ऐसा माना जाता है कि गांधी किसी एक शख्सियत का ही नही बल्कि एक पूरी विचारधारा का नाम है। इसी विचारधारा के एक अनुयायी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय पंडित मोतीलाल त्रिपाठी की आज 19 अक्टूबर को तीसरी पुण्यतिथि है। स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी, कुष्ठ रोगियों की सेवा, पत्रकारिता, खादी प्रचार प्रसार मे सक्रिय और छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन मे अग्रणी भूमिका निभाने वाले स्वर्गीय स्वर्गीय श्री त्रिपाठी समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहने के साथ ही ताउम्र खादी और गांधी विचारधारा के प्रति समर्पित रहे।
कहा जाए कि इन सब के पीछे उन्हें प्रेरणा पैतृक गुणों के रुप में मिली तो अतिशयोक्तिनही होगी क्योंकि उनके पिता स्व पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी ने जो कि समाजसुधारक पंडित सुंदरलाल शर्मा के सहयोगी थे और स्वयं 1930 के जंगल सत्याग्रह से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी के कारण कारावास भोगा था। ऐसे पिता के मंझले पुत्र के रुप में मोतीलाल का जन्म 24 जुलाई 1923 को छत्तीसगढ़ के राजिम के पास ग्राम धमनी में हुआ था। बाद में उनके दादा जी श्री भुवनेश्वर प्रसाद तिवारी ' बिरतिया' बलौदाबाज़ार के पास ग्राम पलारी में बस गए।
पिता से मिला देशभक्ति का जज़्बा बालक मोतीलाल के मन मे तो बसा ही था, यह जज़्बा उस समय और पल्लवित हुआ जब सिर्फ़ दस साल की उम्र में उन्होनें पलारी से गुजर रही यात्रा के दौरान अपनी माता जामाबाई के हाथों से कते सूत की गुंडी पहनाकर महात्मा गांधी का स्वागत किया। बच्चों की शिक्षागत कारणों के चलते पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी रायपुर आ गए, शिक्षा के दौरान ही बालक मोतीलाल की मित्रता कॉमरेड सुधीर मुखर्जी से हुई। बाद में त्रिपाठी जी जैतूसाव मठ में रहकर पढ़े, तब जैतूसाव मठ राष्ट्रीय आंदोलनों का गढ़ हुआ करता था। 1939 में राष्ट्रीय विद्यालय रायपुर में एक सप्ताह का कांग्रेस सेवादल प्रशिक्षण शिविर लगा था, इसके चौहत्तर प्रशिक्षणार्थियों में से एक सोलह साल के किशोर मोतीलाल त्रिपाठी भी थे। इसके बाद ही व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरु हुआ और पढ़ाई लिखाई का त्याग कर त्रिपाठी जी इसके लिए चुन लिए गए। व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान ही इनकी गिरफ़्तारी हुई और एक वर्ष की सजा सुना कर नागपुर जेल भेज दिया गया। दिसंबर 1941 में रिहा होने के पश्चात महंत लक्ष्मीनारायण दास व पंडित रविशंकर शुक्ल के सुझाव पर खादी भंडार रायपुर में अपनी सेवाएं दी। प्रशिक्षण के बाद त्रिपाठी जी नरसिंहपुर खादी भंडार भेजे गए जहां उन्हें लालमणि तिवारी व बिलखनारायण अग्रवाल का साथ मिला। इसी बीच नौ अगस्त से भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हो गया, तब वहां खादी भंडार ही क्रांति का प्रमुख केंद्र था। पुलिस को अपनी सक्रियता की जानकारी मिलने पर त्रिपाठी जी भूमिगत होकर रायपुर आ गए और यहां भूमिगत आंदोलन से जुड़ गए, तब रातोंरात साइक्लोस्टाइल किए गए पर्चे बांटे जाते थे। 26 जनवरी 1943 को त्रिपाठी जी फ़िर गिरफ़्तार कर लिए गए। छह महीने की सजा हुई, 14 जुलाई को रिहाई ज़रुर हुई लेकिन दो अक्टूबर को एक बार फ़िर गिरफ़्तार कर लिए गए जो कि 31 दिसंबर 1943 को रिहा हुए और तब उन्हें गांधी जी के साथ उनके वर्धा स्थित आश्रम में रहने और सीखने का मौका मिला। (त्रिपाठी जी अक्सर अपने बच्चों को लिखावट सुधारने के लिए कहते हुए बताया करते थे कि तब वर्धा आश्रम की पत्रिका को अपने सुलेख से सजाने के कारण खुद गांधी जी ने उनकी लिखावट की तारीफ़ की थी।) इसके बाद त्रिपाठी जी एक बार फ़िर 26 जनवरी 1945 को गिरफ़्तार हुए और वह भी गांधी जी के सामने ही।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान त्रिपाठी जी ने न केवल आज़ादी के गीत लिखे बल्कि उनका सस्वर पाठ भी किया करते थे, उनकी रचनाएं अंचल भर मे जानी जाती थी जैसे कि " रह चुके जालिम बहुत दिन/ अब हुकुमत छोड़ दो" और " सुलग चुकी है आग जिगर में उसे बुझाना मुश्किल है"। वहीं दूसरी तरफ़ "वंदेमातरम" और " रणभेरी बज चुकी,उठो वीरवर पहनो केसरिया बाना" यह अपने पसंदीदा दो गीत वह मृत्युपर्यंत अपनी ओजस्वी आवाज़ मे गुनगुनाते रहे।
त्रिपाठी जी की जीवन यात्रा उनकी पत्रकारिता के चर्चा के बिना अधूरी रहेगी। त्रिपाठी जी लंबे समय तक महाकौशल, जनमत, अधिकार, उदय, मिलाप आदि पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे। साथ ही अस्सी के दशक तक सहकारिता की स्थानीय पत्रिका "सहयोग-दर्शन" का संपादन भी उन्होने किया। इसके अलावा वह रियासत विलीनीकरण आंदोलन से भी जुड़े रहे। विवाह न करने की ज़िद पर अड़े त्रिपाठी जी को स्वतंत्रता के पश्चात घरवालों के दबाव के चलते 1951 में विवाह करना ही पड़ा और फ़िर वे खादी के प्रचार प्रसार के लिए हैदराबाद चले गए जहां से सन साठ मे लौटे और दो साल घर मे रहकर फ़िर 1962 में खादी के ही काम से शहडोल चले गए जहां 1967 तक रहे।
1967 से रायपुर को ही फ़िर अपनी कर्मस्थली बनाते हुए यहीं समाजसेवा शुरु की, कई संस्थाओं।-संगठनों से जुड़े रहने के साथ-साथ उन्होने जो मुख्य कार्य शुरु किया वह था स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार वालों की परेशानियों के लिए शासन-प्रशासन से लड़ाई और ख़तो-क़िताबत का, इसी एक काम ने उन्हें छत्तीसगढ़ ही नही मध्यप्रदेश मे भी सभी सेनानियों और उनके परिवारवालों के बीच लोकप्रिय भी बना दिया और म प्र शासन से लेकर छत्तीसगढ़ शासन ने विभिन्न कमेटियों में उन्हें नामांकित किया।
जीवन मे एक ही दफ़े अपने गृह ग्राम पलारी से रायपुर तक करीब 70 किमी सायकल चलाने वाले त्रिपाठी जी ने फ़िर कभी न तो सायकल चलाई और न ही कोई गाड़ी बस ताउम्र पैदल चलकर ही वह कार वालों को भी मात देते रहे। अगस्त क्रांति की वर्षगांठ के मौके पर राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन राष्ट्रपति कलाम साहब के हाथों 2004 में दूसरी दफ़े सम्मान लिए आमंत्रित त्रिपाठी जी का स्वास्थ्य नई दिल्ली मे ही खराब हो गया और उन्हें वहीं अस्पताल में भरती कराया गया, दो दिन के उपचार के बाद रायपुर लाया गया जहां किडनी में संक्रमण के कारण दो महीने तक जूझने के बाद आखिरकार 19 अक्टूबर 2004 को आज़ादी के इस अदने से सिपाही ने हमेशा के लिए आंखें मूंद ली।
ज़िंदगी भर अन्याय के खिलाफ़ प्रतिकार की उनकी भावना व उनकी सक्रियता आज की हमारी वर्तमान पीढ़ी के लिए एक चुनौती की तरह है। ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व को उनकी पुण्यतिथि पर आज शत-शत नमन।
19 October 2007
Tags:
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
11 टिप्पणी:
वीर पुरुष को नत-मस्त्क होकर शत शत नमन.
अदना सा सिपाही न कहिए. छोटा सा दिया ही विश्व के भवन मे प्रकाश करने की क्षमता रखता है. किसी ने सही कहा है- एक अकेला दिया हूँ इस सदन में , मुझी से ही प्रकाश होगा... (पूरा याद नहीं फिर भी उल्लेख करना चाहती हूँ.)
पंडित मोतीलाल त्रिपाठी सरीखे लोगों की पूरी खेप ही इतिहास बन गयी है। न जाने क्यों उनका आदर्श और जज्बा लेकर चलने वाले अगली पीढ़ियों में नहीं मिले। या शायद यह है कि अपने युग में भी पंडित मोतीलाल त्रिपाठी सरीखे अल्प संख्या में थे।
शेष अवसरवादी थे।
अच्छी जानकारी. पंडित मोतीलाल त्रिपाठी को नमन.
बाबूजी से मेरी मुलाक़ात 12 अगस्त 2002 को हुई थी। उन दिनों देशबन्धु के लिए स्वाधीनता दिवस परिशिस्ट के लिए सामग्री जुटा रहा था। इतनी उम्र में भी उनमें जोश बरक़रार था। इसके पूर्व पचासवीं वर्षगांठ पर राजनांदगांव और दुर्ग के स्वाधीनता सेनानियों से लंबी चर्चा हुई थी। मैंने यह महसूस किया वे तक़रीबन वे सभी वर्तमान व्यवस्था से खिन्न थे और हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहे। ताज़ा घटनाक्रम पर उनकी पैनी नज़र मुझे विस्मय में डाल देती थी। यह बात प्रेरणादायी भी होती है। बाबूजी को श्रद्धासुमन।
छत्तीसगढ़ी में आज़ादी के कुछ तराने भी मुझे सुनने मिले थे जो ओजपूर्ण थे। उम्मीद है कि कोई साथी उन्हें अपनी पोस्ट में जगह देगा।
संजीत, भावुक होता है पिता पर लिखना.. बाबूजी पहले देश के रहे.. फिर परिवार के.. तुम्हारे लेख में भी वही जज़्बा दिखता है।
बार बार नमस्कार है ऐसी पुण्य आत्मा को ...बहुत अच्छा लगा उनके बारे में जानना
आप बहुत सौभाग्यशाली हैं जो इनके पुत्र के रूप में इनके घर में जन्म लिया...बहुत भावुकता और दिल से आपने इनके बारे में लिखा है !!
संजीत भाई आदरणीय त्रिपाठी की का व्यक्तित्व सदैव अनुकरणीय रहेगा स्वतंत्रता के पूर्व जहां उनके क्रियाकलापों नें छत्तीसगढ के स्वतंत्रता आन्दोलन में नये जोश का संचार किया वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत उनके द्वारा अपने साथियों व उनके परिवार जनों की सहायता के लिए जो कार्य किया गया यह दोनों कार्य छत्तीसगढ के लिए उनका एक अविश्मरणीय योगदान है । मैं एवं मेरा पूरा परिवार आज उन्हें प्रणाम करता है ।
हे भारत मां के सपूत मेरा रोम रोम तुम्हें वंदन करता है ।
मुझे गर्व है संजीत पर कि वह ऐसे पिता का पुत्र है ।
बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख है संजीत जी, धन्यवाद
स्वर्गीय श्री त्रिपाठी जी को नमन ।
अच्छी जानकारी के लिये धन्यवाद।
बाबू जी को सादर श्रद्धांजलि । उनके व्यक्तित्व और जीवन यात्रा की एक झलक ने मन में बहुत श्रद्धा भर दी है। बाबूजी की रचनायें यदि उनकी आवाज में सुनवा सकते तो बहुत ही अच्छा होगा।वरना रचनाओं को ही पढ सकें हम उसके लिये कुछ करो।
स्व. पिता जी को मेरी श्रद्धांजली एवं हार्दिक नमन. संजीत, आप ऐसे अलोकिक पुरुष के अंश हैं, इस बात पर हमें गर्व है कि हमने आप सा साथी पाया.
राहुल सिंह जी की मार्फ़त यहाँ तक आया.बहुत अच्छा लगा .लिखते रहें .
Post a Comment