या देवी सर्व भूतेशु भक्ति रूपेण संस्थित:
प्रो. अश्विनी केशरवानी
हमारे देश में देवियों की पूजा माता और शक्ति के रूप में की जाती है। शुरू में देवी की उपासना माता के रूप में ही लोकप्रिय थी। पुराणों में दुर्गा स्तुतियों में जगन्माता या जगदम्बा की अवधारणा में माता स्वरूप का स्पष्ट संकेत देखा जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि भारत, मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान एवं विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में धर्म की अवधारणा के साथ मातृ पूजन की परंपरा आरंभ हुई। सृष्टि की निरंतरता बनाये रखने में योगदान के कारण ही मातृ देवियों का पूजन प्रारंभ हुआ। माता की प्रजनन शक्ति जो सभ्यता की निरंतरता का मूलाधार है, मातृदेवी के रूप में उनके पूजन का मुख्य कारण रही है। देवी पूजन का दूसरा रूप शक्ति पूजन के रूप में प्रकट हुआ। भाक्ति वास्तव में क्रियाशीलता परिचायक है। शक्ति पूजन के अंतर्गत विभिन्न देवताओं की क्रियाशीलता उनकी शक्तियों में निहित मानी गयी है और उसी के अनुरूप सभी देवताओं की अलग अलग शक्तियों की कल्पना की गयी है जो सांख्य दर्शन की प्रकृति और पुरूष और दोनों के अंतरावलंबन के भाव से जुड़ी है। कदाचित इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनि पट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप् की कल्पना वास्तव में शिव-शक्ति या प्रकृति-पुरूष के समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति ने शक्ति उपासना को व्यापक आयाम दिया है। मनुष्य के भीतर के अंधकार और अज्ञानता या पैशाचिक प्रवृत्तियों से स्वयं के निरंतर संघर्ष और उनके उपर विजय का संदेश छिपा है। परिणामस्वरूप दुर्गा, काली और महिशासुर मर्दिनी आदि देवियों की कल्पना की गयी जो भारतीय समाज के लिए अजस्र भाक्ति की प्रेरणास्त्रोत बनीं। गुप्तकाल तक शक्ति पूजा के क्रमिक विकास के फलस्वरूप शक्ति के उपासकों का एक स्वतंत्र ' शाक्तसम्प्रदाय' बना। कुशाणकाल के बाद मातृका और शक्ति पूजन के बीच समन्वय स्थापित हुई जिससे सप्त अथवा अष्ट मातृकाओं की अवधारणा बनीं। गुप्तकाल तक मातृकाएं शिव, विष्णु, ब्रघ और इंद्र आदि ब्राम्हण देवों की शक्तियों के रूप में प्रचलित हो गयीं। कदाचित इसी कारण इन मूर्तियों में इनसे संबंधित देवताओं के वाहन और आयुध प्रदर्शित किये गये। साथ ही माता की गोद में बालक दिखाकर उनके मातृ पक्ष को भी उजागर किया गया। ग्रंथों में भाक्तियों को सर्वव्यापी, सर्वदर्शी और सर्वशक्तिमान कहा गया है।प्रो. अश्विनी केशरवानी
शैव धर्म के प्रभाव में वृद्धि के बाद शक्ति की कल्पना को शिव की शक्ति उमा या पार्वती से जोड़ा गया और यह माना गया कि स्वयं उमा, पार्वती या अम्बा समय-समय पर अलग-अलग रूप ग्रहण करती हैं। शक्ति समुच्चय के विभिन्न रूपों में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती प्रमुख बतायी गयी हैं। देवी माहात्म्य में महालक्ष्मी रूप में देवी को चतुर्भुजी या दशभुजी बताया गया है और उनके करों में त्रिशूल, खेटक, खड्ग, शक्ति, शंख, चक्र्, धनुष तथा एक हाथ में वरद मुद्रा व्यक्त करने का उल्लेख मिलता है। देवी के वाहन के रूप में सिंह (दुर्गा, महिषमर्दिनी, उमा), गोधा (गौरी, पार्वती), पद्म (लक्ष्मी), हंस (सरस्वती), मयूर (कौमारी), प्रेत या भाव (चामुण्डा) गर्दभ ( शीतला) होते हैं।
देवी की मूर्तियों को मुख्यत: सौम्य तथा उग्र या संहारक रूपों में बांटा जा सकता है। संहारक रूपों में देवी के हाथों में त्रिशूल, धनुष, बाण, पाश, अंकुश, शंख, चक्र्, खड्ग और कपाल जैसे आयुध होते हैं। उनका दूसरा हाथ अभय या वरद मुद्रा में होता है। इसी प्रकार संहारक रूपों में अभय या वरद मुद्रा देवी के सर्वकल्याण और असुरों एवं दुश्टात्माओं के संहार द्वारा भक्तों को अभयदान और इच्छित वरदान देने का भाव व्यक्त होता है। उग्र रूपों में महिषमर्दिनी, दुर्गा, काली, चामुण्डा, भूतमाता, कालरात्रि, रौद्री, शिवदूती, भैरवी, मनसा एवं चौसठ योगिनी मुख्य हैं। देवी के सौम्य रूपों में लक्ष्मी एवं क्षमा (पद्मधारिणी), सरस्वती (वीणाधारिणी), गौर, पार्वती और गंगा-यमुना (कलश और पद्मधारिणी) तथा अन्नपूर्णा प्रमुख हैं। भारतीय शिल्प में लगभग सातवीं भाताब्दी के बाद से शक्ति के विविध रूपों का शिल्पांकन मिलता है। इसके उदाहरण खजुराहो, भुवने वर, भेड़ाघाट, हिंगलाजगढ़, हीरापुर, एलोरा, कांचीपुरम्, महाबलीपुरम्, तंजौर, बेलूर, सोमनाथ आदि जगहों में मिलता है। हमारे देश में गंगा, यमुना, नवदुर्गा, द्वादश गौरी, पार्वती, महिषमर्दिनी, सप्तमातृका, सरस्वती एवं लक्ष्मी की मर्तियों की पूजा अर्चना प्रचलित है।
दुर्गासप्तमी एवं पुराणों में दुर्गा के नौ रूपों क्रमश: शैलपुत्री, ब्रम्ह्चारिणी, चंद्रघण्टा, कूश्माण्डी, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धदात्री का उल्लेख मिलता है। भारतीय शिल्प में सभी नौ दुर्गा के अलग अलग उदाहरण नहीं मिलते लेकिन चतुर्भुजा या अधिक भुजाओं वाली सिंहवाहिनी की मूर्ति खजुराहो के लक्ष्मण और विश्वनाथ मंदिर में, एलोरा, हिंगलाजगढ़, महाबलीपुरम् एवं ओसियां में मिले हैं। दुर्गा का एक विशेष रूप चिनौड़गढ़ में मिला है जो क्षेमकरी के रूप में भारतीय शिल्प में लोकप्रिय था। दक्षिण भारत के मंदिरों में द्वादश गौरी की मूर्ति मिलती है जिनमें प्रमुख रूप से उमा, पार्वती, रम्भा, तोतला और त्रिपुरा उल्लेखनीय है। द्वादश गौरी के नाम और उनके आयुध निम्नानुसार है :-
१. उमा :- अक्षसूत्र, पद्म, दर्पण, कमंडलु।
२. पार्वती :- वाहन सिंह और दोनों पार्श्वों में अग्निकुण्ड और हाथों में अक्षसूत्र, शिव, गणेश और कमंडलु।
३. गौरी :- अक्षसूत्र, अभय मुद्रा, पद्म और कमण्डलु।
४. ललिता :- भाूल, अक्षसूत्र, वीणा तथा कमण्डलु।
५. श्रिया :- अक्षसूत्र, पद्म, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा।
६. कृश्णा :- अक्षसूत्र, कमण्डलु, दो हाथ अंजलि मुद्रा में तथा चारों ओर पंचाग्निकुंड।
७. महे वरी :- पद्म और दर्पण।
८. रम्भा :- गजारूढ़, करों में कमण्डलु, अक्षमाला, वज्र और अंकुश।
९. सावित्री :- अक्षसूत्र, पुस्तक, पद्म और कमण्डलु।
१०. त्रिशण्डा या श्रीखण्डा :- अक्षसूत्र, वज्र, भाक्ति और कमण्डलु।
११. तोतला :- अक्षसूत्र, दण्ड, खेटक,चामर।
१२. त्रिपुरा :- पाश, अंकुश, अभयपुद्रा और वरदमुद्रा।
२. पार्वती :- वाहन सिंह और दोनों पार्श्वों में अग्निकुण्ड और हाथों में अक्षसूत्र, शिव, गणेश और कमंडलु।
३. गौरी :- अक्षसूत्र, अभय मुद्रा, पद्म और कमण्डलु।
४. ललिता :- भाूल, अक्षसूत्र, वीणा तथा कमण्डलु।
५. श्रिया :- अक्षसूत्र, पद्म, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा।
६. कृश्णा :- अक्षसूत्र, कमण्डलु, दो हाथ अंजलि मुद्रा में तथा चारों ओर पंचाग्निकुंड।
७. महे वरी :- पद्म और दर्पण।
८. रम्भा :- गजारूढ़, करों में कमण्डलु, अक्षमाला, वज्र और अंकुश।
९. सावित्री :- अक्षसूत्र, पुस्तक, पद्म और कमण्डलु।
१०. त्रिशण्डा या श्रीखण्डा :- अक्षसूत्र, वज्र, भाक्ति और कमण्डलु।
११. तोतला :- अक्षसूत्र, दण्ड, खेटक,चामर।
१२. त्रिपुरा :- पाश, अंकुश, अभयपुद्रा और वरदमुद्रा।
द्वादश गौरी के सामूहिक उत्कीर्णन का उदाहरण मोढेरा के सूर्य मंदिर की बाह्यभित्ति की रथिकाओं में देखा जा सकता है। अभी केवल दस आकृतियां ही सुरक्षित हैं। इसी प्रकार हिंगलाजगढ़ में द्वादश रूपों में केवल नौ रूप की दृश्टब्य है। परमार कालीन ये मूर्तियां वर्तमान में इंदौर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। ऐलोरा से पार्वती की १४ मूर्तियां मिली हैं जिनमें रावणनुग्रह, विश्व के साथ चौपड़ खेलती पार्वती और स्वतंत्र मूर्तियां मिली हैं। इसी प्रकार भुवनेश्वर में महिषमर्दिनी की २१, ऐलोरा में १०, खजुराहो, वाराणसी और छत्तीसगढ़ के चैतुरगढ़ और मदनपुरगढ़ में मूर्तियां हैं।
गढ़ों के गढ़ छत्तीसगढ़ अनेक देशी राजवंशों के राजाओं की कार्यस्थली रही है। यहां अनेक प्रतापी राजा और महाराजा हुए जो विद्वान, शक्तिशाली, प्रजावत्सल और देवी उपासक थे। यही कारण है कि यहां अनेक मंदिर और शक्तिपीठ उस काल के साक्षी हैं। ये देवियां उनकी कुलदेवी थीं। यहां देवी रियासतों की स्थापना से लेकर उसके उत्थान पतन से जुड़ी अनेक कथाएं पढ़ने और सुनने को मिलती है। यहां प्रमुख रूप से दो देवियां रतनपुर की महामाया और सम्बलपुर की समलेश्वरी देवी पूजी जाती है, शेष देवियां उनकी प्रतिरूप हैं और क्षेत्र विशेष का बोध कराती हैं। इनमें सरगुजा की सरगुजहीन दाई, खरौद की सौराईन दाई, कोरबा की सर्वमंगला देवी, अड़भार की अष्टभूजी देवी, मल्हार की डिडिनेश्वरी देवी, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, बलौदा की गंगा मैया, जशपुर की काली माता, मड़वारानी की मड़वारानी दाई प्रमुख हैं. सुप्रसिद्ध कवि पंडित भाुकलाल पांडेय ने ''छत्तीसगढ़ गौरव" में की है :-
यदि लखना चाहते स्वच्छ गंभीर नीर को
क्यों सिधारते नहीं भातृवर ! जांजगीर को ?
काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा
चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा
दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरूग सिधारिये
लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।
क्यों सिधारते नहीं भातृवर ! जांजगीर को ?
काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा
चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा
दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरूग सिधारिये
लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।
रतनपुर में महामाया देवी का सिर है और उसका धड़ अम्बिकापुर में है। प्रतिवर्ष वहां मिट्टी का सिर बनाये जाने की बात कही जाती है। इसी प्रकार संबलपुर के राजा द्वारा देवी मां का प्रतिरूप संबलपुर ले जाकर समलेश्वरी देवी के रूप में स्थापित करने की किंवदंती प्रचलित है। समलेश्वरी देवी की भव्यता को देखकर दर्शनार्थी डर जाते थे अत: ऐसी मान्यता है कि देवी मंदिर में पीठ करके प्रतिष्ठित हुई। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में जितने भी देशी राजा-महाराजा हुए उनकी निष्ठा या तो रतनपुर के राजा या संबलपुर के राजा के प्रति थी। कदाचित् मैत्री भाव और अपने राज्य की सुख, समृद्धि और शांति के लिए वहां की देवी की प्रतिमूर्ति अपने राज्य में स्थापित करने किये जो आज लोगों की श्रद्धा के केंद्र हैं।
लेखक
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा
राघव, डागा कालोनी, चांपा
9 टिप्पणी:
पहले मुझे 'एक ब्रह्म द्वितीय नहीं' के सिद्धांत के सामने मातृ शक्ति का विचार विचित्र लगता था। पर कालांतर में पाया कि पुरुष-प्रकृति की अवधारणा सुस्पष्ट आधार पर है।
मातृ शक्ति को नमन।
भईया देवियों का माडर्न स्वरुप यह है-
या देवी सर्वभूतेषु डालर रुपेण संस्थिता
बहुत बढ़िया जानकारी.
जहाँ नारी को पूजा जाता है , वहीं देवताओं का वास होता है. बाह्य रूप मे कुछ भी दिखता हो लेकिन अभी भी नारी को आदर की दृष्टि से देखा जाता है.
फोटो बहुत ओजपूर्ण है. इसको सुरक्षित कर लिया है.
बहुत ही बढ़िया जानकारी दी है संजीत. बहुत आभार. दोनों बेटों को लिंक फारवर्ड कर दिया है.
मातृ शक्ति को नमन।
इस पर टिप्पणी करना कठिन है ।
घुघूती बासूती
बड़िया जानकारी दी आप ने, धन्यवाद
संजीत जी उत्तम जानकारी मिलती है आपके चिट्ठे से...इस समय हर तरफ़ दुर्गा-नवरात्र की स्थापना हो रही है...दुर्गा सहस्त्रनाम मै भी जाप किया करती हूँ जो नाम आपके चिट्ठे में भी है...देवी की महिमा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा...पढ़ा भी है जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता भ्रमण करते हैं...ज्यादा न भी हो मगर बहुत सी जगह पर आज भी नारी को पुज्यनीय माना जाता है...आदर समान मिलता है...
सुनीता(शानू)
आभार केशरवानी जी,
नवराती में दुर्गा आराधना एवं दुर्गा सप्तशती का पाठ एवं यदि पूरा संभव ना हो तो कवच एवं अन्य आवश्यक स्तोत्रों का उच्चस्वर से पाठ करने का विधान है ताकि मॉं की महिमा एवं मंत्रों का प्रभाव जहां तक शव्द घ्वनि पहुंचे वहां तक जाए आपने उस महामाया की महिमा को हम तक पहुंचाया ।
आप माध्यम बने इसके लिए धन्यवाद संजीत जी
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