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27 January 2010

मुद्दों का वर्चुअल स्पेस से फिजीकल प्रेजेंस तक जाना, कितना सही और कितना गलत

पिछली से पिछली पोस्ट में आए विनीत के कमेंट में कही गई बात में दम है।

उनके लंबे कथन में जो कहा गया उसका एक अंश महत्वपूर्ण और विचारणीय है, महज इस लिहाज से नहीं कि चिट्ठाचर्चा डोमेन का मसला यहां हावी था, बल्कि इस संपूर्ण ब्लॉग जगत या ब्लॉगिंग के लिहाज से यह मायने रखता है।

उनका कहना है कि " अगर वर्चुअल स्पेस के मामले को इस तरह फीजिकल प्रजेंस के तहते निबटाने की आप कोशिश कर रहे हैं तो माफ कीजिएगा कि आपलोग बहुत ही खतरनाक दिशा में कदम रख रहे हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया में बहुत ही गलत रिवायत को बढ़ावा दे रहे हैं। ये पूरी बहस वर्चुअल स्पेस की बहस को लेकर है। इसे फिजीकल प्रजेंस के तहत जजमेंट देने के बजाय वर्चुअल स्पेस पर ही इस मामले में लोगों से राय ली जानी चाहिए। आप लोग अभी तक इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि जब हम सारी बहसें,कवायदें वर्चुअल स्पेस में आकर कर रहे हैं तो उससे कूद-कूदकर विजिवल जोन में क्यों आ जा रहे हैं। मेरी अपनी समझ है कि जैसे-जैसे हम आजाद माध्यम को सांस्थानिक रुप देने जाएंगे वैसे-वैसे इसमें जड़ता आती चली जाएगी। उपरी तौर पर हमें लगेगा कि हम संगठित हो रहे हैं,हमें इसकी ताकत का एहसास भी होगा लेकिन आगे जाकर इसके भीतर सरकारी या कार्यालयी सिस्टम की तरह ही ब्यूरोक्रेसी पैदा होगी।"


उनकी यह बात वाकई विचारणीय लगी मुझे।

यह ध्यान रखें कि इस पोस्ट में डोमेन नेम वाला मुद्दा कोई बात ही नहीं है। बात वर्चुअल स्पेस के मुद्दे को फिजिकल प्रेजेंस से नहीं बल्कि वर्चुअल स्पेस पर ही रायशुमारी से निबटाने की बात है। हां यह बात जरुर कही जा सकती है कि "अच्छा तो अब वर्चुअल स्पेस वाले फिजिकल प्रेजेंस की धमक से धमकने लगे", लेकिन यदि आप सिर्फ और सिर्फ ब्लॉगिंग के लिहाज से देखें तो विनीत की उपरोक्त बात पर आपको ( किन्हीं व्यक्ति विशेष को नहीं, हर ब्लॉगर को) इस धमकने वाली बात को नजर अंदाज करते हुए इस मुद्दे पर सोचना ही होगा। यदि आप लोग अपनी राय सिर्फ इसी मुद्दे पर दें तो यह "वर्चुअल स्पेस के मुद्दे वर्चुअल स्पेस पर ही निबटाने वाली" बात पर एक अच्छा खासा विचार-विमर्श हो सकता है।

7 टिप्पणी:

Alok Nandan said...

वर्चुअल स्पेस को जरा परिभाषित करेंगे???....लगातार देख रहा हूं इसी शब्द को रपेटे जा रहे हैं...

ghughutibasuti said...

विनीत ने एक बहुत गंभीर मुद्दा उठाया है। आभासी संसार, या वर्चुअल स्पेस जो भी कहिए, इसकी विशेषताओं में से एक बड़ी विशेषता इसका असीमित व स्वतंत्र होना है। जब हम इसे भी भौतिक सीमाओं में बाँधने की कोशिश करेंगे तो यह इस विधा के पंख कतरने जैसा होगा। कुछ समय के लिए हमें सांत्वना अवश्य मिलेगी कि हमारा दल( संस्था, या हमारे भौगोलिक क्षेत्र या भौतिक सीमा दर्शाता संघ या कुछ भी) बड़ा हो रहा है, हम अधिक शक्तिशाली बन रहे हैं, अब हम मिलकर कुछ सराहनीय कर सकेंगे। बहुत संभव है कि सराहनीय काम हों भी किन्तु यह सब इस माध्यम की प्रकृति के ही विरुद्ध है। दूरगामी परिणाम शायद वे न हों जो इस माध्यम से अपेक्षित हैं। हम स्वयं ही ब्लॉगिंग में भी लगाम कसने सा काम करने लगेंगे। जब किसी दल के सदस्य होंगे तो दल की राय ही हमारी राय बनती जाएगी। हम अपनी स्वतंत्र सोच को धीरे धीरे अपने दल की शक्ति व सुविधा से छोटा मानने लगेंगे। यह सब सोचे समझे तरीके से नहीं होता बस होता चला जाता है।
हो सकता हो कि ये सब चिन्ताएँ गलत सिद्ध हों किन्तु फिलहाल तो इन प्रयासों की दिशा समझ में नहीं आ रही।
हाँ, आभासी संसार की समस्याएँ, बहस आदि यहीं निपटाए जाते तो बेहतर रहता।
शायद जब जब आभासी संसार के सदस्यों को जबरन एक जगह पर लाकर प्रतिनिधियों की तरह खड़ा करने का प्रयास किया गया है असफल भी रहा है और कटुता को भी जन्म दिया है। हाँ, चार छः या अधिक इस संसार में बने मित्र अपने आप अनौपचारिक रूप से मिलें तो अलग बात है।
अभी इस विषय में बहुत संवाद व विचार होना शेष है और अभी कोई राय बना लेना जल्दबाजी होगी।
घूघूती बासूती

Unknown said...

I don't see any big problem if 'virtual space' discussion has come into physical or 'real' space.

Are we not talking about real people and real issues, will that not require human intervention at some point of time or we think ourselves that we will be able to solve problems virtually through discussion.

Bloggers who write only personal matters might feel offended. We teach children to use all the sense why are we becoming so rigid in our thoughts with this particular aspect. Isn't good that we are able to meet so many people whom we know through words?

Gyan Dutt Pandey said...

फिजिकल और वर्चुअल तौर पर अलग अलग चरित्र रखने वाले परेशान हों। हां यह जरूर है कि हिन्दी ब्लॉगजगत में बहसें कोई बहुत अच्छे स्तर की नहीं हैं।
बहुत संकुचन है। बहुत चिरकुटई।

डॉ महेश सिन्हा said...

भौतिक और आभाषी को क्या अलग अलग किया जा सकता है .

इसका जवाब हाँ और ना दोनों हो सकता है .
बेनामी चुप कर वह विचार रखता है जिसे वह नाम रख कर नहीं कर सकता . उसके लिए ये एक दोहरी दुनिया है .इसे चिकित्सा के भाषा में अतिरेक होने पर
विभाजित चरित्र कहा जाता है .

आभाषी जगत लोगों के लिए सपनों और संभावनाओं का जगत हो सकता है लेकिन बिना भौतिक जगत के इसका आधार नहीं है .

Anonymous said...

Bloging is for those who want to express their thoughts on the public domain and wait for more to come and share those thoughts .

Those who are interested to do social networking always have another option to join social networking sites

makins associations is healthy if its for some good cause like sharing of thoughts about a social stigma or literature etc

virtual space is for those who "respect privacy " of self and others and physical space is for those who want to know what is going on in others life that who have "little respect for personal privacy"

all those who are trying to give a direction to " what is right for hindi bloging " are forgetting the sole aim why blog came into existence

i agree with Mired Mirage and Gyandutt pandey

डा० अमर कुमार said...


दोनों में यह अलगाव, एक अपरिपक्व सोच है,
यदि यही है, तो ब्लॉगर-मीट पर एकत्र होना किस श्रेणी में आयेगा ?
विभाजित व्यक्तित्व की बात श्री शिवकुमार मिश्रा जी ऎतराज़ के बावज़ूद मैं अपने कई पोस्ट में उठा चुका हूँ ।
ब्लॉगर का अपने वर्चुअल होने का एहसास उसे अपने धुर व्यक्तित्व से अलग ले ही जाता है, और यह अपरिहार्य सा है ।
जब यह लगता है कि उसके कथन की तात्कालिक ज़वाबदेही अभी दूर है तो वह बगटुट कुलाँचे भरेगा ही । कुल मिला कर फिज़िकल प्रेज़ेंस का एक न एक टुकड़ा वर्चुअल अभिव्यक्ति में रहता ही है । हाँ, मुद्दों को फिजिकल स्तर पर उतारना अपरिपक्वता तो है ही !

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आपकी राय बहुत ही महत्वपूर्ण है।
अत: टिप्पणी कर अपनी राय से अवगत कराते रहें।
शुक्रिया ।