पिछली पोस्ट छत्तीसगढ़ का मीडिया बिकाऊ? स्वामी अग्निवेश और रमेश नैयर जी, जवाब किनसे मिलेगा, में जैसा कि उल्लेख किया था कि देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक ललित सुरजन जी ने देशबंधु में लिखे अपने लेख में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर जी से अपेक्षा की थी कि वे स्वामी अग्निवेश के कथन ( जैसा कि साहित्यिक पत्रिका हंस के सितंबर अंक में छपा है) पर कुछ कहें क्योंकि इस कथन में स्वामी अग्निवेश ने रमेश नैयर जी को कोट करते हुए जो कहा था उससे यह प्रतिध्वनित होता है कि नैयर जी, स्वामी अग्निवेश के कथन " हमें रायपुर और दंतेवाड़ा में लगा कि हम पत्रकारों से बात नहीं कर रहे बल्कि बड़े-बड़े उद्योगपतियों के दलालों से बात कर रहे हैं। खरीदे हुए लोग। मुख्यमंत्री के समझाए हुए लोग, सब के सब बिके हुए लगे।" से सहमत हैं।
छपे उद्धरण के अनुसार या कहें कि स्वामी अग्निवेश के कथनानुसार तब उन्हें रमेश नैयर जी ने कहा था कि "स्वामी जी यहां पत्रकारिता का बहुत बुरा हाल है। लेकिन फिर भी आप लोग आ गए हैं तो आगे बढ़िए?''
ललित सुरजन जी का यह लेख प्रकाशित होने के बाद छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता जगत में काफी कुछ मौखिक हलचल हुई। अधिकांश लोगों को रमेश नैयर जी के पक्ष को जानने की उत्सुकता थी।
सोमवार को देशबंधु अखबार के संपादकीय पेज पर रमेश नैयर जी ने अपना पक्ष रखा। साभार देशबंधु वह यहां प्रस्तुत है।
छत्तीसगढ़ के मीडिया पर आक्षेप निंदनीय
रमेश नैयर
देशबन्धु के 16 सितम्बर के अंक में 'स्वामी अग्निवेश और छत्तीसगढ़ का मीडिया' शीर्षक से ललित सुरजन के लेख में मुझसे अपेक्षा की गई कि मेरा हवाला देते हुए स्वामी जी ने मीडिया पर जो टिप्पणी की है, उस पर अपना पक्ष स्पष्ट करूं।
स्वामी अग्निवेश से मेरा पुराना परिचय है। जब उन्होंने हरियाणा के ईंट भट्ठों में बंधक बना कर रखे गए छत्तीसगढ़ के मजदूरों की मुक्ति के लिए आन्दोलन चलाया था तो पत्रकार के नाते उनसे मेरा संवाद हुआ करता था।
आपातकाल के दौरान जब वह जनता पार्टी में सक्रिय थे, तब भी उनसे संवाद था। छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में चले छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के आन्दोलन के दौरान अग्निवेश जी से मुलाकातें होती रही थीं। चंडीगढ़ और दिल्ली में 1983 से 1993 के वर्षों में उनसे संपर्क रहा, परंतु उसके बाद न उन्होंने मुझसे कोई संपर्क किया और न मुझे भी उनसे मिलने का कोई अवसर प्राप्त हुआ।
लम्बे अंतराल के बाद रायपुर के प्रेस क्लब में प्रो. यशपाल, नारायण देसाई, सुश्री भट्ट और प्रो. बनवारीलाल सहित जो जत्था आया था उसमें स्वामी अग्निवेश भी थे। प्रेस क्लब में एक श्रोता तथा दर्शक के रूप में मैं भी उपस्थित था। पुराना परिचय होने के नाते स्वामी अग्निवेश से नमस्कार का सार्वजनिक आदान-प्रदान हुआ था, परंतु अलग से कोई बात या मुलाकात नहीं हुई, टाउन हॉल की सभा में मैं महज एक दर्शक-श्रोता था। वहां कुछ युवकों ने जो उपद्रव किया वह मुझे अच्छा नहीं लगा था। चूंकि वरिष्ठ संपादक ललित सुरजन ने स्वयं मंच पर पहुंचकर केयूर भूषण की ढाल बनने के साथ ही अशांत युवकों से संयम बरतने के लिए कहा था, इसलिए मुझे कुछ कहने की जरूरत महसूस नहीं हुई। वहां भी स्वामी अग्निवेश से मेरी कोई अलग मुलाकात नहीं हुई।
स्वामी जी से रायपुर में मेरी तीसरी सार्वजनिक भेंट साधना न्यूज द्वारा आयोजित परिसंवाद में हुई थी। नए सर्किट हाऊस में आयोजित उस परिसंवाद का सजीव प्रसारण (लाइव टेलीकास्ट) किया गया था। वहां मैंने उस समय कुछ युवकों को शांत रहने की अपील अवश्य की थी जब स्वामी अग्निवेश ने लगभग चेतावनी के लहजे में छत्तीसगढ़ के पत्रकारों से कहा था कि यदि वे चेरूकुरी आााद के साथ मारे गए पत्रकार हेमचंद्र पाण्डेय की हत्या का प्रतिकार नहीं करते तो कल उनका भी एक-एक कर वही हश्र हो सकता है। स्वामी अग्निवेश का वह वाक्य मुझे भी अप्रिय लगा था और अपनी अप्रसन्नता सार्वजनिक रूप से मैंने व्यक्त की थी। फिर भी मैंने कु्रध्द युवकों से अपील की थी कि स्वामी जी के विचारों से असहमति अपनी जगह पर है, परंतु उन्हें बोलने देना चाहिए। अपने आधार वक्तव्य में उसी मंच से मैंने स्पष्ट रूप से कहा था कि जो कथित मानवाधिकारवादी पुलिस के अथवा अन्य सुरक्षाकर्मियों के हाथों मारे जाने वाले नक्सलियों को जनसंहार बताते हैं और सुरक्षाकर्मियों तथा मुखबिरी के संदेह के आधार पर नक्सलियों द्वारा मारे जाते रहे आदिवासियों को अलक्षित कर देते हैं, वे भी संदेह की परिधि में आते हैं। पंचायतों और जनपद पंचायतों के निर्वाचित पदाधिकारियों की हत्याओं की भी उसी मंच में मैंने सार्वजनिक रूप से निंदा की थी। उस कार्यक्रम में पूर्व, कार्यक्रम के दौरान और उसके पश्चात भी मेरी स्वामी जी से कोई निजी बातचीत नहीं हुई थी। छत्तीसगढ़ के मीडिया पर उन तीनों सार्वजनिक मुलाकातों के दौरान मैंने कोई टिप्पणी नहीं की थी। दूरभाष पर स्वामी जी से कभी कोई संवाद नहीं हुआ।
इन आयोजनों से पूर्व पीयूसीएल के एक आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर की उपस्थिति में छत्तीसगढ़ के मीडिया पर मैंने अवश्य अपने विचार रखे थे। मैंने किसी किंतु-परंतु की गुंजाइश न रखते हुए साफ तौर पर कहा था कि छत्तीसगढ़ के पत्रकार विशेष रूप से वे संवाददाता जो नक्सली प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में जहां सुरक्षाकर्मी भी बड़ी संख्या में तैनात हैं, बहुत कठिन परिस्थितियों में साहसपूर्वक अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
मैंने स्वयं अपना जीवन श्रमजीवी पत्रकार के रूप में खपाया है। छत्तीसगढ़ के अन्य कुछ समाचार पत्रों की भांति देशबन्धु में भी मैंने कुछ समय वेतनभोगी पत्रकार के रूप में कार्य किया है। ललित सुरजन ने सदाशयतापूर्वक मुझे अपना पूर्व सहयोगी लिखा है। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता कई मायनों में बेहतर रही है। मैं चंडीगढ़ और दिल्ली में बेहतर वेतन एवं सुविधाएं मिलने के बावजूद छत्तीसगढ़ के सम्मोहन में बंधा हुआ यहां लौटता रहा हूं। स्वामी अग्निवेश के इस आक्षेप से मैं आहत हूं कि छत्तीसगढ क़े पत्रकारों में उद्योगपतियों के दलाल या मुख्यमंत्री के समझाए हुए लोग हैं। स्वामी जी के जिस प्रकाशित वक्तव्य की पंक्तियां ललित सुरजनजी ने अपने लेख में उध्दृत की हैं उन्होंने मुझे संतप्त किया है। छत्तीसगढ़ के जिन पत्रकारों से स्वामी अग्निवेश का संवाद हुआ होगा उनको 'बिका हुआ' कहना निंदनीय है। मैं स्वयं इन शब्दों की भर्त्सना करता हूं।
यह सही है कि अन्य सभी संस्थाओं की भांति पत्रकारिता में भी मूल्यों की कुछ क्षरण हुआ है और उस पर पत्र-पत्रिकाओं में मैं भी लिखता रहा हूं। परंतु उस विषय पर स्वामी जी से मेरी कतई कोई चर्चा नहीं हुई। पिछली सदी के सातवें दशक से 1990-92 तक की स्वामी अग्निवेश की जो छवियां मेरी स्मृतियों में थीं उनके आधार पर मैं उनका प्रशंसक भी रहा। परंतु इधर जिस प्रकार वह माओवादियों अथवा नक्सलियों से जुड़ा राजनीति कर रहे हैं उससे उनकी भूमिका विवादास्पद हो गई है। लालगढ़ में वह उस मंच पर मौजूद थे जहां सुश्री ममता बनर्जी के साथ हिंसा के संगीन आरोपों से सने माओवादी भी उपस्थित थे। इधर स्वामी जी केन्द्र में सत्तारूढ़ यूपीए के कुछ नेताओं के प्रति अपनी आसक्ति खुल कर व्यक्त करने लगे हैं। इंडियन एक्सप्रेस के 15 सितम्बर के अंक में उन्होंने कांग्रेस के कुछ नेताओं की मुक्त प्रशंसा करते हुए कहा है कि जिस प्रकार अकबर शासन में नवरत्न थे उसी प्रकार यूपीए के ये नवरत्न हैं। इन नवरत्नों में स्वामी अग्निवेश ने प्रणव मुखर्जी और पी. चिदम्बरम को शामिल नहीं किया है। क्या इसलिए कि वे माओवादियों की हिंसा की आलोचना करते हुए कहते हैं कि उनका लक्ष्य बलपूर्वक सत्ता पर काबिज होना है? यदि स्वामी जी केन्द्र सरकार की सहमति से चरमपंथियों से संवाद के द्वारा कोई समाधान निकाल पाने में समर्थ हो जाते हैं तो देश को रक्तपात से मुक्ति मिलेगी और स्वामीजी को यश। परंतु मेरा निवेदन है कि हर रंग की दलीय राजनीति से निस्पृह मेरे जैसे सामान्य मसिजीवी को अपने किसी आग्रह के साथ न जोड़ें। यदि सरकारें बनाने या गिराने के लिए नक्सलवादियों का इस्तेमाल किया जाता है तो वह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। राजनीति को हर प्रकार के चरमपंथ से दूर रखना प्रत्येक विचारशील भारतीय का दायित्व है।
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अब रमेश नैयर जी का यह पक्ष जानने के बाद स्वामी अग्निवेश जी से कुछ सवाल करने का मन होता है।
स्वामी जी क्या, आप किसी के हवाले से कुछ भी कह देंगे? वह भी ऐसा कि किसी एक पत्रकार नहीं बल्कि समूचे प्रदेश की मीडिया को बिकाऊ कह देंगे?
स्वामी जी, ऐसे वक्त में जब आप खुद ही अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हों तब आप समूचे मीडिया के बारे में ऐसा कह देंगे, मीडिया जिसे जनता भले ही लाख गाली दे लेकिन आखिरकार विश्वास उसी पर करती है क्योंकि यही मीडिया है जो आप जैसे अविश्वसनीय होते जा रहे लोगों को भी उतना ही स्पेस देती है
जितना कि विश्वसनीय लोगों को।
21 September 2010
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2 टिप्पणी:
अब क्या कहेंगे ? क्या कोई और सम्पादकीय आएगी ? कोई और बताएगा अपने संबंधों के बारे में ???
- आशुतोष मिश्र
रमेश जी का साफ इनकार एक नयी बहस को जन्म देता है। बुद्धिजीवियों की एक "तथाकथित" लॉबी लाम बंद हो कर बस्तर के हालात और नक्सलवाद पर स्वयंभू विशेषज्ञों की तरह बयान देती है और देश भर में झूठा जनमत तैयार करने में अपना योगदान देती है उसकी नैतिकता और इरादों पर खुल कर चर्चा होनी चाहिये।
टीवी में बहुत पहले एक कार्यक्रम देखा था जिसमें एक स्वामि सत्य साई को चमत्कार से सोने का हार निकालते देखा था उसके बाद चमत्कार और अंधविश्वास के अंधकार पर लम्बी बहस हुई थी। संजीत जी आपने इस लेख के माध्यम से और नैय्यर जी के स्पष्टीकरण के बाद अग्निवेश जी की "सोने की चेन" का सच तो दिखा दिया लेकिन कहते हैं न कि हम उस देश के वासी हैं......:)
रहमान साहब के शब्दों में - जय हो।
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