गांधी जी को तो हम किनारे कई सालों से करते आ रहे हैं फिलहाल यहां बात गांधी की उस प्रतिमा की है जो रायपुर शहर का पिछले पचास-पचपन सालों से साक्षी रहा है और आगे भी रहेगा।शहर अब राजधानी है, तरक्की कर रहा है लेकिन उसकी पुरानी पहचान खोती जा रही है। हर वह चीज जो रायपुर के रायपुर होने का एहसास दिलाती थी अब बदलती जा रही हैं।
आवारा बंजारा का बचपन जिस मोहल्ले में बीता है उसका नाम है ब्राम्हणपारा। नेशनल हाईवे क्रमांक छह पर बसे इस मोहल्ले का मुख्य चौराहा कहलाता है आजाद चौक। इसी आजाद चौक पर स्थापित गांधी प्रतिमा आखिरकार आज अपनी जगह से कुछ पीछे गार्डन में प्रतिस्थापित कर दी गई। क्रेन के सहारे नगर निगम के अमले ने प्रतिमा को उठाया और फिर उसे नई जगह पर स्थापित कर दिया गया। नई जगह पहले से ही तैयार कर रखी गई थी। नेशनल हाईवे क्रमांक छह पर यातायात बढ़ने के चलते यह प्रतिमा पीछे शिफ्ट की गई है।सड़क चौड़ीकरण होने के बाद से ही यह प्रतिमा ट्रैफिक में बाधक बन रही थी।
यह प्रतिमा शहर की कई बातों, स्थितियों की साक्षी रही है। स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में यहां एक 14 वर्षीय बालक बलीराम आजाद ने वानर सेना बनाई थी। उन्हीं की स्मृति में इस चौक का नाम आजाद चौक रखा गया। 1956 में बनी इस गांधी प्रतिमा को बनवाने का श्रेय स्वर्गीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कमलनारायण शर्मा को है। जब यह मूर्ति बनकर तैयार हुई तब यह बात उठी कि इसका उद्घाटन कौन करे। उन दिनों पं.रविशंकर शुक्ल प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। तत्कालीन प्रशासन चाहता था कि उद्घाटन मुख्यमंत्री करें, लेकिन कमलनारायण शर्मा इसके लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि वे श्री शुक्ल के विरोधी थे। इसी दौरान राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद रायपुर प्रवास पर आने वाले थे। श्री शर्मा ने प्रस्ताव रखा कि उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों करवाया जाए। इससे पहले मुख्यमंत्री प्रतिमा को देखने भी आए थे। बाद में सरकार एवं राष्ट्रपति को खबर दे दी गई कि प्रतिमा गांधीजी जैसी नहीं दिखती है और इस संबंध में विवाद कायम हो गया। 14 सितंबर 1956 को राष्ट्रपति यहां आने वाले थे। इससे पहले 13 तारीख की शाम कमलनारायण शर्मा और रामसहाय तिवारी ने मिलकर एक हरिजन की बेटी से गांधीजी की प्रतिमा का उद्घाटन करवा दिया। दूसरे दिन जब राष्ट्रपति आए और आजाद चौक से उनका काफिला गुजरा तो उनकी गाड़ी रोककर उन्हें बताया गया कि गांधीजी की प्रतिमा का उद्घाटन हरिजन की बेटी से करवा दिया गया है। तब उस लड़की ने राष्ट्रपति को माला भी पहनाई थी।
एक बार की बात है कि शरारती बच्चे ने प्रतिमा का चश्मा ही गायब कर दिया, नगर निगम को सूचना देने के बाद भी जब प्रतिमा को नया चश्मा नहीं पहनाया गया तो स्वर्गीय सेनानी कमलनारायण शर्मा ने तब फ़ौरन नया चश्मा खरीदकर मंगवाया और प्रतिमा को पहनाया था।
इस प्रतिमा को लेकर स्वतंत्रता सेनानियों में काफी मोह रहा है। हर साल स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस,2 अक्टूबर और 30 जनवरी की सुबह स्वतंत्रता सेनानी यथा रामसहाय तिवारी, कमलनारायण शर्मा, मोतीलाल त्रिपाठी, नारायण राव अंबिलकर, केयूर भूषण आदि एकजुट होकर यहां गांधी प्रतिमा पर मार्ल्यापण करने के बाद गांधी भजनों का सस्वर पाठ करते थे। आवारा बंजारा को याद है अपने पिता स्वर्गीय मोतीलाल त्रिपाठी के साथ वह किस तरह अपने बचपन के दिनों में सुबह-सुबह ही प्रतिमा स्थल पहुंचकर झाड़ू लगाने से लेकर दरी बिछाने में सहयोग करने की कोशिश किया करता था। भजन तब न याद थे न ही अब लेकिन सामने चल रहे सस्वर गायन से अपने आपको जोड़ने की कोशिश जरुर करता था।
उपरोक्त गिनाए गए सेनानियों के नामों में से अधिकांश अब स्वर्गीय हैं। जैसे-जैसे हमारी स्वतंत्रता पुरानी होती जा रही है वैसे-वैसे न केवल ये स्वतंत्रता सेनानी कम होते जा रहे हैं बल्कि हम गांधी को खुद ही किनारे करते जा रहे हैं तो प्रतिमा ही किनारे क्यों न हो। पता नहीं आज अगर सेनानी कमलनारायण शर्मा या रामसहाय तिवारी जिंदा होते तो वे विरोध करते या नहीं लेकिन आज अगर गांधी जी खुद होते तो नि:संदेह जनता के लिए यह प्रतिमा किनारे ही होती। इसलिए इस प्रतिमा के किनारे होने का अफसोस नहीं है।अफसोस तो बस इस बात का है कि रायपुर अपने रायपुर होने का एहसास खोता जा रहा है, अपनी पहचान खोता जा रहा है। संभवत: कुछ साल बाद जिस रायपुर को हम देखें वो वह रायपुर हो ही न जिसे हमने अपने बचपन में देखा था,जिया था।ऐसा हर शहर, जगह के साथ होता है कि विकास के साथ वह अपनी पुरानी कड़ियां खोता जाता है।
आवारा बंजारा जब भी उस चौराहे से गुजरेगा तो याद आयेगा कि जो प्रतिमा वहां दिख रही है वह पहले यहां थी जिसके नीचे कभी भजन गाने की कोशिश होती थी तो कभी दोस्तों के साथ क्रिकेट खेला करते थे।
14 टिप्पणी:
संजीत भाई मै हमेशा रायपुर मे तो नही रहा मगर मेरी गर्मी की कई छुट्टीया आजाद चौक के आसपास उसी गार्डन और गांधी जी की मुर्ती के आसपास गुजरी है ।
गोया अब गांधी पोस्टर मे ही रह गये है ।जिस पर कांग्रेस का काँपीराईट है बिल्कुल उसी तरह जैसे राम पर भाजपा का कापीराईट है ।
आपकी यादें और टीस जायज़ है। विकास और सुविधाओं भी ज़रूरी हैं। हमारे योजनाकार भविष्य को ध्यान में रखकर योजनाएं नहीं बनाते। व्यक्तिगत रूप से तो मैं प्रतिमाओं के ही खिलाफ हूं। महान हस्तियों को उनके कर्मों के जरिये याद रखें और उनके आचरण को अपनाकर उन्हें चिरकाल तक अपने बीच देखें...होना तो यह चाहिए। मूर्तियां लगाना तो कर्मकांड है...
मूर्तियों का होना अच्छी बात है लेकिन उन्हें उद्यानों और भवनों में होना चाहिए। सड़कों के मध्य तो बिलकुल ही नहीं।
afganistan ka patan hone se pehle kya hua tha ye bata ki zarorat nahi...
..bhagwan kare ki INDIA ke saath ye na ho !!
sanjeet bhai,
yahee wajah hai, mujhe pratimaan kaa lagnaa lagaanaa kabhi theek nahin laga aur rahe gandhi jee, to unhein to na jaane kahaan kahaan kitnee baar kinare lagaayaa gaya hai...
शीर्षक पढ़कर मैंने सोचा आप गांधी जी के विचारों , उनके दर्शन पर लिखने वाले हैं ! आलेख पढ़कर लगा कि दूसरे ही क्यों आप भी गांधी जी को 'प्रतिमा' से बाहर नहीं देखते हैं! दुःख हुआ !
मै इस पर लिखने की सोचता ही रह गया।वैसे संजीत बापू पर मैने पहले लिखा था कि बापू सालो ने चौक-चौराहो पर होर्डिंग की तरह लटका दिया है।वही सोच रहा था कि उसका दूसरा पार्ट भी लिखा जाना चाहिये चौक से हटाने के बाद्।देखो लिख पाया तो वैसे गुस्सा तो बहुत आता है मगर अपन भी………………॥
मूर्तियों के रूप में जितनी दुर्गति बापू की हुई है उतनी जीते जी साउथ अफ्रीका में भी न हुई होगी।
इस शहर को महारत हासिल है लोगों को खिसकाने में गांधीजी कहाँ लगते हैं
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!
अब आगे भी लिखोगे या चौक के किनारे भजन ही करते रहोगे।सेठो के लिये तो लिख रहे ही हो कुछ अपने और अपने चाहने वालों का भी खयाल करो।
हर शहर का यही हाल है।
संजीत जी मैंने आज ही आपकी आवारगी को देखा. अच्छा लिख रहे हो. हम प्रेसक्लब में तो मिलते रहे पर ज्यादा बात नहीं हुई. ब्लॉग के माध्यम से खूब बात किया करेंगे
छोटी छोटी चीजों में भी इतिहास के कितने बड़े साक्ष्य मौजूद हैं, ये आज आपने अपने इस बढ़िया लेख से सिद्ध कर दिया !
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