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03 August 2007

अज्ञेय के विचार-2

अज्ञेय ने "तारसप्तक(1943) " में अपने वक्तव्य में जो लिखा वह आज भी कितना प्रासंगिक है उसका एक और अंश आप खुद पढ़िए और तय कीजिए।


"आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति यौन-वर्जनाओं का पुंज है। उसके जीवन का एक पक्ष है उस की सामाजिक रुढ़ि की लम्बी परम्परा, जो परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ विकसित नही हुई; और दूसरा पक्ष है स्थिति-परिवर्तन की असाधारण तीव्र गति जिस के साथ रुढ़ि का विकास असम्भव है। इस विपर्यास का परिणाम है कि आज के मानव का मन यौन-परिकल्पनाओं से लदा हुआ है और वे कल्पनाएं सब दमित और कुंठित हैं। उसकी सौंदर्य चेतना भी इस से आक्रान्त है। उस के उपमान सब यौन प्रतीकार्थ रखते हैं। प्रतीक द्वारा कभी-कभी वास्तविक अभिप्राय अनावृत हो जाता है-तब वह उस स्पष्ट इंगित से घबराकर भागता है, जैसे बिजली के प्रकाश में व्यक्ति चौंक जाए।( डी एच लारेंस की एक कविता मे प्रेम-प्रसंग में एकाएक बिज़ली चमकने पर पुरुष अपना प्रेमालाम छोड़कर छिटककर अलग हो जाता है, क्योंकि 'द लाइटनिंग हैज़ मेड इट टू प्लेन' बिज़ली ने उस व्यापार को उघड़ा कर दिया!) और इस आन्तरिक संघर्ष के उपर जैसे काठी कस कर बाह्य-संघर्ष भी बैठा है, जो व्यक्ति और व्यक्ति का नही, व्यक्ति-समूह और व्यक्ति-समूह का, वर्गों और श्रेणियों का संघर्ष है। व्यक्तिगत चेतना के उपर एक वर्गगत चेतना भी लदी हुई है और उचितानुचित की भावनाओं का अनुशासन करती है, जिस से एक दूसरे प्रकार की वर्जनाओं का पुंज खड़ा होता है, और उनके साथ ही उनके प्रति विद्रोह का स्वर जागता है।"

" कवि के लिए इस परिस्थिति में और भी कठिनाईयां हैं। एक मार्ग यौन स्वप्न-सृष्टि का-दिवास्वप्नों-का है, उसे वह नही अपनाना चाहता। फ़िर वह क्या करे? यथार्थ दर्शन केवल कुण्ठा उत्पन्न करता है। वास्तव की वीभत्सता की कसौटी पर चांदनी खोटी दिखती है, कवि अपनी काव्यपरम्परा का मूल्यांकन करता है और चारण काल से लेकर छायावाद तक की कविता को तात्कालिक परिस्थिति अथवा जीवन-प्रणाली पर घटित करके समझ लेता था; किन्तु फिर भी आज के जीवन के दबाव की अभिव्यंजना का मार्ग उसे नही दीखता। क्योंकि आज उस की अनुभूतियां तीव्रतर हैं तो वर्जनाएं भी कठोर हैं; परिणाम हैं, 'व्यंजनाभीरु नेत्रों का विस्फ़ार' जो 'अश्लील' इसलिए है कि भावनाओं और वर्जनाओं के संघर्ष को सहसा सामने ले आता है।"

" और प्रेम? एक थका-मांदा पक्षी, जो सांझ घिरती देखकर आशंका से भी भरता है और साहस संचित कर के लड़ता भी जा रहा है। निराशा और कुण्ठा से धैर्यपूर्वक लड़ता हुआ, किन्तु विश्वास की निष्कम्प अवस्था से कुछ नीचे-आज के प्रेम का सर्वोत्तम सम्भव रुप यही है। अन्धकार और आलोक का अनुक्रम, धृति और गति का सामंजस्य, वासना और विवेक का संयोग, उदासी और खण्डन के बीच मे विश्वास का मुक्त स्वर जो सबल कई बार हो उठता है पर निष्कम्प कभी नही हो पाता।"


6 टिप्पणी:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार, संजीत, अज्ञेय जी को पढ़वाने का.

बसंत आर्य said...

अज्ञेय तो गजब के व्यक्ति थे. मन के भीतर उनकी पैठ गजब की थी. उनके चश्मे के फ्रेम और उनका कैमरा मुझे बहुत लुभाता था. मैं उनके जैसा चश्मे का फ्रेम लगा सकूँ इसलिए मैने इश्वर से प्रार्थना की मेरी भी दृष्टि कमजोर हो जाये और कमजोर हो गई.आपने कुछ यादे ताजा कर दी. शेखर एक जीवनी वगैरह की

रंजू भाटिया said...

अज्ञेय ज़ी पढ़ना और फिर उनके लिखने को समझना सहज नही है .
आपने एक बहुत अच्छी कोशिश की है उनके विचारो को सामने लाने की
आगे भी यूँ उनका लिखा पढ़वाते रहें ....शुक्रिया संजीत ज़ी ....

anuradha srivastav said...

अज्ञेय जी को जब भी पढते है, हर बार एक नये रुप और नयी विचारधारा
के साथ पाते है जो हर काल-क्रम में सटीक लगती है ।

गरिमा said...

बहुत सारा अच्छा वाला धन्यवाद संजीत जी, अज्ञेय जी को पढ़वाने के लिये ।

महेन said...

काफ़ी अरसे बाद अज्ञेय जी को पढ़कर उन दिनों की याद ताजा हो आई जब पढ़ना शुरु ही किया था और शुरुआत तार-सप्तक और शेखर:एक जीवनी से ही हुई थी। शुक्रिया संजीत भाई।
अज्ञेय जी ने जो यहां कहा है उस बारे में और अज्ञेय जी के बारे में मेरे कुछ भयानक विचार/धारणायें हैं जोकि यहां कहना उचित नहीं होगा। कभी offline चर्चा करेंगे इस बारे में चैट पर।

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