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16 April 2010

शौचालय कम मोबाइल ज्यादा!

भई यह अपन नहीं कह रहे। यह तो कह रही है संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रपट। इसमें कहा गया है कि आंकड़ों के मुताबिक  भारत में  54.5 करोड़ मोबाइल फोन हैं जिससे देश की 45 फीसदी जनसंख्या की जरुरत पूरी होती है।

अब देश में शौचालयों का हाल देखा जाए तो 2008 तक 36.6 करोड़ शौचालय थे जिनसे 31 फीसदी जनसंख्या की जरुरत पूरी होती है।
क्यों  ऐसा नहीं हो सकता कि जिस जगह मोबाइल कंपनियों को टॉवर लगाने की इजाज़त दी जाए उस इलाके में उन्हें एक सार्वजनिक शौचालय बनाना अनिवार्य किया जाए लाइसेंस की शर्तों के तहत।

कहां है देश में सीएसआर/कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व ( CSR/ Corporate social responsibility)

15 टिप्पणी:

Crazy Blogger said...

kyaa baat hai!

मनोज कुमार said...

सुझाव तो बहुत ही अच्छा है।

ZEAL said...

They are not focused on the basic necessities.

mamta said...

हाँ , आज हमने भी ये खबर पढ़ी थी ।

Gyan Dutt Pandey said...

जिस जगह मोबाइल कंपनियों को टॉवर लगाने की इजाज़त दी जाए उस इलाके में उन्हें एक सार्वजनिक शौचालय बनाना अनिवार्य किया जाए लाइसेंस की शर्तों के तहत।

ओह, तब बाघ कौन बचायेगा?! :)

Gyan Dutt Pandey said...

बाघ बचाने को एक बार का एडवर्टिजमेण्ट खर्च है। बाकी कोई जवाबदेही नहीं। यहां तो सार्वजनिक शौचालय चलाने और साफ रखने की जहमत है! :)

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

ज्ञानदत्त जी की बात पढकर सोच रहा हू कि सच मे कितना आसान है न हम लोगो को बेवकूफ़ बनाना..

अनूप शुक्ल said...

सुझाव पर अमल करना चाहिये!

नरेश सोनी said...

सुझाव बुरा नहीं है।

saloni said...

baat to sahi kahi aapne

kshama said...

Sujhav waqayi achha hai..lekin mumbai jaisi jaghon pe sarkar shauchalay banati hai punarvasit logon ke liye aur yah log usebhi godam ki tarah kirayepar chadha dete hain!

rashmi ravija said...

गंभीरता से इस समस्या के बारे में सोचना चाहिए....आपका सुझाव भी अच्छा है...

आनंद said...

खबर तो मैंने भी पढ़ी है। पर इस तुलना का मतलब समझ में नहीं आया। शौचालय कम हैं। मोबाइल फोन ज्‍यादा हैं। यह दोनों बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। इनमें कहीं भी कोई संबंध या विरोधाभास नहीं दिखाई पड़ता। तुलना ऐसे हो सकती है‍ कि बिजली कनेक्‍शन वाले घरों की तुलना में मोबाइल वाले घरों की संख्‍या ज्‍यादा/कम है। या साक्षरता से, प्रति व्‍यक्ति आय से मोबाइलों की संख्‍या का कोई संबंध निकाला जा सकता है।

इस खबर से क्‍या निष्‍कर्ष निकलता है? क्‍या यह कि बाहर मैदान में टट्टी करने वाला व्‍यक्ति भी मोबाइल रखता है? लेकिन इसमें यह भी लोचा है कि एक घर में एक शौचालय हो, जिसमें छह या सात मोबाइलधारी व्‍यक्ति टट्टी करते हों। यूरिनल या पाखाने प्रति व्‍यक्ति के लिए पृथक-पृथक नहीं बनते। वह तो सार्वजनिक या अनेक व्‍यक्तियों के उपयोग के लिए होते हैं, जबकि मोबाइल आम तौर पर एक व्‍यक्ति के लिए एक हो सकता है।

इसलिए ऐसी खबरों को पढ़कर देश/देशवासियों की खुशहाली या बदहाली के बारे में राय बनाना बेवकूफी है।

- आनंद

ZEAL said...

omg Anand...You are impossible !

haste haste bura haal ho gaya

प्रवीण पाण्डेय said...

हा हा हा

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आपकी राय बहुत ही महत्वपूर्ण है।
अत: टिप्पणी कर अपनी राय से अवगत कराते रहें।
शुक्रिया ।