रायपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने अपना पत्रकारिता का सफ़र 1989 में युगधर्म से शुरु किया था तब से अब तक दैनिक भास्कर, अमृत संदेश, जनसत्ता(रायपुर), जी न्यूज़ में होते हुए वर्तमान में सांध्य दैनिक नेशनल लुक से जुड़े हैं। क्राईम और पुलिस बीट ही ज्यादातर संभालने वाले अनिल अपने आक्रामक लेखन शैली के लिए जाने जाते रहे हैं( इनकी इसी आक्रामक शैली के हम कायल हैं)। इधर एक नवंबर को राज्य ने राज्योत्सव मनाया और आए दिन खून बहाने वाले नक्सलियों नें इसी दौरान 11 पुलिस जवान फ़िर घेर कर मार डाले और पांच को घायल कर दिया जो कि अपनी जान बचाकर किसी तरह बच निकले। इस खूरेंज़ी से उद्वेलित हो कर अनिल पुसदकर ने सांध्य दैनिक नेशनल लुक में जो लिखा वह यहां प्रस्तुत है।
मोहरे नहीं जवान मर रहे हैं जनाब!
रायपुर। कहने को तो त्यौहार दीवाली का आ रहा है लेकिन बस्तर में नक्सली होली खेल रहे हैं, वो भी खून से। वहां खून बह रहा जवानों का और यहां जनाब उच्चस्तरीय बैठक ले रहें हैं। पता नही कितनी बार कथित उच्चस्तरीय बैठकें हुई हैं। अगर उतनी बार उच्चस्तरीय प्रयास हुए होते तो शायद तस्वीर बदलनी शुरु जरुर हो जाती। लेकिन राजधानी में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में बैठे नवाब कागज़ी बिसात बिछा कर शह और मात का खेल खेल रहे हैं और वहां बस्तर में मोहरे नही जवान शहीद हो रहे हैं।
उच्चस्तरीय बैठक में होता क्या है, ये तो ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बैठे अफसर ही जानते होंगे। लेकिन आम जनता शायद इसे गंभीरता से नही लेती और न ही पुलिस महकमे के जवान, इस उच्चस्तर पर विश्वास करते हैं। पिज्ज़ा, बर्गर और मिनरल वाटर के साथ होने वाली उच्चस्तरीय बैठकों के निचोड़ को आला अफसर केमोफ़्लेज और कन्सीलमेंट जैसे शब्दों के अर्थ की तरह ढँक लेते हैं। अपनी नाकामी को गोपनीयता की आड़ में छिपाने का ये सबसे बेहतर तरीका है और ये तरीका उतना ही सफल होता है, जितनी उच्चस्तरीय बैठक होती है। फिर यहां राजधानी में संगीनों के साये में सुरक्षित पुलिस महकमें के सबसे महफूज़ किले में उच्चस्तरीय बैठक के मायने क्या हैं? और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या जवानों के शहीद हो्ने के बाद ही उच्चस्तरीय बैठकें होंगी? ऐसा लगता है कि अफसर बैठक-बैठक खेलने में व्यस्त हैं और वहां बस्तर में जवानों के खून से नक्सली होली खेल रहे हैं।
ऐसा लगता नही है कि जवानों के शहीद होने का सिलसिला जल्द थमेगा। वहां रात को गश्त पर जाने वाले जवानों के घरवालों की रात कैसे कटती होगी उसका एहसास राजधानी के एसी रूम में नर्म गद्देदार बिस्तर में सुहावने सपने देखने वालों को शायद हो पाए। हर पल ज़िंदगी और मौत के बीच झूलते जवान भी गश्त से सही सलामत लौटने के बाद अगली गश्त तक ही राहत की सांस ले पाते होंगे। अब अगर ये कहा जाए कि जवानों को पुलिस महकमा चारे की तरह इस्तेमाल कर रहा है तो शायद बहुत से लोगों को बेहद नाराज़गी होगी। लेकिन ऐसे लोगों से अगर ये पूछा जाए कि क्या उन्होनें कभी आगे बढ़कर किसी बड़े अभियान का नेतृत्व किया है तो शायद उनकी नाराज़गी और बढ़ जाएगी। ऐसे में एक अफ़सर ज़रुर याद आते हैं अयोध्यानाथ पाठक्। जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के आईजी(नक्सल ऑपरेशन) हुआ करते थे, तब पुलिस का मनोबल देखने लायक होता था। वे खुद बस्तर के बीहड़ में कैम्प करते थे। उन्होनें नक्सली आंदोलन को दो फाड़ करवा दिया था। कोंडापल्ली सिताराम्मेया और मूपला लक्ष्मणराव के बीच मतभेदों को उन्होनें हवा दी थी और उसका फायदा उठाने में सफलता हासिल की थी। अब शायद वैसी रणनीति जंगलों की बजाय पीएचक्यू में बनाई जाती है। इसलिए हर बार पुलिस के जवानों के शहीड होनें के बाद घड़ियाली आंसू बहाने का सिलसिला शुरु हो जाता है। कुछ नेताओं को तो तारीख का स्थान छोड़कर ऐसे बयानों को पहले से ही छपवाकर रख लेना चाहिए क्योंकि उनके बयान दिल से नही कलम से लिखे हुए होते हैं पता नही क्यों ऐसा लगता है कि पुलिस महकमें में संवेदनशीलता कम होने लगी है। उससे ज्यादा हावी हो रही है वहां तिकड़मबाजी। पोस्टिंग और ट्रांसफर के लिए जितनी मेहनत की जाती है उतनी नक्सल समस्या से निपटने में नही होती। संवेदनशीलता अगर होती तो क्या मरने वाले जवानों को देखकर यहां बंद कमरों में गबरू जवान हॉलीवुड स्टाइल के अफसरों का खून नही खौलता? क्या उन्हें शहीद होने वाले जवान की बूढ़ी माता, जवान बहन, विधवा पत्नी और अबोध बच्चों की आंखों में कौंधते सवाल परेशान नही करते? क्या शहीद हो्ने वाले जवानों के असहाय और बेकसूर रिश्तेदारों को सिलाई मशीन, शॉल और श्रीफल देते समय फोटो खिंचवाते उन्हें शर्म नही आती? क्या नक्सली हिंसा का हल पीएचक्यू की उच्चस्तरीय बैठकों से निकल सकता है? क्या इस मसले का हल सिर्फ़ पुलिसवाले ही ढूंढेंगे? क्या नेताओं की बयानबाजी और घड़ियाली आंसू बहाने के अलावा और कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? क्या जवान ऐसे ही अफसरों की तरह पिटते रहेंगे। राजधानी में बैठकर जवानों से खेलने वालों को सोचना चाहिए वे बेजान मोहरे नही हैं। उनमे जान है और अपने परिवार के लिए उनकी उतनी ही जरुरत है जितनी हम सब की।
नक्सली हमले वाली तस्वीर तहलका डॉट कॉम से साभार
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14 टिप्पणी:
मार्मिक है, टाप वालों को सबको सीधे भेजा जाना चाहिए. मोरचे पर।
जवान ऐसे मर रहे हैं तो रणनीति में जबरदस्त खामी तो है ही। नक्सल समस्या को कड़ाई से और जनता के स्तर को सुधारने का यत्न पूरी इमानदारी से करना चाहिये। कड़ाई और नक्सलियों को निरर्थक बनाना - दोनो समांतर होने चाहियें।
यह रिपोर्ट बहुत सटीक है।
कड़वा सच पेश किया आपने अपनी पोस्ट के मध्यम से. आलोकजी कि बात गौर करे लायक है. ऐसा ही कुछ करे से बदलाव आएगा
दुखद स्थिति .........अफसोस होता है ये सब देखकर,पढकर।
यह शर्मनाक है
शर्मनाक और दुखदायी है जवानों का इस तरह से मारा जाना।
दिल को झकझोरनेवाली बात है यह। इसे रोका जाना चाहिए।
मनुष्य पशु जैसा बन गया
और रक्त पान कर रहा !
यह घृणित कार्य मनुष्य का
समाप्त हो ! समाप्त हो !
गुहार एक आत्मा की ----
सफेदी प्रेम की ओढ़ लो
और लाल रंग छोड़ दो !!
यह सब बहुत मार्मिक और यह वर्णन काफी सटीक है, पुराणिक जी का कहना सही है कि सब टाप वालों को सीधे भेजा जाना चाहिए. मोरचे पर। मरने के लिए
राजनीतिज्ञों को तो उसी जंगल में फ़ैक देना चाहिए और बाबुओ को भी
एक दम सही कहा पुराणिकजी ने
वैसे ये राजनेता ही हर चीज का कबाडा करते हैं, उन्हें क्या पडी है कि वो देखें और यू रोज रोज की हिंसा का कोई हल निकलवाएं
कलमनवीसों के लिखने के बाद रायपुर में किस्सों को बनते बिगडते देखा है, पर नक्सल मसले पर बहरी, गूंगी और अंधी हो गई है सरकार ।
अफसोस जनक, संजीत.
सटीक लिखा है। किसी भी आला-अधिकारी या राजनेताओ के पास इतनी फुर्सत नही है कि नक्सली समस्या को सुलझा सके। नक्सलवाद अपराध कम और एक विचारधारा ज्यादा है। नक्सलवाद से दो-दो हाथ करने के साथ-साथ जरुरत है इस विचारधारा के लोगो से मिल-बैठकर बात करने की। कोशिश होनी चाहिये की जिन मुद्दो को नक्सली उठा रहे है उसपर गंभीरता से सोचने की और उनकी समस्याओ के समाधान की। जो शायद देश की आजादी के बाद से आजतकत नही हुआ है।
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