नक्सली हिंसा के विरोध में मेरी पिछली दो पोस्ट नक्सली हिंसा और हमारे कुछ पत्रकार बंधु व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व एक्टिविस्ट के नाम एक छत्तीसगढ़िया का पत्र को पढ़कर एक सज्जन ने मुझे ई-मेल पर एक वेबसाइट की लिंक भेजी। देखने पर मालूम हुआ कि यह सलवा जुडुम पर आधारित साइट है जिसके कई पेज अभी अंडरकंस्ट्रक्शन हैं। मैं उन सज्जन को ई-मेल पर धन्यवाद ज्ञापित किया तो लौटती डाक से फ़िर ई-मेल पर ही उन सज्जन ने कहा कि उन्होंने मेरी उपरोक्त दोनों पोस्ट पढ़ी है अत: वह मुझसे सलवा जुडुम के समर्थन में लेख की अपेक्षा रखते हैं। मैं इन सज्जन को अपनी इस पोस्ट के माध्यम से ही जवाब देना चाहूंगा कि भैय्या! मैं नक्सली हिंसा का विरोधी हूं इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं सलवा जुडुम का समर्थक हूं। मैं तो सिर्फ़ उन बस्तरिहा और अबूझमाड़ के आदिवासियों के समर्थन में खड़े होना चाहता हूं जिन्हें नक्सली हिंसा व सलवा जुडुम के चलते अपना घर,अपना गांव और अपना जंगल छोड़कर सरकारी कैंप, कस्बों और शहरों का रुख करना पड़ रहा है।
नक्सली हिंसा व सलवा जुडुम दोनों ही इन आदिवासियों से उनका आदिवासी होना छीन रहे हैं , उनकी नैसर्गिकता छीन रहे हैं। इन आदिवासियों को यह नहीं मालूम कि अब वे कब अपने घर,गांव या जंगल लौट पाएंगे या कभी लौट सकेंगे भी या नहीं। भविष्य में शायद इनमें से आधे कस्बों या शहरों में रहे तो इस तरह तो हम इन आदिवासियों से उनका आदिवासी होना ही छीन कर उन्हें शहरी बनने के लिए अग्रसर कर रहे हैं॥ ऐसे आदिवासी आगे चलकर सिर्फ़ कागज़ों पर आदिवासी कहलाएंगे,प्रकृति से या जीने के तौर-तरीकों से नहीं।
जब छत्तीसगढ़ राज्य बना था तब यहां के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपने उद्बोधन में कहा था कि-" छत्तीसगढ़ एक हजार साल एक साथ जीता है"। यह लाईन तब बहुत सही इसलिए थी कि क्योंकि राजधानी रायपुर 21वी सदी में था और बस्तर के आदिवासी हमसे न जाने कितने सौ साल पीछे। पर अब शायद ऐसा नहीं हो क्योंकि नक्सली हिंसा व सलवा जुडुम के चलते बस्तर व अबूझमाड़ के जंगल, गांव में आदिवासी तौर तरीके से जीने के लिए आदिवासी बचेंगे ही कहां और जो बचेंगे वह तो किसी कस्बे या शहर में दो जून की रोटी के लिए मजूरी तलाशते दिखेंगे।
वैसे भी हमारी सरकारें इन आदिवासियों को बचाने(?) के कागज़ों पर न जानें कितनी योजनाएं चलाती रही है और चला रही है पर हकीकत में इन योजनाओं का क्या हश्र होता है। क्या यह आदिवासी पर्यटन व कला के माध्यम से हमें सिर्फ़ राजस्व देने के लिए हैं। प्रदर्शनी के लिए बस हैं कि आओ दुनियावालों देखो हमारे राज्य में भी आदिवासी हैं जो आज भी हमसे न जानें कितने सौ साल पीछे जी रहे हैं,जो मदमस्त होकर घोटुल में नाचते हैं, जो आज भी तीर-धनुष या कुल्हाड़ी के माध्यम से जी रहे हैं, जो इतनी अच्छी हस्तशिल्प जानते हैं जो हमारे ड्राइंगरुम की शोभा बढ़ा सकता है, ऐसी कलाएं जो दुनिया भर में उंचे दामों में बिकता है।
कब तक हम इन आदिवासियों को सिर्फ़ पाठ्यक्रम का एक हिस्सा मात्र बनाएं रखेंगे। इन्हें मानव कब समझेंगे। कब तक हम इन्हें नक्सली हिंसा और सलवा जुडुम के बीच पिसने देंगे।
मुझे ई-मेल कर लेख की अपेक्षा रखने वाले,सलवा जुडुम वाले भैया मुझे माफ़ करना। मैं सलवा जुडुम के पक्ष में लेख नहीं दे सकता क्योंकि नक्सली हिंसा व सलवा जुडुम दोनो के ही पक्ष में चलने से मेरी कलम मुझे इनकार कर देती है।
13 June 2007
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5 टिप्पणी:
छत्तीसगढी साहित्यिक पत्रिका अकाशदिया के कंगला मांझी विशेषांक के विमोचन के समय विगत दिनो प्रसिद्ध साहित्यकार "कम्लेश्वर" ने कहा था "आज के आदिवासी ही जल, जंगल और जमीन से आबद्ध हैं । उनकी संपूर्ण सामाजिक संरचना और जीवन यापन का साधन जल, जंगल और जमीन ही है । यही और जीवन के इन्ही तत्वों के साथ आदिवासी समुदायों की भाषा, शिक्षा, संस्कृति और जीवनशैली विकसित हुई है, जो शहरी या मैदानी पहचान से एकदम पृथक है ।" संजीत भाई बस्तर से दूर रह के भी "कम्लेश्वर" जी ने जो आदिवासियो के अस्तित्व का सटीक चित्रण किया है वह आपके इस लेख को पढ कर स्पस्ट होता है । चाहे नक्सलियो के कारण या सडवा जुलूम के कारण आदिवासी तो अपने जल, जंगल और जमीन से पृथक हो ही रहे है । समाज मे लेखक के उद्देश्य को अलग अलग नजरिये से देखा जाता है पर उसके मूलभूत विचारो पर ध्यान नही दिया जाता । हम सब छत्तीसगढिया चिठ्ठाकारो का आर्तनाद आदिवासियो की अस्मिता के लिये है । साधुवाद !
ये नक्सली तो जानता हूँ लेकिन सलमा जुड़्म क्या चीज है जी?
आप बधाई के पात्र हैं। आपके प्रति मेरा सम्मान बढा है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
aapko salaam
Sanjeet ji,
bahut achha laga ye padhkar ki aapki kalam naxali hinsa aur salwa judum dono ke samarthan mein chalne se inkar karti hai.ye sach hai ki naxalwaad apne jin aadarshon aur siddhanton ko lekar shuru hua tha ,wo bahut peeche chut gaye hain.har taraf se nuksaan unka hi ho raha hai jo haashiye par hain.aadiwasiyon ko aaj sirf showpiece ki tarah istemaal kiya ja raha hai,lekin kahin na kahin unhe apne drawingroom ki shobha badhane ka kaam hum aur aap hi to kar rahen hain.
aadiwasiyon ke aadiwasi bane rahne ki jo baat aapne likhi hai,uske baare mein kuch asmanjas hai mere man mein,agar wo sirf usi prakritik watawaran mein apne tarike se rahen to phir wo vikas ki mukhya dhara mein kaise aayenge?
wo aadiwasi paida hue hain to kya unhe jungalon mein hi rahne ko chod de?iska ye matlab katai nahi hai ki main unhe unki zameen se hi alag kar diya jaye,jo aajkal ho raha hai ,uska samarthan kar rahi hoon.maine aadiwasiyon ke bare mein sirf padha hai,aapne dekha,jana aur samajha hoga ,to phir kya kiya ja sakta hai?
FIEDEL CASTRO ne kaha tha,
WHEN EXPLOITATION IS THE REALITY, THEN REVOLT IS A RIGHT,
to kya ye jawab ho sakta hai.
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