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31 May 2010

संतोष चौबे की एक कविता…आना जब मेरे अच्छे दिन हों…


2003 की गर्मियों में एक रविवार को जनसत्ता का रविवारीय अंक पढ़ते हुए मेरी नज़र संतोष चौबे की इस कविता पर पड़ी थी, और तब से मानों यह कविता मेरे दिमाग मे घूमते  ही रहती है ना जानें क्यों...। जब-जब इसे पढ़ता हूं तब-तब मानों यह एक नया अर्थ दे जाती है। इस कविता को फरवरी 2007 में अपने ब्लॉग पर डाला था, तब कम ही लोगों की नज़र इस पर पड़ी थी। आज इसे फिर से यहां डाल रहा हूं।

आना जब मेरे अच्छे दिन हों…
(संतोष चौबे)
एक
आना
जब मेरे अच्छे दिन हों
जब दिल मे निष्कपट ज्योति की तरह
जलती हो
तुम्हारी क्षीण याद
और नीली लौ की तरह
कभी-कभी
चुभती हो इच्छा
जब मन के
अछूते कोने में
सहेजे तुम्हारे चित्र पर
चढ़ी न हो धूल की परत
आना जैसे बारिश मे अचानक
आ जाए
कोई अच्छी सी पुस्तक हाथ
या कि गर्मी में
छत पर सोते हुए
दिखे कोई अच्छा सा सपना
दो
जब दिमाग साफ़ हो
खुले आसमान की तरह
और हवा की तरह
स्पष्ट हों दिशाएं
समुद्र के विस्तार सा
विशाल हो मन
और पर्वत-सा अडिग हो
मुझ पर विश्वास
आना तब
वेगवान नदी की तरह
मुझे बहाने
आना
जैसे बादल आते हैं
रुठी धरती को मनाने
तीन
आना
जब शहर मे अमन चैन हो
और दहशत से अधमरी
न हो रही हों सड़कें
जब दूरदर्शन न उगलता हो
किसी मदांध विश्वनेता द्वारा छेड़े
युद्ध की दास्तान
आना जैसे ठंडी हवा का झोंका
आया अभी-अभी
आना जब हुई हो
युद्ध समाप्ति की घोषणा
अभी-अभी
चार
आना
जब धन बहुत न हो
पर हो
हो यानि इतना
कि बारिश में भीगते
ठहर कर कहीं
पी सकें
एक प्याला गर्म चाय
कि ठंड की दोपहर में
निकल सकें दूर तक
और जेबों में
भर सकें
मूंगफलियां
बैठ सके रेलगाड़ी में
फ़िर लौटें
बिना टिकट
छुपते-छुपाते
खत्म होने पर
अपनी थोड़ी सी जमा-पूंजी
आना
जब बहुत सरल
न हुई हो ज़िन्दगी
पांच
जब आत्म-दया से
डब-डबाया हो
मेरा मन
जब अन्धेरे की परतें
छाई हों चारो ओर
घनघोर निराशा की तरह
जब उठता हो
अपनी क्षमता पर से
मेरा विश्वास
तब देखो
मत आना
मत आना
दया या उपकार की तरह
आ सको,तो आना
बरसते प्यार की तरह
छह
छूना मुझे
एक बार फिर
और देखना
बाकी है सिहरन
वहां अब भी
जहां छुआ था तुमने
मुझे पहली पहली बार
झुकना
जैसे धूप की ओर झुके
कोई अधखिला गुलाब
और देखना
बसी है स्मृतियों मे
अब भी वही सुगंध
वही भीनी-भीनी सुगंध
पुकारना मुझे
लेकर मेरा नाम
उसी जगह से
और सुनना
प्रतिध्वनि में नाम
वही तुम्हारा प्यारा नाम
सात
मुझे अब भी याद है
लौटना
तुम्हारे घर से
रास्ते भर खिड़की से लगे रहना
एक छाया का
रास्ते भर
बनें रहना मन में
एक खुशबू का
रास्ते भर चलना एक कथा का
अनंतर
जब घिरे
और ढंक ले मुझे
सब ओर से
तुम्हारी छाया
तब आना
खोजते हुए
किरण की तरह
अपना रास्ता
आठ
इतना हल्का
कि उड़ सकूं
पूरे आकाश में
इतना पवित्र
कि जुड़ सकूं
पूरी पृथ्वी से
इतना विशाल
कि समेट लूं
पूरा विश्व अपने में
इतना कोमल
कि पहचान लूं
हल्का सा कोमल स्पर्श
इतना समर्थ
कि तोड़ दूं
सारे तटबंध
देखना
मैं बदलूंगा एकदम
अगर तुम
आ गईं अचानक
नौ
देखो
तुम अब
आ भी जाओ
हो सकता है
तुम्हारे साथ ही
आ जाएं मेरे अच्छे दिन


17 टिप्पणी:

Shiv said...

बहुत बढ़िया लगी कविता.

माधव( Madhav) said...

nice

पंकज कुमार झा. said...

kyaa shabd du is kavitaa ko...ohhh adbhut....vaastav me.
pankaj jha.

दिनेशराय द्विवेदी said...

ये बेईमानी है कि एक की कह कर पूरी नौ कविताएँ पढ़ा डालीं। वे भी एक से एक बेहतर!

मीनाक्षी said...

खूबसूरत कविता.... एक तलाश में जब हम भटकते हैं तो ऐसी कविता दिमाग में उमड़ घुमड़ करती ही है...

राज भाटिय़ा said...

आप की कविता पढते पढते हम नीचे तक आ गये, सभी इतनी सुंदर लगी कि समझ नही आ रहा किस की तारीफ़ करे... सभी लाजबाव है जी,
धन्यवाद

tamanaa said...

bahut khub,aisa laga jaise mere man ki uthal puthal ko kavi ne apne shabd de diye..

Satish Pancham said...

देखा संजीत जी, पता चल रहा है कि हाँ -

Old is Gold

Cancerian said...

आभार इतनी बेहतरीन कविताए पढ़वाने के लिए संजीत भाई| संतोष जी हम आपके फैन हो गए|

Shekhar Kumawat said...

बहुत बढ़िया लगी कविता.

Anonymous said...

ye kya ek ke baad ek aur kavita, acchi lagi sab

Anita kumar said...

kavita toh badhiya hai lekin hum Diwedi ji se sahmat hain....:)

Arvind Mishra said...

उम्दा मगर नौ ही क्यों ?

आचार्य उदय said...

आईये, मन की शांति का उपाय धारण करें!
आचार्य जी

शरद कोकास said...

वे दिन याद आ गये जब संतोष भाई के साथ बैठकर कवितायें सुनते सुनाते थे .. वाह ।इस प्रस्तुति के लिये धन्यवाद ।

anuradha srivastav said...

यह कविता पहले भी पढी है- जितनी बार पढी है उतनी ही गहरी और दिल को छू लेने वाली लगी।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..............................
आना
जब धन बहुत न हो
पर हो
हो यानि इतना
कि बारिश में भीगते
ठहर कर कहीं
पी सकें
एक प्याला गर्म चाय
..................

हाँ, अच्छी कविता पढाई आपने.
धन्यवाद.

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