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11 February 2007

मेरे बारे मे

नाम मेरा संजीत त्रिपाठी है, जन्मा रायपुर, छत्तीसगढ़ मे। यहीं पला-बढ़ा,पढ़ा-लिखा और एक आम भारतीय की तरह जिस शहर में जन्मा और पला-बढ़ा वहीं ज़िन्दगी गुज़र रही है।

पैदा हुआ मैं एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में, दादा व पिता जी दोनो ही स्वतंत्रता सेनानी थे, दादाजी को देखा भी नही पर राष्ट्र और राष्ट्रीयता की बातें एक तरह से मुझे घुट्टी में ही मिली। घर में पिता व बड़े भाई साहब को पढ़ने का शौक था सो किताबों से अपनी भी दोस्ती बचपन से ही हो गई। आज भी पढ़ना ही ज्यादा होता है, लिखना बहुत कम।

मेरे बारे मे जितना कुछ मैं कह सकता हूं उस से ज्यादा और सही तो मुझसे जुड़े लोग ही कह पायेंगे…समझ नही पाता कि अपने बारे में क्या कहूं क्योंकि अपने आप को जानने समझने की प्रक्रिया जारी ही है…निरंतर फ़िर भी…
जितना मैंने अपने-आप को जाना-समझा…

"बुरा जो देखण मैं चला,बुरा ना मिलया कोय,
जो मन खोजा आपणा तो मुझसे बुरा ना कोय"

जितना विनम्र उतनी ही साफ़-कड़वी ज़ुबान भी…शांत पर ज़िद्दी,कभी-कभी अड़ियल होने के हद तक…

अक्सर बातचीत के दौरान हल्की-फ़ुल्की बातें करके माहौल को हल्का बनाए रख्नना पसंद है।

कभी-कभी ऐसा लगता है कि मैं समझदार हूं (ऐसी गलतफ़हमी अक्सर बार-बार हो जाती है)…वहीं कभी कभी दुसरी ओर ऐसा लगता है कि मैं अभी भी नासमझ हूं…दुनियादारी सीखने मे मुझे और भी समय लगेगा…(यह सोच एक मजाक लगे पर शायद यही सच है)।

भीड़ मे रहकर भी भीड़ से अलग रहना मुझे पसंद है……कभी-कभी सोचता हूं कि मैं जुदा हुं दुसरों से,पर मेरे आसपास का ताना-बाना जल्द ही मुझे इस बात का एहसास करवा देता है कि नहीं, मैं दुसरों से भिन्न नहीं बल्कि उनमें से ही एक हूं…!

"कर भला तो हो बुरा", जानें क्यों यह कहावत मुझ पर कुछ ज्यादा ही चरितार्थ होती है…करने जाता हूं किसी का भला,वापस लौटता हूं चार बातें सुनकर-अपनी बुराई लेकर…खैर…नेकी कर और दरिया में डाल…!

कभी लगता है कि मेरे अन्दर गुस्सा नाम की चीज् ही नहीं…लेकिन कभी-कभी यह भी लगता है कि मुझे बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है…भावुक इतना कि भावनात्मक संवाद सुनकर या पढ़कर आँखें डब-डबा जाती है…पर दुसरे ही पल इतना क्रूर भी कि किसी के नाखून उखाड़ने में भी संकोच ना हो…

भले ही रुपए-पैसे से धनी नहीं पर दोस्तों के मामले में जरुर धनी हूं…दोस्त ही यह एहसास करवाते हैं कि मैं उनके लिए भरोसेमंद हुं…, पर मैं निश्चित तौर से कह सकता हूं कि मैं भरोसेमंद नहीं…

बहुत ही रोमांटिक और स्वभाव से अंग्रेजी मे जिसे फ़्लर्ट और हिंदी मे रसिया कहा जाता है वह मुझ पर बिलकुल लागू होता है, यूं कहूं कि जहां देखी नारी वहां आंख मारी तो कुछ गलत नही होगा, अब ये अलग बात है कि आंख मारने जैसी हरकत नही कर पाता


स्वभाव में उत्सुकता कुछ ज्यादा ही है इसीलिए छात्र जीवन से पत्रकारिता की ओर झुकाव रहा सो पत्रकार बना भी,कुछ साल पत्रकार की भूमिका निभाई राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक से लेकर प्रादेशिक व लोकल अखबार में रहा और फ़िर व्यक्तिगत व सामयिक मज़बूरियों के चलते या दूसरे शब्दों मे कहूं तो अपनी शहर ना छोड़ पाने की कायरता के चलते पत्रकारिता से सन्यास ( इसे मैं सन्यास ही कहना चाहूंगा ) लेकर फ़िलहाल एक छोटे से व्यवसाय से जुड़ा हुआ हूं। यह अलग बात है कि बिज़नेस की आपाधापी के बीच मेरा पत्रकार मन कभी-कभी अपने-आप मे अजनबी सा मह्सूस करता है।

और हां,अक्सर जब कभी अपने अंदर कुछ उमड़ता-घुमड़ता हुआ सा लगता है,लगता है कि अंदर दिलो-दिमाग में कुछ है जिसे बाहर आना चाहिए,तब पेन अपने-आप कागज़ पर चलने लगता है और यही बात मुझे एहसास दिलाती है कि मैं कभी-कभी कुछ लिख लेता हूं…

"शब्द और मैं"
शब्दों का परिचय,
जैसे आत्मपरिचय…
मेरे शब्द!
मात्र शब्द नही हूं,
उनमें मैं स्वयं विराजता हूं,
बसता हूं
मैं ही अपना शब्द हूं,
शब्द ही मैं हूं !
निःसन्देह !
मैं अपने शब्द का पर्याय हूं,
मेरे शब्दों की सार्थकता पर लगा प्रश्नचिन्ह,
मेरे अस्तित्व को नकारता है…
मेरे अस्तित्व की तलाश,
मानो अर्थ की ही खोज है॥

इस सब के अलावा,बहुत से मौकों पर मैं इतना ज्यादा झुक जाता हुं कि लगे जैसे इस इंसान मे रीढ़ की हड्डी ही ना हो……पर मुझे लगताहै कि मुझमे वह सब कुट-कुट कर भरा हुआ है जिसे हम अंग्रेज़ी मे "ईगो" कह्ते हैं…

लब्बो-लुआब यह कि मैं एक आम भारतीय हूं जिसकी योग्यता भी सिर्फ़ यही है कि वह एक आम भारतीय है जिसे यह नहीं मालुम कि आम से ख़ास बनने के लिए क्या किया जाए फ़िर भी वह आम से
ख़ास बनने की कोशिश करता ही रहता है…।

मैं...
अंत्ययुग में जन्मा मैं,
थी अभिलाषा पितृजनों की,
पाकर ज्ञान "वेद" का बनूं मैं "संजय"!
बीता काल,हुआ मैं अखर्त,हुआ अखर्त बना वागीश,
ना बना मैं वाहक,पूर्वीण गुणों का !
ना ही बना मैं निर्वाहक,प्रतन संस्कृति का !
प्रतीक्षारत हुं नवाधार के,सृष्टि के नव-स्रजन हेतु !!
बना वसु को प्रतिसंगी,संक्षय की बेला में,
मोक्ष-संजन की प्रतीक्षा में,संजीनत होने को आतुर !
…………........मुमुक्षु मैं संजीत............…………

1 टिप्पणी:

Anonymous said...

aisa kuch hame bhi lagta hai.akhir hamare guru jo ho aap .

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शुक्रिया ।