आइए कुछ बात करें अब छत्तीसगढ़ ब्लॉगर मीट की रपट पर मिली टिप्पणियों पर। इनमें सबसे खास ध्यान देने लायक हैं विनीत कुमार, राजकुमार ग्वालानी और अनूप शुक्ल जी की। दरअसल ये टिप्पणी ही नहीं बल्कि पोस्टनुमा टिप्पणी हैं इसलिए इनकी चर्चा अलग से आवश्यक है। एकदम मुद्दे पर है।
विनीत कुमार कहते हैं " पहले तो मीट के लिए सबों को बधाई। एक ब्लॉगर्स मीट की सफलता सिर्फ इस बात को लेकर नहीं है कि उसमें कितने ब्लॉगर शामिल हुए बल्कि इस बात में भी है कि उस मीट के जरिए कितने नए लोग जुड़ पाए। जो आम ऑडिएंस की हैसियत से आए और ब्लॉगिंग करने का जज्बा लेकर वापस जा रहे हैं। आपने संख्या बताकर इसके महत्व को समझा है,शुक्रिया। अब दूसरी बात कि छत्तीसगढ़ में जो कार्यकारिणी बन रही है वो चिठ्ठाचर्चा वाले मामले पर विचार बनेगी। मुझे ये बात समझ में ही नहीं आ रही है। क्या ये मसला छत्तीसगढ़ तक सीमित है या सिर्फ इसलिए कि आपलोगों ने एक कार्यकारिणी बना लिया है तो इस नाते मसले का निबटारा कर लेगें या फिर इस लिए कि पाबलाजी सहित बाकी के लोग छत्तीसगढ़ के हैं। अगर वर्चुअल स्पेस के मामले को इस तरह फीजिकल प्रजेंस के तहते निबटाने की आप कोशिश कर रहे हैं तो माफ कीजिएगा कि आपलोग बहुत ही खतरनाक दिशा में कदम रख रहे हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया में बहुत ही गलत रिवायत को बढ़ावा दे रहे हैं। ये पूरी बहस वर्चुअल स्पेस की बहस को लेकर है। इसे फिजीकल प्रजेंस के तहत जजमेंट देने के बजाय वर्चुअल स्पेस पर ही इस मामले में लोगों से राय ली जानी चाहिए। आप लोग अभी तक इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि जब हम सारी बहसें,कवायदें वर्चुअल स्पेस में आकर कर रहे हैं तो उससे कूद-कूदकर विजिवल जोन में क्यों आ जा रहे हैं। मेरी अपनी समझ है कि जैसे-जैसे हम आजाद माध्यम को सांस्थानिक रुप देने जाएंगे वैसे-वैसे इसमें जड़ता आती चली जाएगी। उपरी तौर पर हमें लगेगा कि हम संगठित हो रहे हैं,हमें इसकी ताकत का एहसास भी होगा लेकिन आगे जाकर इसके भीतर सरकारी या कार्यालयी सिस्टम की तरह ही ब्यूरोक्रेसी पैदा होगी। आप सबसे व्यक्तिगत अपील है कि हमलोग बहुत ही शुरुआती दौर में हैं। इस तरह के मसले को पंचायती औऱ कानूनी लफड़ों में न डालकर फीलिग्स के स्तर पर समझने की कोशिश करें और अपना फैसला उसी के हिसाब से लें। एक इंसान जिसने ऑफिस और गृहस्थी की हील-हुज्जतों के बीच के समय को चुराकर कुछ खड़ा किया,लोगों को जोड़ा,भावनात्मक स्तर पर उससे जुड़ता चला गया। आप आज उस पर पंचायती करने लग गए हैं। इस तरह की जबरिया संस्कृति आनेवाले ब्लॉगरों को किस तरफ ले जाएगी,इसका आपको अंदाजा होना चाहिए। जब इस नाम से डोमेन लिया जा रहा था तो क्या पता नहीं था कि इस नाम से ऑलरेडी पहले कोई बंदा काम कर रहा है। फिर उसमें टांग फसाने की जरुरत क्यों पड़ गयी? इतनी समझदारी लेकर भी काम नहीं किया जा सकता क्या? मैं तो मानता हूं कि हम चाहे या न चाहें,वर्चुअल स्पेस में हमें अपना दिल हर हाल में बड़ा करके काम करना होगा। तभी इसे हम एक संभावना का माध्यम के तौर पर विस्तार दे सकेंगे। बाकी आप लोग हमसे ज्यादा दिमागवाले हैं,जो बेहतर समझें,करें।"
इधर राजकुमार ग्वालानी जी कहते हैं " संजीत जी, छत्तीसगढ़ के लिए चर्चा के डोमने नेम की बात है तो उसको इस तरह से समझने की जरूरत है कि अगर कोई किराए के मकान में रह रहा है और आप अगर उस घर को खरीद लेते हैं तो उस घर पर तो अधिकार आपका ही होगा न? अब रही बात चर्चा करने वालों की तो जिसने भी इसकी शुरुआत की होगी वह भी पहले नए रहे होंगे, क्या कोई यह सोचकर अपना घर किसी के हवाले कर सकता है क्या कि वह घर चलाने में सक्षम नहीं है? ऐसा कोई कभी नहीं करता है। अपने घर को संवारने के लिए हर इंसान मेहनत करता है। अगर छत्तीसगढ़ के ब्लागरों ने एक चिट्ठा चर्चा के डोमन नेम को खरीदा है तो जरूर इसको सफल किया जा सकता है। कहते हैं न कि मन में हो विश्वास हम कामयाब एक दिन वाली बात यहां भी है। रही बात सद्भावना की तो अगर कोई शालीनता से कुछ मांगता है तो उसे देने से कम से कम हम भारतीय इंकार नहीं करते हैं, यह बात आप भी जानते हैं। यह कोई विवाद का मुद्दा नहीं है।"
इसके बाद अनूप शुक्ल जी का कथन है " कल यह रपट पढ़ी! अच्छा लगा कि इत्ते लोग मिले-जुले। इतने लोगों का मिलना-जुलना आत्मीय संबंधों के चलते ही हो सकता है। यह सोच बड़ी अच्छी है कि छ्द्म नाम से लिखने और दुष्प्रचार करने वालों से होने वाले खतरों की बात हुई। लेकिन असल बात यह है कि क्या इसके बाद छ्द्म नाम से लिखने वाले लोग अपना लिखना बन्द कर देंगे? यह बात बड़ी सुकूनदेह लगी कि वहां संजीत और अनिल जैसे लोग भी हैं जो सही को सही और गलत को गलत कहने का मन रखते हैं। वर्ना तो मुझे यह सूचना भी मिली थी कि थूक रहा है मुझ पर आधे से ज्यादा ब्लागजगत और पूरा छत्तीसगढ़. छत्तीसगढ़ कमन्युटी ब्लॉग, कार्यशाला और राष्ट्रीय ब्लॉगर मीट के लिये मंगलकामनायें। कमन्युटी ब्लॉग शायद आगे और लोगों को भी दिशा दे। चिट्ठाचर्चा के लिये आपकी सोच का आभारी हूं। मुझे सच में यह अंदाजा नहीं है/था कि इसके क्या मतलब हैं! नाम खरीदना चाहिये या नहीं। चिट्ठाचर्चा मेरे अकेले की जागीर नहीं है। मुझसे ज्यादा मेरे साथियों ने इसे पांच साल तक निरन्तर सहयोग करके यहां इस मुकाम तक पहुंचाया। जब यह शुरू किया गया था तब न डोमेन की सोची थी और न अभी सोचते हैं। जब चर्चा शुरु की गयी थी तब कुल जमा ब्लॉग सौ भी नहीं थे। आज अठारह हजार पार हो गये। चिट्ठाचर्चा नाम तो कोई भी ले सकता है। चिट्ठाचर्चा.कॉम है, .ओर्ग है, .इन है। लेकिन यह भी तो देखा जाना चाहिये कि यह लिया किसलिये जा रहा है। छ्त्तीसगढ़ के साथियों ने पिछली बार विस्फ़ोट करते हुये बताया कि चौदह जनवरी से चर्चा शुरू होगी। मैंने चौदह को देखा तो वहां प्रायोजक न मिलने के कारण चिट्ठाचर्चा स्थगित करने की बात कही थी। क्या विस्फ़ोट के आगे की गतिविधियां प्रायोजकों के भरोसे थीं/हैं? कल बात हुई कि चिट्ठाचर्चा नीलाम किया जायेगा। जिसकी बोली सबसे ज्यादा लगेगी उसको यह दे दिया जायेगा। इससे चिट्ठाचर्चा.कॉम से जुड़े लोगों की गंभीरता पता चलती है। उद्देश्य जब पैसा कमाना ही है तो फ़िर वहां भाईचारे की बात करते समय यह टैग भी साथ नत्थी करना चाहिये कि भाईचारा है, अपनापा है लेकिन आर्थिक नुकसान नहीं होना चाहिये। सबके अपने-अपने उसूल होते हैं। मैंने लगातार तीन साल फ़ुरसतिया.कॉम डोमेन लिया और अपने तमाम तकनीकी साथियों की सलाह को नजरअन्दाज करते हुये हिन्दिनी.कॉम/फ़ुरसतिया को छोड़कर फ़ुरसतिया.कॉम पर शिफ़्ट नहीं किया सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये कि इससे हमारे ईस्वामी का मन दुखेगा। इन्दौर का मालवी बालक जिससे मैं आजतक मिला नहीं उसने प्रेम से मुझे हिन्दिनी साइट पर लिखने के लिये कहा उसे छोड़कर अपनी साइट बनाने की बात ही मुझे असहज करती है। चिट्ठाचर्चा डोमेन नाम लेने के बारे में मसिजीवी ने लिखा भी कि यह साइबर स्क्वैटिंग के अंतर्गत आता है। लेकिन यह सब बातें उन पर लागू होती हैं जहां बात नैतिकता और आदर्शों की होती है। जहां बात नीलामी और आर्थिक लाभ की हो वहां व्यापारिक आदर्श और समझदारी की ही बातें सही कहलायेंगी। इस लिहाज से किसी का भी चिट्ठाचर्चा डोमेन नाम लेकर उससे पैसा कमाना गलत नहीं कहलायेगा। बल्कि अवसर चूकना बेवकूफ़ी ही कहलायेगा। यह बात तो मुझे समझनी ही होगी कि हल्दी और नीम के पेटेन्ट पर यह कहकर बिलबिलाना कि इनका तो हम सदियों से प्रयोग कर रहे हैं, तथा चिट्ठाचर्चा.कॉम डोमेन लेने पर यह रोना रोना कि हम पांच साल से चिट्ठाचर्चा करते आ रहे हैं इसलिये हमारा हक बनता है ये दो अलग बातें हैं और इनमें अन्तर है। चिट्ठाचर्चा.कॉम जिन लोगों ने खरीदा उनसे अनुरोध है कि वे इसका सही में चर्चा करने में उपयोग करके दिखायें। चर्चा में वह काम करके दिखायें जो इससे पहले कभी नहीं हुये। किसी नीलामी में भाग लेने का हमारा कोई इरादा नहीं है। मुझे पूरी आशा है कि अनिल पुसदकर, संजीत त्रिपाठी और शरदकाकोस जैसे सबको साथ लेकर चलने की ईमानदार मंशा वाले साथियों के साथ छतीसगढ़ के ब्लॉगर साथी अपने सभी उद्देश्य पूरे कर सकेंगे। लेकिन एक शिकायत यह भी है कि रायपुरिये क्या अपने गुरु/चेला (अनिल पुसदकर/संजीत त्रिपाठी) का घर बसाने के बारे में कुछ क्यों नहीं सोचते! यह भी जरूरी काम है।"
इसके बाद आई अनिल पुसदकर जी की टिप्पणी जिसमें वे कहते हैं कि " बहुत बढिया संजीत्।सब देख रहा हूं,सुन रहा हूं और पढ भी रहा हूं,एक फ़ायनल रिपोर्ट लगता है मुझे भी पोस्ट करनी पड़ेगी,जो मैं करना नही चाह्ता था।"
मै इस पोस्ट की लंबाई को देखते हुए इतना ही डालकर पोस्ट करने जा ही रहा था कि इतने में अजय कुमार झा की टिप्पणी आ गई। यहां रखने लायक लगी तो उसे भी ले लिया।
अजय कुमार झा जी कहते हैं " हालांकि अब इन विवादों में कुछ कहने या अब तो कहूं कि पढने का भी मन नहीं करता मगर कभी कभी चुप रहना खुद को बहुत दिनों तक बेचैन किए रहता है । आप इतने दिनों बाद आए सुखद रहा , मगर आते ही एकांगी दृष्टिकोण रखा ये आश्चर्यचकित करने वाला रहा मेरे लिए । क्या विवाद सिर्फ़ चिट्ठाचर्चा नाम या उसके खरीदे बेचे जाने को लेकर है। हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि नहीं है , चिट्ठाचर्चा ब्लोग बेशक चर्चा का सबसे पहले शुरू हुआ सबसे पुराना मंच है , तो क्या इस लिहाज से उसकी और उससे जुडे तमाम लोगों की ये जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि आगे आ रहे चर्चाकारों के लिए मार्गदर्श्क की भूमिका निभाती , बजाए इसके कि चर्चा के नाम पर कभी किसी की निजि छीछालेदारी तो कभी जाने अनजाने किसी पोस्ट या टिप्पणी को छपने और नहीं छपने देने जैसे कार्य करके उसे अखाडा बना देने जैसी स्थिति में ला देने जैसी बात होने देते रहना । मैं पहले भी कह चुका हूं कि हम में से कोई भी ऐसा नहीं है कि जिसका घरबार इस ब्लोग्गिंग से चल रहा है न ही इससे किसी को कोई जायदाद मिल घट रही है तो फ़िर .......फ़िर तो बस वही आपसी स्नेह, शायद हिंदी के प्रति आपका प्रेम , मित्रता ..जिसके लिये सबसे बडी बात है आपकी हमारी नीयत का साफ़ होना जो देर सवेर हमारे श्ब्दों से निकल ही आता है । रही बात अनाम लोगों की तो इतना तो तय है कि वे कहीं बाहर से नहीं है जो हैं हमारे इसी ब्लोग समाज से हैं । चिट्ठाचर्चा ब्लोग हो या चिट्ठाचर्चा .कौम दोनों यदि आपना काम अच्छी नीयत से करेंगे तो दोनों को प्यार मिलता रहेगा और अभी तो न जाने कितने चर्चा .कौम बनने हैं या कि बनेंगे । और रही बात समय समय की , बहुत पुरानी बात है , या कि उस वक्त और बात थी जैसी बातों की , तो समय के साथ तो गांधी नेहरू भी प्रासंगिक और आप्रासंगिक होते रहे हैं , एक शेर मुझे भी याद आ रहा है चमन को सींचने में पत्तियां कुछ झड गई होंगी , वो तोहमत लगा रहे हैं बेफ़वाई का , मगर जिन्होंने रौंद डाला कलियों को , वही कर रहे हैं दावा, चमन की रहनुमाई का ॥ सवाल सिर्फ़ नीयत का है ....नीयत का और कुछ नहीं "
अब फिलहाल मुझे लग रहा है कि इन टिप्पणियों पर अपने विचार मैं अगली पोस्ट में दूं नहीं तो इन टिप्पणियों के संग्रहनुमा इस पोस्ट की लंबाई और भी ज्यादा हो जाएगी।
26 January 2010
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12 टिप्पणी:
sanjeet
ek prashn haen kyaa bloging socail networking haen jahaan ham sab kewal ek dusrae sae milnae kae liyae hi likhtey haen
har meet mae kuch naa kuch hotaa haen aur har meet dus ko apaas mae jodtee haen lekin us judaav kaa bloging oar kyaa asar hotaa haen prashn yae haen
kyaa judaav is liyae jarurii haen ki group banaya jaayae taaki saamjik muddo par baat ho yaa is liaye ki samaaj mae jo uthaapatak hotee haen , parivaaro mae jo kheechataani hotee blog par bhi ho
आज छुट्टी के दिन, रेडियो सुनते सुनते बड़े आराम से ब्लॉगस पर नज़र दौड़ा रहा हूँ
आपकी इस पोस्ट्स का अंदाज़ पसंद आया। बात चिट्ठाचर्चा से खिसकते हुए टिप्पणीचर्चा पर आ गई :-)
पोस्ट खतम करते करते जगजीत सिंह जी की गज़ल गूँज उठी थी
सरकती जाए हैं रुख से नकाब आहिस्ता -आहिस्ता
टिप्पणी खतम करते करते आखिरी लाईनें भी आ गईं
वो बड़ी बेदर्दी से सर काटे ...और मैं कहूं उनसे
हुजुर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता -आहिस्ता
बी एस पाबला
विनीत जी, अनूप जी की बात से सहमति है। डोमेन नेम का मामला यहां भावनात्मक है, उसे व्यापारिक रखना है या नहीं यह तो पाबला जी ही बता सकते हैं क्योंकि खुद उन्होंने ही इसे खरीदा है। अभी और बहुत से डोमेन आने वाले हैं, यूनिकोड में भी डोमेन लिखना शुरू करने/प्रक्रिया सुनने में आ रही है। तो क्या हर तरह के डोमेन को खरीदते रहने में ही तल्लीन रहा जाय....उसी में लगे रहा जाय।
यह एक तरह की जानबूझकर की गई नादानी ही कही जायगी कि डोमेन लिया जाय, खरीदा जाय फिर बेचा जाय.....सार्थक समय को निरर्थक बातों में बरबाद किया जाय।
इस तरह 'डोमेन-ले,डोमेन- दे' वाली प्रक्रिया मुझे एक तरह से ब्लॉगिंग का एक और खरपतवार लग रहा है। अभी तक तो बेनामी टिप्पणीयां,गुटबाजी, व्यक्तिगत लांछन लगाने वाली पोस्टें, बेबात के ही वाहवाही करने सी टिप्पणीयां आदि ही ब्लॉगिंग के नेगेटिव एलीमेन्टस थे....अब उसमें 'डोमेन ले, डोमेन- दे' वाले एलीमेन्ट को घुसेडना नेगेटिविटी को बढाना देना ही होगा।
पाबला जी ने कुछ गलत नहीं किया है लेकिन क्या इन्हीं सब चीजों में व्यस्त रहना उचित होगा ?
और बात छोडिये, ये अनिल जी और संजीत जी के बारे में अनूप जी के मुंह से क्या सुन रहा हूँ कि दोनों ही अविवाहित हैं....दोनों के ही घर बसाने को लेकर आप लोग गंभीरता से क्यों नहीं सोचते। बोलो तो यहां मुंम्बई से अनिल जी के लिये से एक महाराष्ट्रीयन पोरगी भेजूं :)
अनिल भाउ, काय महण्ता...लग्न करायच कि नाही....अहो समद वय असच घालवणार का...काही तरी विचार करा राव :)
चूंकि रायपुर मेरी ननिहाल है, सो संजीत जी के लिये रायपुर से ही कुछ टांके भिडवाता हूँ, अभी भी मेरी वहां कुछ कुछ पूछ पछोर चलती है :)
इंतजार रहेगा
@रचना जी आपने चर्चा के एक मुद्दे को ही पूरी चर्चा समझ लिया ?
असोशिएशन बनाने के मूल कारण पर भी ध्यान दीजिये
संजीत ने पर्सनल कमेंट के लिए माना किया है लेकिन अनुरोध है आप हिन्दी ब्लॉग जगत में हैं तो टिप्पणी भी हिन्दी(देवनागरी) में दें तो उचित लगेगा
लेकिन अनुरोध है आप हिन्दी ब्लॉग जगत में हैं तो टिप्पणी भी हिन्दी(देवनागरी) में दें तो उचित लगेगा
jaruri nahin samjhtee kyuki kahin bhi roman mae likhaen par pratibandh nahin daekha haen sabkae computer par devnagri likhnae ki suvidha har samay upsthit ho yae jaruri nahin haen aur bloging mae maktaa ityadi tay karnae kaa adhikar vyaktigat rehtaa haen
agar sanjeet nahin chahtey haen wo kament delete kar saktey haen moderation kae baad jo kament publish hotaa haen usmae blog maalik ki sehmati hotee hee haen
डोमेन से लेकर बहू तक ? इस विस्तार के क्या कहने । ससुराल में आकर बहू को भी एक नया नाम धारण करना पडता है । कुल मिलाकर सबकी चिंता बेहतरी की है यह आशय तो समझ मे आया । यह चिंता जारी रहे यह कामना ।
@ रचना जी
मैंने यही निवेदन किया की जब आप ब्लॉग देवनागरी में लिखती हैं तो आपके पास यह सुविधा उपलब्ध है .
यह कोई बहुत बड़ा प्रयास नहीं है हर कम्प्युटर में यह किया जा सकता है .
इससे आपकी बात सशक्त रूप से पहुँचेगी क्योंकि बहुत सारे हिन्दी भाषी रोमन टिप्पणियाँ नहीं पढ़ते
संजीत भाई और विषयों की तरह यहां भी मठ और मठाधीश बनेंगे और टूटेंगे. ब्लाग की दुनिया में मै बहुत नया हुं मगर अलग-अलग ब्लाग्स पढ़्ते हुये लगा गुट्बाजी के चक्कर में घटिया को वाह-वाह करते कई लोग मिले. अगर हिंदी ब्लागजगत का जरा सा भी भला करने की इच्छा हम मे है तो अधकचरा लेखन की कड़ी आलोचना को प्राथमिकता देनी होगी चाहे वो कोई भी हो, आप ही सोचिये एक घटिया रचना के ठीक बाजू में आप की अनुसरण करती तस्वीर आपसे क्या कहती है.
अगर हम अच्छा लिखने वालों को तव्ज्जो देने लगे तो कौन कहां का है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
सिन्हा सर रहने दीजिये, जो समझदार होते हैं एक बार में ही समझ जाते हैं... शब्दों को पढ़ने से ही समझ में आ जाता है कि उनके बीच में क्या सोचा गया और लिखने वाले के मन में क्या है... सब साफ़ नज़र आ रहा है...
जय हिंद...
सतीश पंचम जी बात तो तब बने जब आप संजीत को मराठी पोरगी और अनिल जी को रायपुर की लड़की दिला दें। क्या कहते हैं संजीत और अनिल जी। टोटल नेशनल इंटिग्रेशन्। बाकी ये डोमेन ले डोमेन दे की बातें तो अपनी समझ से अभी बाहर हैं। जब समझ जायेगें तो अपनी राय जाहिर कर देगें।
नजर रखे हैं.
माना की अब ये एक गंभीर प्रश्न बन गया है
पर इस 50 तरह की विद्वता और सच झूठ के झगडे की बजाये इस मुद्दे पर अच्छाई और मासूमियत से हल निकाला जाना ज्यादा आसान है ।
इन कंटीली बातो में ब्लोगर्स बैठक की मिठास दब जा रही है ।
इस पर और कुछ कहना अपना वक़्त खराब करना ही है और अच्छा बहुत कुछ है कहने और करने को अब उसकी शुरुआत हो तो बेहतर । अब आप सब ज्यादा समझदार है आप सब जो चाहे करे ......
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