स्वामी अग्निवेश, आज कौन नहीं जानता इन्हें देश में। विज्ञापन की भाषा में कहूं तो सिर्फ नाम ही काफी है।
छत्तीसगढ़ के देशबंधु पत्र समूह जिसका सबसे प्रमुख प्रकाशन दैनिक देशबंधु है,के प्रधान संपादक ललित सुरजन जी ने 16 सितंबर के अंक के संपादकीय पेज में स्वामी अग्निवेश और छत्तीसगढ़ का मीडिया शीर्षक से लेख लिखा।
लेख में वे लिखते हैं " साहित्यिक पत्रिका हंस ने 31 जुलाई को नई दिल्ली में एक विचार गोष्ठी आयोजित की। इसका विषय था- ''वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।'' जाहिर है कि यह गोष्ठी राज्य द्वारा की जा रही हिंसा (स्टेट टैरर) पर चर्चा करने के लिए थी। प्रमुख वक्ता स्वामी अग्निवेश थे। उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह हंस के सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित हुआ है। इस सुदीर्घ वक्तव्य में उन्होंने अपनी छत्तीसगढ़ यात्रा के अनुभव भी दर्ज किए हैं। उल्लेखनीय है कि देश के अनेक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसी वर्ष मई माह में छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के परिप्रेक्ष्य में एक शांति यात्रा का आयोजन किया था। इसमें सुप्रसिध्द गांधीवादी नारायण देसाई, प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर यशपाल, आजादी बचाओ आन्दोलन के प्रमुख नेता प्रोफेसर बनवारीलाल शर्मा इत्यादि के साथ स्वामी अग्निवेश भी थे। मैं यहां हंस में प्रकाशित स्वामी जी के वक्तव्य का एक अंश अक्षरश: उध्दृत कर रहा हूं- ''इस बीच एक बड़ी मजेदार बात हुई। रायपुर की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का नजारा बता दूं। हमें रायपुर और दंतेवाड़ा में लगा कि हम पत्रकारों से बात नहीं कर रहे बल्कि बड़े-बड़े उद्योगपतियों के दलालों से बात कर रहे हैं। खरीदे हुए लोग। मुख्यमंत्री के समझाए हुए लोग, सब के सब बिके हुए लगे। फिर भी हमने किसी तरह प्रेस कॉन्फ्रेंस की। बाद में रमेश नैयर जी ने बताया कि स्वामी जी यहां पत्रकारिता का बहुत बुरा हाल है। लेकिन फिर भी आप लोग आ गए हैं तो आगे बढ़िए?''
इसके कुछ और पैराग्राफ ( जिस संदर्भ में मैं यहां लिख रहा हूं उस संदर्भ में यही दो पैराग्राफ महत्वपूर्ण है इसलिये बाकी नहीं ले रहा) के बाद सुरजन जी अंत में लिखते हैं कि " अपने वक्तव्य में स्वामी अग्निवेश ने रमेश नैय्यर का जिक्र किया है। श्री नैय्यर पिछले पैंतालीस-छियालीस साल से पत्रकारिता में हैं। वे रायपुर के अनेक अखबारों में काम कर चुके हैं तथा मेरे पुराने मित्र होने के अलावा एक समय ''देशबन्धु'' में सहयोगी भी रह चुके हैं। उनमें किसी को भी अपना बना लेने का भरपूर कौशल है। इसीलिए बुनियादी तौर से संघ परिवार से जुड़े होने के बावजूद पीयूसीएल के मंच पर भी उसी सम्मान के साथ आमंत्रित कर लिए जाते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने ही पेशे की बुराई करेगा इस पर भरोसा तो नहीं होता, लेकिन जब सार्वजनिक तौर से स्वामी जी ने उनके हवाले से यह बात कही है तो मेरी ही नहीं, छत्तीसगढ़ के हर पत्रकार की नैय्यर जी से अपेक्षा होगी कि वे इस संबंध में अपनी स्थिति स्पष्ट करें।"
(इसी मुद्दे पर छत्तीसगढ़ प्रेस क्लब प्रेसीडेंट अनिल पुसदकर जी ने भी कुछ लिखा है, यहां देखें)
अब बात दोनों की होती है। एक तो यह कि स्वामी अग्निवेश जिनका नाम आज देश में हर वह आदमी जानता है जो देश को जानता है और वह भी जो रोजाना अखबार पढ़ता है। देश को जानने वाला इसलिए जानेगा कि स्वामी अग्निवेश ने इतने सालों में अपने कार्यों से जो विश्वसनीयता अर्जित की है वह आज उनका नाम है। रोजाना अखबार पढ़ने वाला उनका नाम इसलिए जानेगा कि आज हर दूसरी खबर में वह इसलिए छाए हुए हैं क्योंकि वे नक्सलियों के साथ मध्यस्थता करने का प्रस्ताव लेकर "डटे" हुए हैं। भले ही इसी एक मुद्दे के चलते वे इतने बरसों की कमाई हुई अपनी वह विश्वसनीयता खो रहे हैं जिस विश्वसनीयता की बदौलत आज उन्हें देश जानता है।
बाबा और स्वामियों के इस देश में वर्तमान में एक स्वामी अग्निवेश जी हैं जो अपनी थोड़ी बहुत विश्वसनीयता बचाए हुए चल रहे हैं, नहीं तो अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन नहीं हुए कि टीवी चैनल पर साधु-संतों का स्टिंग ऑपरेशन इस देश की जनता ने देखा। गनीमत है कि स्वामी अग्निवेश इस तरह के साधु-संतों में शुमार न तो होते हैं न किए जाते हैं।
इंटरनेट पर स्वामी अग्निवेश के नाम से हिंदी और अंग्रेजी दोनो ही भाषा में जानकारी एकत्र करने की कोशिश करने पर बकायदा उनके नाम की वेबसाइट मिली। यहां और आश्चर्य हुआ कि किसी प्रोफेशनल की तरह उनका सीवी/CV जिसे रिज्यूमे भी कहते हैं , मौजूद है। वह सीवी जिसे प्रोफेशनल्स नौकरी या प्रोजेक्ट पाने के लिए अप्लाई करने के लिए कहीं भेजते या उपयोग करते हैं।
लेकिन एक मुख्य बात यह है कि वह सज्जन जो खुद अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं ( ऐसा उनके साथ पिछले दिनों छत्तीसगढ़ आए उनके साथियों ने ही उन्हें लिखे अपने पत्र में कहा है कि वे स्व्यंभू मुखिया बन रहे हैं)
वे सज्जन, किसी एक राज्य छत्तीसगढ़ की मीडिया को, किसी एक पत्रकार नहीं, किसी एक चैनल नहीं, किसी एक अखबार को नहीं बल्कि समूचे पत्रकारिता जगत को ही बिकाऊ कह रहे हों और बकौल उनके जब वे ऐसा कह रहे हैं तो उसी समय देश भर में छत्तीसगढ़ की वर्तमान पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करने वाली शख्सियतों में से एक श्री रमेश नैयर जी कह रहे हैं कि " स्वामी जी यहां पत्रकारिता का बहुत बुरा हाल है। लेकिन फिर भी आप लोग आ गए हैं तो आगे बढ़िए?''
आश्चर्य होता है कि जिन रमेश नैयर जी से छत्तीसगढ़ की एक पूरी पीढ़ी ने पत्रकारिता का ककहरा सीखा हो, वे ऐसा कहेंगे……?
ललित सुरजन जी ने अपने लेख में सिर्फ रमेश नैयर जी से अपेक्षा की है कि वे अपनी स्थिति स्पष्ट करें लेकिन बतौर एक पाठक और एक छत्तीसढ़िया के साथ भारतीय होने के कारण रमेश नैयर जी के साथ-साथ स्वामी अग्निवेश जी से भी अपेक्षा करूंगा कि वे अपनी स्थिति स्पष्ट करें। बावजूद इसके कि मैं इन दोनों के सामने ही अकिंचन हूं लेकिन एक नागरिक हूं, एक पाठक हूं। जवाब की अपेक्षा दोनों से ही कर सकता हूं।
पता नहीं आप इन दोनों में से किनसे जवाब की अपेक्षा करेंगे, करेंगे भी या नहीं…? बताएं……
17 September 2010
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18 टिप्पणी:
नैयरजी का तो पता नहीं, पर स्वामी अग्निवेश इस पर दुबारा टिप्पणी करने से रहे. ऐसे लोग जानते हैं कि कहाँ पर झूठ को दोबारा नहीं बोलना चाहिए.
स्वामी जी यहां पत्रकारिता का बहुत बुरा हाल है। लेकिन फिर भी आप लोग आ गए हैं तो आगे बढ़िए?''
पत्रकारिता के सियान मन अइसन गोठ बात करही तेन बने बात नोहे ग भई बुरा हाल हे ग त कईसन म बने हाल होही तेकर रददा बतावव बबा हो
दोनों महानु्भावों(?) से जवाब की अपेक्षा है…
स्वामी अग्निवेश तो आजकल नक्सलियों के प्रवक्ता, मध्यस्थ, खैरख्वाह सभी कुछ बने हुए हैं… ऊपर से वह "भगवा" भी पहनते हैं जिसे चिदम्बरम साहब हाल ही में आतंकवादी कलर कह चुके हैं।
मुख्य मसला पत्रकारों को "बिकाऊ" कहने का है… यह तो माना जा सकता है कि "अधिकतर" समाचार पत्र समूहों के मालिक बिकाऊ हैं, लेकिन सभी पत्रकार बिकाऊ हैं यह पचाना कठिन है…
अग्निवेश के शब्द "…बड़े-बड़े उद्योगपतियों के दलालों से बात कर रहे हैं। खरीदे हुए लोग। मुख्यमंत्री के समझाए हुए लोग, सब के सब बिके हुए लगे…" खुद ही उनकी झल्लाहट बयान करते हैं…। हो सकता है कि यह उनका व्यक्तिगत मत हो, लेकिन ऐसा ही व्यक्तिगत मत पत्रकारों का भी तो हो सकता है कि "अग्निवेश भी तो देश-संविधान विरोधी किसी खास शक्ति के हाथों बिक गये हैं…", तब क्या होगा?
छत्तीसगढ का मीडिया बिकाऊ होता तो उन्हे अपने घर मे अपने सिर पर नही बिठाता।उन्हे जो सम्मान अपने उसी दौरे मे मिला है जिसके संस्मरण वे सुना रहे हैं,उसके लिये मीडिया को धन्यवाद देना चाहिये वर्ना छत्तीसगढ का मीडिया ही नही आम आदमी भी जान चुका है जलती स्मस्याओं मे हाथ धोकर महान बनने वाले पाखण्डियों को।
दोनों ही महानुभावों को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए. उनकी ऐसी सोच और ऐसे वक्तव्य पर अफ़सोस है.
At a TISS seminar, i shared my personal experiences while they were discussing National Media manipulation in Kashmir:
1. Collector in Dantewada managed to alienate me by simply spreading the rumour that i'm Himanshu's agent. Only Nayi Duniya published news of my agitation for proper nutrition & hygiene for tribal orphans in aastha Gurukul.
2. Later, i learnt that Dainik Bhaskar (Jagdalpur) and Aaj Ki Jandhara also published stories.
3. Editor of a top Hindi daily advised to leave Raipur the same evening i hold the press conference, else i may face police harassment.
4. Senior journalists left abruptly from my press conference on Aug.28. Youngsters filed reports, small pieces appeared next day.
5. Hitavada published a big story just after a discusion over phone.
6. None of the national media correspondents covered the story despite agreeying with the agitation.
to this, senior fellows commented that there's no such thing as "FREE PRESS", just "FREE INDIVIDUAL JOURNALIST". In this scenario, we should desist from painting entire media in one colour.
But to be fair to all activists who risk their lives for greater common good, general response from mediapersons in dantewada/jagdalpur/raipur is pretty demoralising.
स्वामी अग्निवेश खुद अपने गले में केंद्र और नक्सलियों के बीच मध्यस्थ बनने का पट्टा लगाकर घूमने निकल पड़े। सुरजन जी ने सही लिखा है कि वे स्वयंभू मध्यस्थ है जिन्होंने बिना शर्तों के ही केंद्र से नक्सलियों को मनाने का वादा कर लिया था। लेकिन सुरजन जी ने पूरे राज्य के मीडिया पर लगे आरोप के बीच सिर्फ़ इतना कहकर पल्ला झाड़ लिया है कि अग्निवेश पर उन्होंने आठ कॉलम की रिपोर्ट छापी थी।
प्रेस कॉफ़्रेंस और अग्निवेश जी के बेतुके आरोप पर वस्तुस्थिति अनिल पुसदकर जी ने बयान कर दी है। भरोसा है कि नैयर जी भी जल्द इस मामले में सफ़ाई देंगे।
बौद्धिकता का लबादा को ओढ़े रहने की विवशता कुछ ऐसी ही होती है।
ऐती जाथंव ता ओती जाथे देती जाथंव ता दोती ओ ... वाली बात नैयर जी और अन्य छत्तीसगढ़ के अग्निवेश सहयोगियों की हो गई है, कुछ लोग प्रत्यच सहयोग दे रहे हैं कुछ मारल सपोर्ट कर रहे हैं, क्या कहें.
आपने बिल्कुल सही कहा जब भी कोई जन आंदोलन प्रभाव मे आता है ऐसे लोग कूदकर नेतृत्व देने पहुँच जाते हैं और ऐसा प्रदर्शित करने लगते हैं, मानो वह आन्दोलन उन्ही के द्वारा खडा किया गया हो । जब भी कोई उच्च स्तर का मसला हो बिना बुलाए अपनी उपस्थिति देकर ऐसा जताने का प्रयास शुरु हो जाता है जैसे उनके बिना कोई काम हो ही नही सकता । बेवजह की बयानबाजी कर चर्चा मे बने रहना इनका खास शगल होता है । यदि स्वामी अग्निवेश जी ने यह बयान नही दिया होता तो आप और हम इम तरह उनकी चर्चा नही कर रहे होते ।
पत्रकारिता में सभी महान हो यह उसी तरह नही हो सकता जैसे किसी अन्य प्रोफेशन में सभी महापुरुष नही होते .लेकिन छत्तीसगढ़ की पूरी पत्रकारिता को पतित बताना रमेश नैयर के बडबोलेपन का उदाहरण है .उनकी प्रतिभा के बारे में सुरजन जी ने सिर्फ संकेत दिया है .एक समूचे राज्य की पत्रकारिता पर ऐसी टिप्पणी की मै इसलिए भी रमेश नय्यर की भर्त्सना करता हूँ क्योकि मैंने छत्तीसगढ़ के पत्रकारों को सड़क पर उतर कर आन्दोलन करते देखा है .चाहे राजनारायण मिश्र पर सरकारी दमन हो या जनसत्ता के दफ्तर पर हमला .सरगुजा से लेकर दंतेवाडा तक पत्रकार सड़क पर उतरे. ललित सुरजन जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी इस मुद्दे पर अगली कतार में थे .विकास की अवधारणा पर बहस हो सकती है .पर न तो सरकार और न ही माओवादियों की बर्बर हिंसा का समर्थन किया जा सकता है .उन्हें मुख्यधारा में लेन का प्रयास स्वामी अग्निवेश करे पर नय्यर के साथ समूचे मीडिया को कठघरे में न खड़ा करे .संजीत त्रिपाठी और अनिल पुसदकर ने इसका विरोध आगे बढ़कर इसलिए भी किया है क्योकि वे छत्तीसगढ़ में पत्रकारों के आंदोलनों से जुड़े रहे है
हरि भजन करते हुए कपास औंटने लगना कोई नई बात नहीं. मीडिया मित्र बताते हैं कि ऐसा प्रासंगिक बने रहने के लिए किया जाता है. बहरहाल, उल्लिखित टिप्पणियां, खीझ और पूर्वग्रह से उपजी जान पड़ती हैं.
अग्निवेश को अपनी विश्ववनीयता की चिंता अधिक होनी चाहिये।
मैंने हमेशा कहा है कि बस्तर को या कि यहाँ की नक्सली समस्या और उसके कारणों को, या छतीसगढ की ही किसी समस्या को वही बेहतर समझ या महसूस कर सकता है जिसकी आत्मा यहाँ बसी हो। दिल्ली बंबई कलकत्ता और चैन्नई से जिन्हे भी बस्तर/छतीसगढ दिखता है वो अग्निवेश की तरह ही की टिप्पणी कर सकते हैं। इन्हे शर्म भी नहीं आती।
विरोध का कॉरपोरेट कल्चर इस देश में बन गया है। बडे बडे एन.जी.ओ विदेशी संस्थानों से मोटी रकम डकारते हैं जिसका प्रयोग बस्तर जैसी जगहों में लाल-आतंक के समर्थन में बैद्धिक प्रचार तथा सेमीनारों, प्रदर्शनों के आयोजनों के लिये होता है। बस्तर को छोडिये छतीसगढ को ही पिछडा राज्य मानने वाले इन स्वयंभू स्वामियों को कैसे बर्दाश्त होगा कि छतीसगढ के पत्रकार जागरूक हैं और समस्या के बीच जीते हुए उसे बेहतर समझने और सही रिपोर्टिंग करने की काबीलियत रखते हैं।
छतीसगढ के पत्रकार किसी स्वयंभू स्वामी से सार्टिफिकेट के मोहताज नहीं है। लाल आतंक के इस ताजा ताजा समर्थक से अवश्य मैं पूछना चाहूंगा कि मान्यवर आपको किसने समझाईश दी (?), किसने खरीदा (?)
छतीसगढ के पत्रकारों नें हमेशा नक्सलवाद पर "दोनों की पक्षों को ले कर चलने" का काम किया है तथा समस्या की सजग रिपोर्टिग की है। ग्राउंड जीरो पर काम करने वाले इन कलम के सच्चे प्रहरियों की मैं मुक्त हृदय से प्रशंसा करता हूँ।
इमेल पर प्राप्त अलोक पुतुल जी का कथन
प्रिय संजीत जी,
आपकी टिप्पणी पढ़ गया.
असल में मीडिया को गाली बकना एक फैशन की तरह हो गया है.
छत्तीसगढ़ में दलाल पत्रकारिता का हाल हम सब जानते हैं. पैसा और दारु लेकर बिकने वाले पत्रकारों की एक पूरी फौज यहां है. पे-न्यूज की लार टपकाने वाले अखबारों की भी कमी नहीं है. "कुछ अपने लिये कमा लो, कुछ हमारे लिये लेते आना" छाप अखबारों की संख्या भी कम नहीं है यहां. दलाली, ट्रांसफर-पोस्टिंग करके रातों-रात वारे-न्यारे करने वाले पत्रकारों को कौन नहीं जानता. अखबार की आड़ में क्या-क्या धंधा चल रहा है, यह क्या किसी से छुपा हुआ है ?
लेकिन यह सब होने के बाद भी अंततः व्यवस्था और समाज की गड़बड़ियां पत्रकारिता के सहारे ही बाहर आ रही हैं. छत्तीसगढ़ और खास तौर पर बस्तर के संदर्भ में बात करें तो यह मानने में हिचक नहीं है कि यहां कुछ पत्रकार खाउ-पकाउ-कमाउ हो सकते हैं लेकिन बस्तर में अपनी जान हथेली पर रख कर रोज खबरें लिखने वाले पत्रकारों की भी कमी नहीं है. जिन्होंने कस्बाई रिपोर्टिंग की है, उनको पता है कि आप मनमोहन सिंह को तो अपने अखबार में चाहे जितनी भी गालियां बक लें, वो आपका कुछ बिगाड़ने नहीं आएंगे लेकिन अपने इलाके के किसी सिपाही के खिलाफ लिख कर देखें, वो आपकी गरदन दबोच देगा. बस्तर में जब नक्सली, सलवा जुड़ूम, पुलिस, भ्रष्ट ठेकेदार और महाभ्रष्ट नेता अपनी-अपनी चला रहे हों, तो वहां अपने अखबार से 500 रुपये की तनख्वाह/कमीशन/मानदेय पा कर भी पत्रकार अपनी जान दांव पर लगा रहे हैं. ऐसे में पूरी पत्रकारिता को बिकाउ कहना एक गाली की तरह है.
सादर आपका
आलोक
इमेल पर मिली बृजेश चौबे जी की टिप्पणी
संजीत,
एक पाठक,एक नागरिक के लिहाज से तुम्हारा विचार पढ़ा। विचार कहीं से गलत नहीं हैं,पत्रकारिता की हमारी पीढ़ी ने वाकई नैयर जी व सुरजन जी से सब कुछ सीखा है। मै नैयर जी का पक्ष नहीं ले रहा हूं,जहां तक व्यक्तिगत तौर पर भी उन्हे जानता हूं वे पत्रकारों और पत्रकारिता के खिलाफ तो कतई ऐसा नहीं कह सकते। भले ही वे कहना कुछ और चाह रहें होंगे,कह कुछ और गए होंगे। हां इतना जरूर है कि वे प्रबंधन के खिलाफ जरूर रहे हैं इसलिए कि पत्रकारों पर हावी होते प्रबंधन के खिलाफ हमेशा नाराज रहा करते थे। शायद उनकी मंशा भी यही रही होगी कि प्रबंधन के दबाव में पत्रकारिता दबकर रह गई है और अब पहले जैसी पत्रकारिता नहीं रही है। हां इतना जरूर है कि एक पत्रकार के नाते मै भी चाहूंगा कि छत्तीसगढ़ की वर्तमान पत्रकारिता में इस प्रकार की बातें कतई न आए।
ब्रजेश चौबे
आलोक पुतुल की बातों से सहमत हूं । व्यवहारिक बात कही है । विवाद के पीछे का सच तो यह है कि मेरे रहते बुद्धिजीवि बाहर से क्यों बुलाये गये , जो उसी वक्त जाहिर भी कर दिया गया था । मौका चाहिए था आगे भी कुछ कहने बोलने का जो मिल ही गया । इतिहास खंगाले तो पता चलेगा बस्तर में चल रहे आतंक को शुरुवाती दौर से कौन - कितना सपोर्ट करता आ रहा है । स्वामी अग्निवेश हों या ऐसे ही कोई अन्य वेशधारी हों कौन उनको लेकर घूमता - घुमाता था । पत्थर फ़ेंकने से पहले लोगों को अपने बारे में जरूर ध्यान होना चाहिए ।
TesT
Hamne yeh article do baar padha samajhne ke liye, jo hum samajh paaye, ki ek kah rahein hai "Media bikaau hai", to dusre kah rahein hain "Yahan Patrakarita ka bahut buraa haal hai". Yeh dono statement kisi specific time aur context (sandarbh) mein kaha gaya hai. Aam baatchit mein bhi hum kahte hai "...state/vyakti bahut corrupt hai" par hum aisi baatein public domain ya forum mein nahi karte. Hamare mind conditioned hue hai ya hum cultured log hain. Thik hai naa? Jahan tak hum Dantewada mein in bade logo ki visit ke news follow kar rahein hain, aam janta aur saath mein patrkar agar kisi press conference mein sawaal jawab karne ke dauran apni limit ya dignity paar karein aur us sandarbh mein kisi interview mein koi bhi vyakti twarit ghati ghatna ko quote n quote kah de aur newspaper use chaap de to yeh situation khadi hoti hai. Vaise media (channel ityadi), newspaper bikaau nahi kahenge par kis bute par aur kis ki awaaz bolte hain yeh har koi jaanta hai. Is baat se to koi inkaar nahi karega. Jahan tak hame baat samajh aati hai vyakti bikaau ho sakta hai profession kaise? Ya yeh samjhe jiski maaliki uski awaaz to yeh to sadiyon se hua aur jis samaaj ko hum dekh rahein hain to uski rachna aur pehchaan hi yahi hai.
Yeh alag baat hai ki aise log aayenge aur koshish karenge to Rajya ko to aavbhagat karni padegi, aur jo yeh na aate to yeh press conference hi na hoti aur na hi yeh baat hoti. Iska arth yeh hai ki kuch samay ke liye Rajya shaant ho jaye har tarah se, koi BSF/CRPF ya army nahi, koi udyog nahi un sensitive jagahon par, jitne licence/permission diye hain udyog ke liye sab par moratorium laga dein, aur in sab ke saath kuch samay ke liye apni soch aur action dono par bhi. Kuch samay ke liye keval unhe sochne aur jine dein, log apne paon par kulhadi nahi maarte aur apne jine khane ki vyavastha insaan ne khud karni bahut pahle sikh li hai.
Baat shuru hui thi media aur patrakarita ki to ek baat maani chahiye ki jab se yeh muddaa State se uth kar national muddaa bana aur situation State vs Central hui, Rajya mein is vivaad aur mudde par kam hi khabar chapi, aur woh bhi itni limited ki kahan kya hua is jaankari se jyaada kuch nahi. Yeh itna indicator hi kaafi hai ki Rajya mein patrakar aur patrakarita dono sensitive hain, bikaau nahi!
यह हंस में मैने भी पढ़ा और मुझे यकीन नही हुआ कि वे ऐसा कह सक्ते हैं । बात स्प्ष्ट होनी ही चाहिये ।
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