही कहाँ ग़ायब हो गयी :)
आज़ादी की सालगिरह
के अवसर पर आपकी यह रचना पढ़ना बहुत अच्छा लगा ..बहुत बढ़िया विस्तार से लिखा है..प्रस्तुतिकरण बहुत अच्छा है निदा फ़ाज़ली की पंक्तियाँ हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नही,
हुकूमतें जो बदलता हो वह समाज भी हो।"पढ़ना दिल में जोश भाव जगा देता है ... बधाई.

Sanjeet Tripathi said...

आप सभी का आभार!!

ज्ञान जी, मै आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूं हमारे पास सौ ऐसे कारण हैं कि हम गर्व करें लेकिन दस ऐसे कारण भी है जिनके कारण हमें शर्म करना पड़ता है कि हम ऐसे ही समाज का एक हिस्सा है। तो क्यों न हम पहले इस शर्म के कारणों को दूर करने का प्रयास करें क्योंकि एक बार अगर गर्व करने बैठ गए तो शर्म वाले कारण उस गर्व की रोशनी में छिपने से लगेंगे!!

गरिमा जी और सत्येंद्र जी, निश्चित तौर से शुरुआत हमें खुद से ही करनी होगी!! ठीक वैसे ही जैसे अगर हमारे देश का हरेक व्यक्ति अगर एक भी पौधा लगाकर उसकी देखभाल वृक्ष बनते तक करता है तो पर्यावरण में बिना किसी चिंता के सुधार हो जाएगा।

अनूप शुक्ल said...

अच्छा है। साठ साल बाद अपनी आजादी को कोसना बहानेबाजी है। समस्यायें हर कहीं हैं। हमारे यहां भी दूसरों के यहां भी। उनसे कैसे निपटते हैं ,यह हमारी सोच पर निर्भर करता है। अच्छा लेख लिखने के लिये बधाई!

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आपकी राय बहुत ही महत्वपूर्ण है।
अत: टिप्पणी कर अपनी राय से अवगत कराते रहें।
शुक्रिया ।