छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार व रायपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर से "मोहरे नही जवान मारे जा रहे हैं जनाब" के द्वारा हमारे पाठक परिचित हो ही चुके हैं। छत्तीसगढ़ पुलिस के जवानों के नक्सलियों द्वारा लगातार मारे जाने के सिलसिले के बीच आला अफ़सरों और राजनेताओं की निस्पृहता या कहें कि बेशर्मी देखकर अनिल की कुलबुलाहट इन दिनो उनकी लेखनी में फ़िर से मुखर हो उठी है। मंगलवार शाम उन्होनें अपनी यह कुलबुलाहट स्थानीय सांध्य दैनिक "नेशनल लुक" में कुछ इस तरह व्यक्त की।
किसका राज्य कैसा उत्सव
रायपुर। सारा राज्य , राज्य की सातवीं सालगिरह पर राज्योत्सव की खुशियां मना रहा था और ग्यारह परिवारों पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा था। राज्योत्सव के शोर में नक्सली हिंसा में शहीद हुए जवानों के परिजनों का क्रंदन दब सा गया था। उन्हें श्रद्धांजलि के रुप में किसी भी जनप्रतिनिधि की सलामी नहीं मिली क्योंकि सारे के सारे तो राज्य की सलामती करने वाले जवानों से ज्यादा राजनीति की सलामती बनाए रखने वाले नेताओं की चरण वंदना में लगे थे।
छत्तीसगढ़ राज्य के वनांचलों में पता नही किसका राज चल रहा है। कहने को तो सरकार ये दावा करती है कि उनका राज चल रहा है मगर हालात कुछ और कहते हैं। साफ़ पता चलता है कि वहां नक्सलियों का समानांतर राज
चल रहा है। नक्सली जब चाहे जिसे चाहे मार रहे हैं और उनका कोई कुछ नही बिगाड़ पा रहा है। सरकार ने वनांचलों की रक्षा करने के लिए एक सुपरकॉप तक की सेवाएं ली थी। लम्बे चौड़े बिलों के अलावा सुपर कॉप ने छत्तीसगढ़ की रक्षा के लिए क्या किया ये सरकार ही बता सकती है क्योंकि सुपरकॉप के पी एस तो अब वहां आने से रहे।
तब भी जवान मर रहे थे और अब भी जवान मर रहे हैं। कुछ भी फ़र्क नही पड़ा है। जवानों के शवों को श्रद्धांजलि देने की औपचारिकता पुलिस के कुछ गिने चुने संवेदनशील अफ़सर पूरा करते आ रहे हैं। शायद उनकी आंखों के अलावा और किसी बड़े अफ़सरों और जनप्रतिनिधियों की आंखें नम तक नही होती होंगी। जबकि जवानों के परिवार का रोना देखकर तो शायद पत्थर भी रो पड़े। बेहद अफ़सोस की बात है कि जिस राज्य में पुलिस के 11 जवानों की चिताएं सुलग रही थी उसी राज्य में धूमधाम से राज्योत्सव मनाया जा रहा था शहीदों के परिवार की चीखें तो उदित नारायण के गानों के शोर में गुम होकर रह गई। सारे जनप्रतिनिधियों से लेकर बस्तर से अपने आप को दूर रख पाने मे सफ़ल रहे, आला अफ़सर बेशर्मी से उदित नारायण के फ़िल्मी गानों को एन्जॉय करते रहे।
उन्हें तो पता भी नही होगा कि पामेड़ में कर्तव्य पथ पर चलते हुए अपनी जान गंवा देने वाले ईश्वर भागीरथी के परिवार पर क्या गुजरी। कुछ ही दिनों पहले उसने अपनी इकलौती तीन साल की नन्ही गुड़िया के लिए दीवाली की खरीदी भी की थी। हालांकि उसकी बस्तर पोस्टिंग से उसकी पत्नी बेहद नाराज़ थी और इसलिए मायके में रहने लगी थी। इसके बावजूद उसे विश्वास था कि वह सबकी नाराजगी दूर कर लेगा। लेकिन उसका सपना, सपना ही रह गया। उसके उत्सव की तैयारियां धरी की धरी रह गई। उसके परिवार पर दीवाली और राज्योत्सव से पहले दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा।
ईश्वर अकेला जवान नही था जिसका परिवार असहमय बेसहारा हो गया। एक नही ग्यारह जवान शहीद हुए। सबके शव जगदलपुर लाए गए और वहां पुलिस की परंपरा के अनुसार अंतिम सलामी के साथ अंतिम विदाई दी गई।
इस अवसर पर पीएचक्यू से कुछ आला अफ़सर ज़रुर पहुंचे थे, जिनकी संवेदनशीलता श्रम से परे है और उन्होनें जवानों को श्रद्धांजलि देकर ये साबित कर दिया कि वे अच्छे अफ़सर ही नही बल्कि अच्छे इंसान भी है। मगर अफ़सोस कि ऐसा साबित करने में बयानबाज़ों की जमात से एक ने भी कोशिश नही की। बयानों में नक्सलियों की हरकत को इंसानियत के नाम पर कलंक कहते नही थकने वालों को अपने ही जवानों को श्रद्धांजलि देने की फ़ुर्सत तक नही मिली। दरअसल उनके लिए तो सलामी देना ज़रुरी था अपने आकाओं को और उनके संग उत्सव मनाना भी ज़रुरी था। मगर नक्सली की गंभीरता पर गौर करें तो सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि किसका राज और कैसा उत्सव।
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9 टिप्पणी:
जी लेखक की पीड़ा सही है. लेकिन उत्सव में हम सब भूल जाते हैं.
दुख की बात तो है ही । परन्तु जब बार बार हम दुख देखते हैं तो हम उससे अपना आँचल बचाते हुए अपनी कभी कभार की खुशियाँ मना ही लेते हैं । अन्यथा जीना कठिन हो जाएगा ।
इस हिंसा को खत्म करने का कोई उपाय तो करना ही होगा ।
घुघूती बासूती
पुलिस वालों का 'मानवाधिकार' नहीं है.मानवाधिकार तो केवल आतंकवादियों और नक्सलियों का होता है.....
हमारे भाग्यविधाता सेमिनार में बुद्धिजीवियों को बुलाकर नक्सलवाद पनपने का कारण खोजेंगे तो ये सब चलता रहेगा. कानून व्यवस्था की समस्या है उसे बुद्धिजीवी सामजिक समस्या मानकर चल रहे हैं. ऐसे में ये स्थिति बरकरार रहेगी.
हमारे यहाँ आजकल सारी समस्याएं टीवी चैनल के डिस्कशन में हल हो रही हैं. वहाँ, जहाँ प्रश्न पूछने वालों को लंच पैकेट का लालच देकर इस लिए लाया जाता है जिससे हाल की कुर्सियाँ भरी जा सकें.
दुखद है..मगर उत्सव तो मना ही लेना चाहिये.
मुझे तो इस और पहले की पोस्ट पढ़ने पर यह लगता है कि राज्य और राजनेता नक्सल आतंक से लड़ने की इच्छा शक्ति खो बैठे हैं। 'शाह आलम - दिल्ली से पालम' जैसी शहर केन्द्रित सरकार में मलाई की बन्दरबांट भर ध्येय रह गया है। ऐसा ही झारखण्ड में दीखता है। अन्य प्रांतों में भी असुर संस्कृति से लड़ने में कोई उत्सुकता नहीं है। शायद समय ही हल करे यह समस्या।
छत्तीसगढ के बस्तर के गर्भ में ही अकूत प्राकृतिक संसाधन व खनिज खजाना है, यदि हम यहां की परिस्थतियों की अनदेखी कर कोई भी उत्सव मनाते हैं तो यह बेमानी है, जहां तक घोषणा की बात है तो सरकार की ओर से घोषणा तो हुई थी कि ऐसे गमगीन मौके पर सारे मस्ती के कार्यक्रम रद्द कर दिये जाएगें उसके बाद भी यदि उत्सव सोल्लास चला तो यह आला अफसरों की असंवेदनशीलता को प्रदर्शित करता है ।
सरकार अब भी सोई है, जगदलपुर में अभी लाखों की संख्या में अपने बीहड गांवों से दो दो तीन तीन दिन पैदल चलकर तीरकमानों व अपने पारंपरिक भेष भूषा में आदिवासी इकत्रित हो जाते हैं, जल जमीन व जंगल के राग गाते हैं पर सरकार की निद्रा में कोई बाधा नहीं पडती, यह शंखनाद है । कुम्भकर्णों अब तो उठो ।
धन्यवाद, अध्यक्ष महोदय, आप पत्रकारिता के दायित्व को बखूबी प्रस्तुत कर रहे हैं, आशा है आपकी पूरी टीम प्रदेश की व्यथा को समझ पायेगी ।
मानवता जगे कामना यही
भाईचारा हो, भावना यही
दीपावली हो मंगलमयी
ईश्वर से प्रार्थना यही..!
राज्य नेता न सही कम से कम मीडिया के लोग संवेदनशील हैं और निरंतर इस रिस्ते घाव को दिखा रहे है यही सराहनीय है। ये लेख भी अंदर तक मथ कर रख गया।
काफी संवेदनशील था ये संजीत साहब,मगर सच्चाई यही है नक्सलवादियों की भी एक पीड़ा है,ठीक पुलिस के ग्यारह जवानों की भांति,और हम किसी को भी कम करके नहीं आंक सकते.वैसे राज्योत्सव को दरकिनार करना भी तो समस्या का समाधान नहीं है.
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