बस्तर के सुकमा के समीप यात्री बस उड़ाए जाने के बाद एक सज्जन ने मुझसे सवाल पूछा, उसका क्या जवाब दूं यही सोचता रह गया। दरअसल उन्होंने जानना चाहा कि अब क्या अंतर है आतंकवादियों में और नक्सलियों में?
नक्सलवाद के पीछे जो वाद था वह अब कहां है, नहीं है इसलिए ही तो ऐसे यात्री बस उड़ाए जा रहे हैं जैसे पंजाब के आतंकवाद के दिनों में उड़ाए जाते थे। वहां लैंडमाइंस नहीं बम से उड़ाए जाते थे।
सरकारें और बुद्धिजीवी कहते हैं कि नक्सलवादी अपने ही हैं, अपने देश के ही हैं लेकिन पंजाब के आतंकवाद में भी तो पंजाब के ही पथभ्रष्ट नौजवान शामिल थे उनके खिलाफ कैसे सेना उतारी गई?
अर्थात वहां के पथभ्रष्ट नौजवान जो विदेशी आतंकियों के बहलावे के बाद आतंकी बन गए थे उनसे पंजाब को मुक्त कराने के लिए सेना को मंजूरी दी जा सकती है लेकिन नक्सलवाद के पीछे एक वाद है जो वामपंथ के चरम से प्रेरित था कभी,अब तो बस हिंसा का ही वाद रह गया है जो निर्दोष जानें ले रहा है। उससे मुक्ति पाने के लिए सेना नही?
आप दे सकते हैं जवाब?
19 May 2010
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18 टिप्पणी:
ये इन बेशर्मी और भ्रष्ट मंत्रियों की करतूतों की वजह से इतना नासूर हो गया है /
अब कहां कोई वाद रहा संजीत भाई।
अब तो सिर्फ आतंक है। सरकारों को इस आतंक से वैसे ही लड़ना चाहिए, जैसा कि सीमा पर दुश्मनों से लड़ा जाता है।
maovadi sirf maovadi hai jo jurm ka badla lene ki kosis kar rahe hai we bhagwan nahi ki apne upar pura niyantran rakh sake sirf itna sochiye jab we desh par kabij honge to hamara kya hoga tab tak to arundhati roy jaise log swarg me honge aur dharti par maovadiyo ke shasan ka narak hame bhogna parega
ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद सरकार को और देश को जो दिन देखने को मिले। ब्लूस्टार को गलती माना गया। शायद सरकार वह गलती दुबारा दोहराने को तैयार नहीं।
मै दिनेश जी की बात से सहमत हुं
soni ji se sahmat
kunwar ji,
ये दिग्विजयवाद है
भाई साहब ये अब भी अपने वाद को आतंकवाद नहीं मावोवाद ही मानते हैं देखा नहीं आज के टाईम्स आफ इंडिया में एक लेखिका और हत्यारों के प्रति सहानुभूति रखने वाली कंचकुमारी नें कहा है कि पुलिस या सुरक्षा बलों को जनता ट्रान्सपोर्ट में सफर करके युद्ध के नियमों का उलंघन किया है. (तो क्या आपके कायर प्रेमी बस्तर में युद्ध के नियमों का पालन कर रहे हैं ????)
वैसे डाक्टर साहब नें मर्ज बूझने का सहीं प्रयास किया है.
"दक्षिण भारत के ठेकेदारों की वजह से छत्तीसगढ़ बरबाद हो गया..."
आपने अच्छी समसामयिक पोस्ट लिखी
आज सरकार सेकुलर गद्दार चला रहे हैं भला वो क्यों अपने सेकुलर गद्दार आतंकवादियों पर हमला करने लगे । बैसे भी तो गद्दारों की सरदार इन आतंकवादियों के समर्थन में खुल कर आ गई है
अधिक जानकारी के लिए हमारी पोस्ट पढ़ें
नक्सलवाद और आतंकवाद में तो कभी कोई फर्क ही नहीं था. जो सोचते आये हैं कि कोई फर्क है, वे भ्रम में रहे हैं. कुल मिलाकर बात इतनी है कि बन्दूक हाथ लगते ही कुछ मनुष्यों को ताकत का एक झूठा अहसास होने लगता है और फिर उन्हें लगता है कि वे कुछ भी कर सकते हैं. अपने विषय में इस मुगालते को पाले रखने के लिए वे निर्दोषों का लहू बहाते रहते हैं और इसके लिए कारण तलाशते रहते हैं. फिर यह भी है कि उनकी कीर्ति चहुँ-ओर फैलने लगती है और यह बात भी उनके झूठे अहं को सिंचित किये रखती है. जीने-खाने का शानदार इंतजाम हो जाता है, सो अलग.
हाँ, इस विशेष समस्या को आतंकवाद से थोड़ा सा अलग करने की सोचें, तो इस समस्या का एक अंग कुछ ख़ास किस्म के कुकुरमुत्ते भी हैं. अचानक इस किस्म के बहुत सारे कुकुरमुत्ते उग आये हैं, मानो खेती की पैदावार हों. ज्यादातर रिटायर्ड वेरायटी के कुकुरमुत्ते हैं जिन्हें शायद अब कुकुर भी नहीं पूछता. अपनी पूछ बनाने के लिए कुकुरमुत्तों ने फैसला किया कि हर जगह टांग अड़ाएंगे, और हर सब्जी में मिल जायेंगे. अब इसका कोई क्या करे कि जहरीले कुकुरमुत्ते हैं, जिस सब्जी में मिलते हैं उसी को जहरीला बना देते हैं. वैसे जनता का जीना हराम करने के सिवा इन कुकुरमुत्तों का अब कोई और काम भी नहीं रह गया है.
रही बात सेना भेजने की, तो सेना प्रमुखों की यह दलील बड़ी बचकाना है कि अपने ही लोगों पर कैसे गोलियां चलायें? क्यों भाई, क्या स्वर्ण मंदिर में नहीं चलाई थीं? यह भी कहते हैं, कि यह सेना का काम नहीं है. अब पुलिस तो कुछ कर पाने से रही. तो इसका मतलब है कि सेना उस दिन का इंतज़ार करेगी, जब तक ये लोग शहरों में घुस कर सत्ता पर कब्ज़ा ना कर लें, और इसके लिए सेना पर भी गोलियां, गोले, रॉकेट, माईन आदि चलायें. फिर शायद सेना जाग कर अपने इन लोगों पर गोलियां चलाने की सोचे.
ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोधी यह कहते हैं कि इसमें निर्दोष आदिवासी मारे जायेंगे और यह सिर्फ उन्हें मारने का षड़यंत्र है. कोई मुझे समझाएगा, कि कैसे? और क्या अभी ही आदिवासी बेचारे मर नहीं रहे चाहे जिस तरफ रहें, चाहते या ना चाहते?
जो निर्दोषों की जान लें,उनका कैसा सिद्धांत और कैसा वाद...बहुत बहुत दुखद है यह सब...
समसामयिक पोस्ट, आपसे सहमत हूँ.
बिजनेस स्टेण्डर्ड में पढ़ रहा था - नक्सल आई.एन.सी. १२०० से २००० करोड़ सालाना की एक्स्टॉर्शन इण्डस्ट्री है!
भगवान जाने सरकार की आतंकवाद की परिभाषा क्या है। कितना लहू बहाने के बाद सरकार नक्सलवादियों को आतंकवादी मानेगी?
Ye mere bhai meri samajh mein Democracy ka priya khel Vaad-Vivaad hai!
Chalta rahega....
Bekusoor marte rahenge....
Dhoti walo kee jai!
जब जब तक वाद रहेगा. तब तक विवाद रहेगा। आतंकवाद के पीछे भी तो वाद है। पहले बाद को खत्म करो..बाकी सब खत्म हो जाएगा। पंजाब में भी नक्सलवाद ने सिर उठाया था।
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