पिछले बार हमने जाना था छत्तीसगढ़ की मितान परंपरा को और आइए आज जानें हम "हरेली" के बारे में क्योंकि आज "हरेली" है। हरेली का अर्थ या हरेली क्या है यह वही जान समझ सकता है जिसने छत्तीसगढ़ में कुछ साल गुजारें हों और यहां के लोक-व्यवहार का अध्ययन किया हो। क्योंकि छत्तीसगढ़ के शहरों भी अब मे हरेली से सिर्फ़ यही आशय हो चला है कि कुछ ग्रामीण बच्चे आएंगे आपके घर के मुख्य दरवाजे पर नीम की टहनी या पत्ते टांगने फ़िर पैसा(आशीर्वाद) लेंगे आपसे!!
पर हरेली यह नही है, हरेली तो हरियाली का, सावन का स्वागत करने का किसान का अपना तरीका है। सावन महीने की अमावस्या को हरेली होती है।इस दिन किसान या कृषि कार्य से जुड़े लोग अपने कृषि उपकरण अर्थात, हल-नांगर की पूजा करते हैं, खेत में "भेलवा" की पत्तियों समेत टहनी लगाई जाती है ताकि अच्छी से अच्छी फ़सल हो। इसके अलावा इस दिन कृषि कार्य से जुड़ा और कोई काम नही किया जाता, पूजा कर अच्छी फ़सल की कामना की जाती है। घरों के मुख्य दरवाजे पर धान व नीम की पत्तियां खोंचीं (लगाई) जाती है ताकि घर अन्न से भरा पूरा रहे व मौसमी बीमारियों के साथ बुरी नज़र भी दूर रहे!
ऐसा माना जाता है कि इसी दिन छत्तीसगढ़ के गांवों मे पारंपरिक चिकित्सक माने जाने वाले "बैगा" भी अपनी नई चिकित्सा पद्धतियों को आजमाना शुरु करते हैं, जो कि अगले पंद्रह दिन तक जारी रहता है, बैगा गुरु अपने शिष्यों को जो जानकारी साल भर में देते हैं यह पंद्रह दिन उसके इम्तेहान का होता है, अगर शिष्य इस इम्तेहान में पास हो गया तब तो वह बैगा बन सकता है अगर नही तो फ़िर वह फ़िर से अगले साल हरेली तक अपने ज्ञानार्जन मे ही लगा रहेगा!!
इस दिन ग्रामीण घरों मे तले हुए पकवान अवश्य बनाए जाते हैं। साथ ही बच्चे "गेंड़ी" व "गेंड़ी दौड़" खेलते हैं। आइए बताएं कि यह गेंड़ी क्या है, करीब पांच-सात-आठ से दस फ़ीट उंचे दो बांस लेकर उनमें दो-तीन फ़ुट की उंचाई पर बांस के टुकड़े चीर कर आड़े लगा दिए जाते हैं। फ़िर बच्चे या व्यक्ति उन टुकड़ों पर चढ़कर उन दोनो बांस के सहारे ही चलते या दौड़ते है, बचपन में यह कोशिश हम भी कर चुके हैं। यह सारा खेल संतुलन का होता है।(देखें चित्र)
समय के साथ इस परंपरा में भी अंधविश्वास और बुराईयां आती गई।ग्रामीण अंचलो में यह माना जाने लगा कि हरेली की रात्रि को ही टोनही और बैगा अपने मंत्रों को आजमा कर देखते हैं कि वह सही काम कर रहे हैं या नही, इसीलिए, हरेली की रात्रि से पहले ग्राम देवता की पूजा कर गांव को बांध देने की परंपरा सी शुरु हो गई। बहुत से गांव में आज भी हरेली के दिन, रात में कोई अपने घरों से बाहर नही निकलता। इस सिलसिले में यदि रायपुर की संस्था "अंधश्रद्दा निर्मूलन समिति" और इस से जुड़े डॉ दिनेश मिश्र का नाम ना लिया जाए तो गलत होगा क्योंकि यह संस्था बहुत ही सराहनीय कार्य कर रही है। बारहों महीने यह संस्था इसी प्रयास में लगी रहती है कि लोगों के मन से इस टोनही आदि का डर या भाव निकाला जाए। हरेली जैसे मौकों पर तो यह संस्था अपने इस उद्देश्य में और ताकत से जुट जाती है!! जिस भी गांव से यह सुनाई पड़ता है कि वहां के लोग टोनही आदि बातों को मानते है या उसके भय में डूबे हुए हैं इस संस्था की टीम वहां के लोगों के साथ मौके पर रात बिताते हैं और उनके मन का भ्रम दूर करते हैं!! हरेली छत्तीसगढ़ के आंचलिक त्योहारों की शुरुआत है! अब अगली बार हम मिलेंगे "पोला"/"पोरा" की जानकारी के साथ
Tags:
16 टिप्पणी:
Very nice Information about our folk culture.
thanks
बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं आप । इस तरह से ही हमारा परिचय अपने राज्य , वहाँ की परंपराओं व त्यौहारों से कराते रहिये ।
घुघूती बासूती
अच्छी पोस्ट,
स्थानीय रीति रिवाजों एवं परम्परा के पास ले जाती है आपकी यह रचना
बहुत बहुत सुंदर ओर रचनात्मक लिखा है आपने
नयी जानकारी मिली है छत्तीसगढ़ "हरेली" के बारे में .... और जानने की उत्सुकता है यहाँ के बारे में
इंतज़ार रहेगा अगली बार पोला"/"पोरा" जानने का
भैया आप छत्तीसगढ़ी चिठेरों से तो मन गदगद हो जाता है आंचलिकता का स्वाद मिलने पर!
चिट्ठे पर कुछ ज्यादा प्रयोग हो गया है. पढ़ने में बहुत दिक्कत हो रही है.
संजीत जी आप तथा अन्य छतीसगढ़ी चिट्ठाकार ब्लॉगिंग विधा का प्रयोग अपनी संस्कृति के प्रचार हेतु बखूबी कर रहे हैं। आपका यह प्रयास प्रशंसनीय है।
संजीत जी बहुत अच्छा लगा पढकर छत्तीस गड़ के बारे में पढ़-पढ़ कर देखने की लालसा जाग उठी है आपका बहुत-बहुत धन्यवाद हमे इतनी जानकारी देने के लिये...
और शुक्रिया हम आपसे दूर जा ही कैसे सकते थे...इसीलिये आप सब लोगो का प्यार हमे खींच ही लाया है...
सुनीता(शानू)
अच्छी जानकारी दी है. आभार.
याद आ गया -अम्मा हरेली त्यौहार पर घर के बाहरी दरवाजे पर गोबर से कुछ आकृतियां बनाती थीं - गर्दिशों को दूर रखने के लिए प्रहरी बनाती थीं परंपरा और विश्वास में...
चिट्ठे की पृष्ठभूमि पढ़ने में दिक्कतें पैदा कर रहा है.
हरेली पर अच्छी जानकारी दी आपने। बधाई।
संजीत आंचलिक रीति-रिवाज काफी रोचक लगे ।
संजीत भाई, झौंहा झौंहा, टुकना टुकना बधई
मोर हरेली ला सब संग बांटेस ।
मैं हर अपन बर गेडी बनवाये ल गांव चल दे रेहेव तेखर सेती देरी ले टिपियात हैं ।
रहंचह बाजत मोर गेडी के अउ चहला बोबरा संग
बधई हरेली के
बहुत बढिया संजीत जी...बेहतरीन पोस्ट.
वाह! बढ़िया जानकारी... अगली बार पोला"/"पोरा" जानने की उत्सुकता बढ़ती जायेगी, इसलिये जल्दी ही लिखियेगा।
bahut hi sateek jaankaari....abhaar!!!
Post a Comment