गतांक बापीयॉटिक तो नहीं पर बापी के बहाने-4 से आगे....
इस सीरिज की पहली किश्त पढ़कर मित्र सूर्यकांत (सूर्या) को ब्राह्मणपारा का वो जमाना ही याद हो आया। उन्होंने कमेंट भी किया और फोन भी। यह कहते हुए कि लिखो, ये भी लिखो-वह भी लिखो। सूर्या भी रायपुर में ही है और एक अखबार की रिकवरी की जिम्मेदारी संभालता है। इससे पहले ही भी सूर्या ने कई बार ऑर्कुट पर और फोन पर भी मैसेज किया कि यार चलो सब दोस्त कभी तो इकट्ठे बैठें पहले की तरह।
लेकिन कहां संभव हो पाता है ऐसा जो हम बीते हुए को लौटा लाने की सोचते हैं। वो सभी मित्र जो आजाद चौक के ठिये पर रोजाना शाम को इकट्ठा होते थे। करीब 15 लोग। अब सबके प्रोफेशनल मजबूरियों के कारण वैसा मिलना हो नहीं पाता। मैं अखबार में, शाम का वक्त दफ्तर में, बाकी जो किसी और काम में हैं वे रविवार की शाम चौक पर मिल भी लेते हैं लेकिन रविवार अपना नहीं सो मेरी तो मुलाकात हो नहीं पाती। कभी कभार कोई मिल गया तो पहला सवाल यही कि "अबे संजू कहां रहता है, दिखता ही नहीं"। मार्च में छत्तीसगढ़ विधानसभा का बजट सत्र चल रहा था, सुबह 10:15 बजे जनसंपर्क की गाड़ी पकड़ने के लिए संचालनालय जाने आजाद चौक से ही गुजर रहा था तभी रोड क्रास करता अनुराग उर्फ विक्की नजर आ गया। दो मिनट के लिए रुका। विक्की का यही कहना था " साले कहां रहता है, ऐसा लग रहा है कि साल-दो साल बाद देख रहा हूं"। उसे भी यही समझाया कि भाई तुम लोग तो मिल लेते हो रविवार की शाम लेकिन मेरी रविवार को छुट्टी नहीं होती, मेरी जिस दिन छुट्टी होती है तुम लोगों की नहीं होती तो कहां से होगी मुलाकात।
खैर!
सूर्या की बात ने वो याद दिलाया जो मैने पिछले साल अपनी एक पोस्ट किनारे कर दिए गए गांधी जी… के अंत में दो लाइन लिखी थी कि " आवारा बंजारा जब भी उस चौराहे से गुजरेगा तो याद आयेगा कि जो प्रतिमा वहां दिख रही है वह पहले यहां थी जिसके नीचे कभी भजन गाने की कोशिश होती थी तो कभी दोस्तों के साथ क्रिकेट खेला करते थे"।
(इस पुरानी पोस्ट में गांधी प्रतिमा की पुरानी जगह और नई जगह दोनों की तस्वीरें हैं।
दरअसल आजाद चौक पर पहले जो गांधी प्रतिमा स्थापित थी वो जानने वाले जानते हैं कि एनएच-6 पर जब नागपुर की तरफ से आओ तो ठीक आजाद चौक के बीचोंबीच गांधी प्रतिमा। प्रतिमा के दाईं तरफ से एनएच6 आगे बढ़ता था जबकि बाईं तरफ से शहर के सदर बाजार की ओर जाने का रास्ता। साथ ही दोनो तरफ दो मोहल्लों की गलियां खुलती थी, एक ब्राह्मणपारा की तो एक मोमिनपारा-बढ़ईपारा की। गांधी प्रतिमा स्थल की रेलिंग सीमेंट की बनी हुई थी तब। प्रतिमा के नीचे स्थल पर इतनी जगह थी कि हम सब वहां क्रिकेट खेला करते थे। स्पंज की बाल से फिर प्लास्टिक की बाल से। प्रतिमा के ठीक पीछे लगा हुआ आजाद चौक थाना हुआ करता था। बाल कभी थाने में जाए तो टेंशन लेकिन कभी दरवाजे से जाकर ले आते थे या फिर कभी दीवाल कूदकर। फिर थाना वहां से हटकर आगे चलागया और उस जगह पर छोटा सा गार्डन बन गया। सो जब यहां क्रिकेट खेला करते थे, सोचिए जरा। तीन तरफ व्यस्त ट्रैफिक। बीच में क्रिकेट खेलते हम। कभी बाल इस सड़क पर कभी उस सड़क पर तो कभी बड़ी सी नाली में। लेकिन बाल को लाना तो होता ही था। खेलते-खेलते किसी का अन्य कोई दोस्त आया तो उसके साथ वह सायकल पर बैठकर फुर्र। बाकी पीछे से गालियां दे रहे हैं तो देते रहें। ;)
यही हाल रेसटीप खेलते समय भी होता था। दाम देना तो ऐसा भारी पड़ता था देने वाले को की हालात खराब हो जाती थी। कारण यह कि कौन कब किधर निकल गया पता नहीं, कोई छिपने के बाद किसी के साथ गाड़ी या सायकल पर बैठकर निकल गया कहीं, अब दाम देने वाला यहां वहां सड़क के इस पर उस पार तो बापी के घर से लेकर कन्या प्राथमिक शाला की बाउंड्रीवाल कूदकर अंदर देख रहा है कि कहीं यहां तो नहीं छिपा है। एक बार ऐसे ही रेसटीप खेलते-खेलते अखिलेश जोगी उर्फ गुड्डा को उसका कोई सरदार दोस्त मिल गया, उसके साथ गाड़ी में बैठकर वह भिलाई चला गया। यहां उसकी ढूंढाई हो रही है कि कहां छिप गया है साला। ;) तीन घंटे बाद जब गुड्डा वापस आया तो उसकी जो धुनाई हुई वह शानदार थी।
जारी रखा जाए?
14 May 2010
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11 टिप्पणी:
संस्मरणों की यह पारी अच्छी लग रही है।
हाँ!
यादों का पिटारा यहाँ खुला हुआ है..और मेरी नज़र अब पड़ रही है...अच्छा चल रहा है...बचपन का ये संस्मरण...आपलोग तो फिर भी दोस्तों की शक्ल तो देख लेते हैं..हमारी सहेलियां तो भारत के किस कोने में किस सरनेम के साथ हैं यह भी नहीं पता...नेट पर ढूंढना भी मुश्किल क्यूंकि उनके सरनेम बदल गए होंगे...
और बिलकुल जारी रखा जाए ....हमने तो अब पढना शुरू किया है (पिछली भी पढ़ डालीं )
जमाये रहो बन्धु! बहुत काम की चीज आ रही है इन पोस्टों के माध्यम से ब्लॉगरी में।
पूछने की क्या बात है..
बिलकुल जारी रखा जाए।
:) कथा जारी रहे.. और पाठको से क्या पूछना.. जबरन ठेलते रहो भाई...
रोचक संस्मरण।
..मुझे भी कुछ-कुछ हो रहा है ..भूला-भूला सा नज़ारा..और भी बहुत कुछ.. याद आ रहा है.
..मुझे भी कुछ-कुछ हो रहा है ..भूला-भूला सा नज़ारा..और भी बहुत कुछ.. याद आ रहा है.
जारी नहीं रखेंगे तो नापसंद के चटके लगायेंगे जी आपकी हर नई पोस्ट पर, बता दिया है..)
Agli kadi ki pratiksha hai.
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