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"झीनी-झीनी बीनी चदरिया:छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ-1"
तू तो रंगी फिरै बिहंगी:छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ-2
कबीर पंथ की विविध शाखाएं-
कबीरपंथ का आविर्भाव तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का प्रतीक था। कबीरपंथ इस समय अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में विभाजित है। इनमें से कुछ शाखाएं अपनी शुरुआत से ही स्वतंत्र हैं तो कुछ ऐसी है जो पहले स्वतंत्र शाखाओं से संबद्ध थी किन्तु बाद में संबंध विच्छेद कर लिया। कई ऐसी भी शाखाएं विद्यमान हैं जिनका संबंध कबीरपंथ से नही है लेकिन कबीरपंथी महात्मा इनका मूल स्त्रोत कबीर या कबीरपंथ से ही मानते हैं।
अभिलाष दास ने अपनी किताब 'कबीर दर्शन' में कबीरपंथ की चार शाखाओं का उल्लेख किया है। प्रथम श्री श्रुतिगोपाल साहेब,काशी कबीर चौरा। द्वितीय श्री भगवान साहेब कबीर मठ धनौती। तृतीय श्री जागू साहेब कबीरमठ विद्रुपुर और चतुर्थ श्री धर्मदास साहेब छत्तीसगढ़ी शाखा(वर्तमान में दामाखेड़ा)।
विस्तृत अध्ययन एवं निष्कर्षों के आधार पर कबीर पंथ की तीन ही प्रमुख शाखाएं मानी जाती हैं।
1- कबीर चौरा काशी
कबीर पंथ की शाखाओं में यह पहली शाखा मानी जाती है जिसकी स्थापना सूरत गोपाल (श्री श्रुतिगोपाल) ने की थी। इसकी शाखाएं पूरे भारत में फैली हैं जिसमें मुख्य रूप से लहरतारा,मगहर,बलुआ, गया,बड़ौदा,नड़ियाद,अहमदाबाद है।
2- कबीरपंथ की भगताही (धनौती) शाखा
बिहार के छपरा जिले में स्थित धनौती ग्राम में भगताही शाखा का प्रधान मठ है। इस शाखा के प्रथम आचार्य श्री भगवान साहेब थे। इसकी शाखाएं बिहार के साथ-साथ पूरे भारत में यहां-वहां फैली है जिनमें प्रमुख नौरंगा,मानसर,दामोदरपुर,चनाव(छपरा) शेखावना(बेतिया) तधवा,बड़हरवा,सवैया,बैजनाथ(मोतिहारी, लहेजी और तुर्की है।
3- कबीरपंथ की छत्तीसगढ़ी शाखा
इस शाखा के प्रवर्तक धनी धर्मदास जी थे। जिनका जन्म मध्यप्रदेश के रींवा जिले में बांधवगढ़ में हुआ था। पूर्व में मूर्तिपूजक वैष्णव मत के अनुयायी थे। प्रौढ़ावस्था में तीर्थयात्रा पर गए और वहीं मथुरा में इनकी मुलाकात कबीर से हुई। कबीर से प्रभावित होकर धर्मदास ने मूर्तिपूजा आदि छोड़ दी व उन्हें अपने घर बांधवगढ़ आमंत्रित किया, पत्नी व बच्चों सहित दीक्षा ले ली।
बताया जाता है कि जब धर्मदास साहेब ने जिनका दीक्षा से पूर्व नाम जुड़ावन प्रसाद था, बांधवगढ़ में संत समागम आयोजित किया था और वहां कबीर भी उनके आमंत्रण पर पधारे थे। इसी दौरान धर्मदास ने कबीर के कहे अनुसार अपने पूर्व गुरु रूपदास जी से इजाजत लेकर पत्नी सुलक्षणा देवी और बच्चों नारायणदास व चूरामणि समेत दीक्षा ली। दीक्षा के बाद सुलक्षणा देवी आमिन माता व चूरामनि, मुक्तामणि के नाम से जाने गए। कबीर नें धर्मदास को सारी संपत्ति दान करने के बाद ही धनी कहकर संबोधित किया तब से उन्हें धनी धर्मदास ही कहा जाने लगा।
कहते हैं कबीर ने धनी धर्मदास को पंथ की स्थापना का आशीर्वाद दिया और उनके लड़के मुक्तामणि(चूरामणि) को इस पंथ की वंशगद्दी का पहला आचार्य बताते हुए बयालिस वंश तक वंशगद्दी चलाने का आशीर्वाद दिया।
धर्मदास सुनियो चितलाई, तुम जनि शंका मानहू भाई।
हमरे पंथ चलाओ जाई, वंश बयालिस अटल अधिकाई।।
वंश बयालिस अंश हमारा, सोई समरथ वचन पुकारा।
वंश बयालिस गुरुवाई दीना, इतना वर हम तुमको दीना।।
हमरे पंथ चलाओ जाई, वंश बयालिस अटल अधिकाई।।
वंश बयालिस अंश हमारा, सोई समरथ वचन पुकारा।
वंश बयालिस गुरुवाई दीना, इतना वर हम तुमको दीना।।
और
मान बढ़ाई तुमको दीन्हा,जगत गुरु चूरामनि कीन्हा।
हमरो वचन चूरामनि सारा,वंश अश बयालिस अधिकारा॥
हमरो वचन चूरामनि सारा,वंश अश बयालिस अधिकारा॥
वहीं जब कबीर के समक्ष धर्मदास के मन में आने वाले बयालिस वंश के नाम जानने की जिज्ञासा हुई और उन्होने इस बारे में कबीर से पूछा तो कबीर ने उन्हें बयालिस वंश के नाम बताए।
वचन चूरामनि प्रथम कहि,बहुरि सुदर्शन नाम।
कुलपति नाम प्रमोध गुरू,नाम गुण धाम॥
नाम अमोल कहावपुनि,सूरति सनेही नाम।
हक्कनाम साहिब कहौ,पाकनाम परधाम॥
प्रकटनाम साहेब बहुरि,धीरज नाम कहुं फेर।
उग्रनाम साहिब कहूं,दयानाम कह टेर॥
गृन्धनाम साहिब तथा नाम प्रकाश कहाय।
उदित मुकुन्द बखानियो,अर्ध नार्म गुणगाय॥
ज्ञानी साहेब हंसमनि सुकृत नाम अज्रनाम।
रस अगरनाम गंगमनि पारसनाम अमीनाम॥
जागृतनाम अरू भृंगमणि अकह कंठमनि होय।
पुनि संतोषमनि कहूं,चातृक नाम गनोय।।
आदिनाम नेहनाम है,अज्रनामण महानाम।
पुनि निजनाम बखानिये,साहेब दास गुणधाम।
उधोदास करूणामय पुनि,दृगमनि हंस42।
मुक्तामणि धर्मदास के,विदित ब्यालिस वंश॥
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कुलपति नाम प्रमोध गुरू,नाम गुण धाम॥
नाम अमोल कहावपुनि,सूरति सनेही नाम।
हक्कनाम साहिब कहौ,पाकनाम परधाम॥
प्रकटनाम साहेब बहुरि,धीरज नाम कहुं फेर।
उग्रनाम साहिब कहूं,दयानाम कह टेर॥
गृन्धनाम साहिब तथा नाम प्रकाश कहाय।
उदित मुकुन्द बखानियो,अर्ध नार्म गुणगाय॥
ज्ञानी साहेब हंसमनि सुकृत नाम अज्रनाम।
रस अगरनाम गंगमनि पारसनाम अमीनाम॥
जागृतनाम अरू भृंगमणि अकह कंठमनि होय।
पुनि संतोषमनि कहूं,चातृक नाम गनोय।।
आदिनाम नेहनाम है,अज्रनामण महानाम।
पुनि निजनाम बखानिये,साहेब दास गुणधाम।
उधोदास करूणामय पुनि,दृगमनि हंस42।
मुक्तामणि धर्मदास के,विदित ब्यालिस वंश॥
...............जारी…………
रचना स्त्रोत
1-छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ का ऐतिहासिक अनुशीलन-डॉ चंद्रकिशोर तिवारी
2-कबीर धर्मनगर दामाखेड़ा वंशगद्दी का इतिहास-डॉ कमलनयन पटेल
1-छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ का ऐतिहासिक अनुशीलन-डॉ चंद्रकिशोर तिवारी
2-कबीर धर्मनगर दामाखेड़ा वंशगद्दी का इतिहास-डॉ कमलनयन पटेल
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18 टिप्पणी:
शुक्रिया संजीत। मेरे आग्रह का मान रखा और तत्परता से जानकारियां जुटाईं। ऐसे मामलों में अक्सर तथ्यों को परोसने की हड़बड़ी जैसी स्थिति भी बन जाती है ,मगर ऐसा हुआ नही। कबीर पर लिखते समय एक दृष्टि भी होनी चाहिए , जो यहां झलक रही है। आपका यह कहना सही है कि कबीर ने खुद कोई पंथ नहीं चलाया होगा। खास तौर पर जिस रूप में आज पंथों की बात होती है।
शुक्रिया ....
कबीर जैसा क्रान्तिचेता रचनाकार कोई पंथ आदि चलाने की बात करेगा और उसके लिए किसी को आशीर्वाद देगा, ऐसा विश्वास मुझे नहीं होता. मुझे तो ये लगता है की जैसे राजा लोग विष्णु के अवतार हो जाते है और विप्र लोग पूज्य, कुछ ऐसा ही मामला इन पंथों का भी है.
पहली बार पढी इतनी अच्छी जानकारी कबीर जी के बारे में शुक्रिया यहाँ पढाने के लिए !!
बेहद गंभीर और श्रमसाध्य प्रयास । दस्तावेज़ है । जिस पर बार बार लौटेंगे । नमन है आपको । जारी रखिए । काश कि आपको पास ऑडियो भी होते ।
किसने कबीर पंथ आरंभ किया वो तो इतिहास है, लेकिन आज कबीर पंथ है ये सच्चाई है. जैसे कि आपके लेख के अनुसार श्री धर्मदास मुर्ति पुजा के विरुध थे...लेकिन आप दामाखेडा जाकर देखियेगा आप को कबीर और धर्मदास दोनो के तस्वीर और मुर्ति मिलेगा. संत कबीर जी छुआछुत के खिलाफ़ थे लेकिन दामाखेडा के गद्दी आसीन संत इसे अब तक जीवित रखे है. भाइया ये सब पावर और पैसे का खेल है. जिस तरह किसी पार्टी मे महत्व नही मिले पर दुसरी पार्टी बाना लेते है वैसे ही.
क्या यह सम्भव है कि इस कडी को पढते-पढते दोहे भी साथ मे सुनने को मिले? यह सोने मे सुहागा वाली बात होगी।
बहुत बढ़िया जानकारी...भाई संजीत, पहली बार कबीर के बारे में इतना कुछ जानने के लिए मिला....
कबीर के पहलुओं पर बेहतर प्रकाश डाल रहे हैं आप, छत्तीसगढ में कबीरपंथियों का एक विशाल समूह है किन्तु उनमें से बहुत कम लोगों को 'कबीर' के संबंध में पता है । यह पंथ विचार है आस्था नहीं, पर क्या करें । छत्तीसगढ में लोगों को कबीर के इन्ही पहलुओं का ज्ञान कराना आवश्यक है । चौंका आरती से भी बढकर है कबीर का दर्शन और समाज के प्रति उनका चिंतन ।
धन्यवाद ।
स्कूल मे कबीर दास के बारे मे पढ़ा था और अब आपकी पोस्ट मे विस्तार से पढ़ रहे है।अच्छा लग रहा है दोबारा से जानना।
बहुत बढिया भाई जी कबीर दास जी के विषय मे जानकर बहुत अच्छा लगा. आज उनकी वाणी को जीवन मे उतारने की आवश्यकता है
जनाब ये ज्ञान रत्न कहां से ला रहे हैं। बहुत ही बड़िया और दुर्लभ जानकारी दे रहे हैं आप, धन्यवाद, कुछ दोहे भी हो जाते तो और मजा आ जाता और अगर वो दोहे सस्वर हो जाएं तो और भी बड़िया…:)
koi bhi gyani kabhi panth nahi chalata, ye to unke anuyayiyon ka kiya hota hai.
jaankari chalu rakhen, mene is srinkhala ka link bhi apne kabir wale article me diya hai
"तू तो रंगी फिरै बिहंगी " मुझे यह शीर्षक बहूत अच्छा लगा ,साथ ही वही बात मेरे दिमाग मे आई जो संजीव तिवारी जी ने कही ,कबीर चौका आरती ही नही उससे बहूत बढ़कर है ,अत्यन्त रोचक जारी रखिये ...
"कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर , पीछे पीछे हरी फिरै कहे कबीर कबीर ""
सुन्दर लेख! साधुवाद!
shandar rachna.......
कबीरदास के विषय में इतना तो हमने सी.बी.एस.ई की हिन्दी की किताबों में भी नहीं पढ़ा था. ज्ञानवर्धक जानकारी देने का शुक्रिया.
बहुत अच्छा लेख ।
घुघूती बासूती
जानकारी से परिपूर्ण लेख।
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