एक
राम!
तुम भगवान न थे
तुम तो थे,प्रतीक मात्र
और हो!
दीन-हीन जनों के संबल का
विश्वास का!
उस धर्म-मर्यादित आचरण के
जिसके कारण तुमने भोगा
चौदह सालों का वनवास
और
उपहार मिला तुम्हे
सीता विछोह का
राम!
तुम भगवान न थे
तुम तो थे प्रतीक मात्र
और हो
पुत्र धर्म के
प्रजा के पालनहार सत्यनिष्ठ राजा के!
कौन कहता है तुम भगवान थे
तुम तो इंसान ही थे
तभी तो पूजा था तुमने शिव को!
ये और बात है कि तुम “आदर्श” थे
तुम्हारे कर्मों ने तुम्हे हमसे ऊंचा उठा दिया
इतना ऊंचा कि
तुम भगवान के समकक्ष हो गए
पूजे जाने लगे
भगवान कहलाने लगे
राम!
तुम इंसान ही क्यों न रहे!
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दो
राम!
तुम्हारा नाम
लक्ष्मण या कुछ और होता
तो क्या
तुम वह सब ना करते
जो तुमने किया!
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तीन
राम!
कभी-कभी
तो लगता है
तुम भगवान ही थे
इंसान नही
क्योंकि
जिस सीता के लिए
तुमने लंका का नाश किया
उसे!
उसे ही तुमने त्याग दिया
इंसान तो ऐसा नहीं कर सकता!
5 टिप्पणी:
सही लिखा है बन्धु,
राम भगवान नही थे, राम इन्सान भी नही थी, राम राम ही नही थी। राम अयोध्या मे नही थे पत्थर में नही थे।
राम तो हर व्यक्ति के रोम रोम में है।
बेहतरीन रचना
achchi likhi hain sahi jis seeta ke liye ladhe use hi chod diya
तुम्हारे कर्मों ने तुम्हे हमसे ऊंचा उठा दिया
इतना ऊंचा कि
तुम भगवान के समकक्ष हो गए
पूजे जाने लगे ----
बहुत उँची सोच... आगे प्रश्न भी कर डाला कि अगर राम न होते तो क्या सब कर पाते....
एक और गहरी बात कर डाली..... आपने तो कमाल कर दिया.... कर्म पुरुष इंसान को भगवान से ऊपर उठा दिया...भगवान राम ने सीता को छोड़ दिया लेकिन इंसान शायद ऐसा न करते...
अद्भुत विचार है... इंसान तो ऐसा नही करता... बहुत सुंदर।
सही कहा आपने बिल्कुल... मगर यहीं तो अन्तर है। ऐसा करने के लिए जो दृढ निश्चय चाहिए वह तो इंसान में नहीं होता... हम तो कब से एक ही से मुक्ति पाने कि कोशिश कर रहे हैं मगर नहीं हो पा रहा है... लगता है भगवान् बनाना पड़ेगा इसके लिए... हा हा हा।
Wow! Amazing thoughts.......Your poems are very rich and thoughtful !
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