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14 April 2010

माओवाद के शहरी समर्थक अब तो विचार करें - दिवाकर मुक्तिबोध

सिर्फ एक दशक की बात करें। बीते दस सालों में देश में नक्सली हिंसा की अनेक घटनाएं हुई, अनेकों जवान मारे गए, पुलिस अधिकारी भी खेत रहे और न जाने कितने मासूम आदिवासियों की जानें गई लेकिन सबसे ज्यादा विचलित करने वाली घटना दंतेवाड़ा जिले के चिंतलनार के जंगल में बसी एक छोटी सी बस्ती ताड़मेटला के निकट घटित हुई। नक्सली हमले में सेन्ट्रल रिजर्व पुलिस के 76 जवानों के मारे जाने की घटना से पूरे देश में मानो भूकंप सा आ गया। इतना विचलन, इतनी उद्विग्नता, इतनी उत्तेजना और इतना रोष इसके पहले किसी घटना के बाद नजर नहीं आया था हालांकि नक्सलियों ने कई वीभत्स हत्याकांड किए थे। याद करें रानीबोदली में छत्तीसगढ़ सशस्त्र पुलिस के शिविर में नक्सलियों ने धावा बोला और नींद में गाफिल जवानों पर गोलियां बरसाई और शिविर में आग लगा दी। जो बचे वे जिंदा जल मरे। इस घटना में 55 जवान मारे गए थे। एर्राबोर के आगे ओरपलमेटा में तो 28 जवानों की लाशें 48 घंटे तक पड़ी रहीं। एर्राबोर सलवा जुडूम राहत शिविर में 32 आदिवासियों को भून दिया गया और शिविर में आग लगा दी। वीभत्स नरसंहार की और कितनी घटनाएं गिनायी जाएं? दुर्दांत हत्यारों की तरह नक्सलियों ने आदिवासी महिलाओं, पुरुषों, बच्चों तथा अद्र्घसैनिक बलों व पुलिस के जवानों को गोलियों से भूना, उनके हाथ-पैर काटे, सिर धड़ से अलग कर दिया, आंखें निकाल लीं तथा जिंदा जला दिया। प्रत्येक घटना के बाद हथियार व फौजी बूटों के साथ अन्य सामग्री की लूट तो होती ही रही है। ताड़मेटला में भी यही हुआ, लेकिन इस भयावह हत्याकांड ने पूरे देश को इसलिए विचलित किया क्योंकि धैर्य ने जवाब दे दिया, बर्दाश्त करने की इंतिहा हो गई। लोग गुस्से में हैं और नक्सलियों का समूल नाश चाहते हैं। अब यह केन्द्र और नक्सल प्रभावित राज्य सरकारों को तय करना है कि नक्सली हिंसा का जवाब उन्हें किस तरह देना है। आपरेशन ग्रीन हंट बंद करके कूटनीतिक चालों से या फिर आपरेशन को अधिक तेज करते हुए, बदली हुई रणनीति के साथ वायुसेना का उपयोग करके? या फिर उन्हें किसी तरह बातचीत के लिए तैयार करके?


ताड़मेटला घटना के बाद पिछले एक हफ्ते में मीडिया के जरिए विचारों का जो निचोड़ सामने आया है, वह केन्द्र और राज्य सरकारों विशेषकर छत्तीसगढ़ को नई 'युद्घ-नीति' बनाने में उपयोगी साबित हो सकता है। नक्सलियों के निशाने पर फिलहाल छत्तीसगढ़ नम्बर एक पर है। झारखंड, उड़ीसा, प.बंगाल, आंध्रप्रदेश एवं महाराष्ट्र का नम्बर बाद में आता है। ध्यान बंटाने के लिए एवं छत्तीसगढ़ में रणनीतिक तैयारियों को देखते हुए संभव है नक्सली वारदात कहीं और करें। आपरेशन ग्रीन हंट को बंद करने के लिए सरकार को झुकाने वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। हो सकता है- अपने शहरी नेटवर्क के दम पर किसी शहर में कोई वारदात कर डाले? नक्सलियों ने अभी शहरों की ओर रुख नहीं किया है पर जैसी उनकी तैयारियां हैं, उसे देखते हुए शायद वह दिन दूर नहीं है क्योंकि उनका एक प्रमुख मकसद हिंसा के जरिए आतंक एवं भय फैलाना है। जंगल तो भयभीत है ही, शहरों की बारी कभी भी आ सकती है। इस समय बुद्घिजीवियों, रक्षा विशेषज्ञों, मानवाधिकारवादियों, केन्द्र एवं सरकार के नुमाइंदों तथा आम लोगों के बीच विचार मंथन एवं बहस का दौर चल रहा है। ताड़मेटला घटना में कहां और किससे चूक हुई, इस पर काफी बातें हो चुकी हैं। सरकार ने जांच के आदेश दिए। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने इस्तीफे की पेशकश की। ताड़मेटला में तैनात सीआरपीएफ जंगलवार में प्रशिक्षित थी या नहीं थी, इस पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला। और भी बातें काफी प्रचारित-प्रसारित हुईं। लेकिन मुख्य बहस इस बात पर केन्द्रित है कि माओवादियों की आक्रामकता को देखते हुए वायुसेना का उपयोग करना चाहिए या नहीं। यह दलील दी गई जम्मू-कश्मीर एवं उत्तर-पूर्व के अशांत राज्यों में शांति कायम करने सेना का इस्तेमाल पहले भी हो चुका है अत: अब नक्सल समस्या जो इस समय देश के सामने सर्वाधिक गंभीर समस्या है, के खिलाफ सेना क्यों नहीं? बहरहाल रणनीति में बदलाव, प्रशिक्षण, अधिकाधिक संसाधनों का उपयोग, खुफिया तंत्र की मजबूती एवं विस्तार, अद्र्घसैनिक बलों के साथ स्थानीय पुलिस की तैनाती तथा दोनों के मध्य बेहतर तालमेल पर जोर दिया गया है। देखें आगे क्या होता है।


दंतेवाड़ा से आई यह खबर वेदनामय है कि सीआरपीएफ मैदान छोड़ रही है। ताड़मेटला घटना से वह बुरी तरह आतंकित एवं भयभीत है। लेकिन इन जवानों से ज्यादा भयभीत तो छत्तीसगढ़ की पुलिस है जिसे बस्तर के घने जंगलों से डर लगता है। घटनाएं ही ऐसी हुई हैं कि बस्तर में तैनाती मतलब काले पानी की सजा। मुठभेड़ या हमले की स्थिति में जान जाने की शत-प्रतिशत गारंटी। स्थानीय पुलिस के चूंकि होश फाख्ता हैं हालांकि धुर जंगलों में उनकी नहीं अद्र्घसैनिक बल की तैनाती है, लिहाजा उनकी हौसलाअफजाई करने, उनके खून में उबाल लाने वरिष्ठ अधिकारियों को आगे आने की जरूरत है। बेहतर तो यही है कि फिलहाल दंतेवाड़ा को नक्सली अभियान का मुख्यालय बनाया जाए और जब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो जाता डीजीपी या उनके समकक्ष उच्चाधिकारी वहां बैठकर कमान संभालें। यह कितनी विचित्र और दयनीय स्थिति है कि डीजीपी विश्वरंजन ताड़मेटला तब पहुंचे जब घटना घटे 48 घंटे बी चुके थे।


वायुसेना के इस्तेमाल के प्रश्न के बाद दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है क्या आपरेशन ग्रीन हंट बंद कर देना चाहिए? इसमें दो राय नहीं कि इस आपरेशन से नक्सली बौखला गए हैं, मारे जा रहे हैं, गिरफ्तार हो रहे हैं इसीलिए बची-खुची सारी ताकत से वे ऐसी वारदातों को अंजाम दे रहे हैं ताकि विवश होकर सरकारों को आपरेशन ग्रीन हंट बंद करना पड़े। प्रमुख नक्सली नेता किशनजी सहित भाकपा माओवादी पोलित ब्यूरो के तमाम नेता लगातार इस मांग को दुहरा रहे हैं और अधिकाधिक हिंसा की चेतावनी दे रहे हैं। अभी 12 मार्च को नईदिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पी.के.सावंत, न्यायमूर्ति एच.सुरेश, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पूर्व अध्यक्ष मोहिनी गिरि, पूर्व आईपीएस के सुब्रमण्यम तथा प्रमुख जीव विज्ञानी डॉ.पी.एम.भार्गव के एक निर्णायक मंडल ने आपरेशन ग्रीन हंट के मुद्दे पर जनसुनवाई के दौरान सरकार से आपरेशन पर तुरंत रोक लगाने तथा स्थानीय आबादी से वार्ता शुरू करने की अपील की है।


यह आश्चर्य की बात है कि बेइंतिहा हिंसा के बावजूद नक्सली विचारधारा, बशर्ते इसे विचारधारा माना जाए, को समाज के एक ऐसे वर्ग का खुला समर्थन मिल रहा है जो बुद्घिजीवी एवं संवेदनशील कहलाता है तथा जो हमेशा मार्गदर्शक की भूमिका में रहता आया है। नक्सलियों के लिए शहरों में बसे ऐसे लोगों का समर्थन ऐसे टॉनिक की तरह है जो उन्हें नैतिक बल प्रदान करता है। उनका यह रवैया जो प्रवृत्ति बनता जा रहा है, गहन चिंता का विषय है। वर्षों से हिंसा का तांडव मचाने वाले, बन्दूक की नोक पर सत्ता पर कब्जा करने का ख्वाब देखने वाले और लोकतंत्र को चुनौती देने वाले किसी माफी के हकदार नहीं। इसलिए अब शहरी समर्थक भले ही वे कितने भी बड़े बुद्घिजीवी क्यों न हो, इन हिंसक घटनाओं के लिए बराबरी के जिम्मेदार हैं। मानवता के इन सहअपराधियों को भी माफ नहीं किया जा सकता लिहाजा पुलिस को इन पर हाथ डालने में संकोच नहीं करना चाहिए।


इसमें संदेह नहीं कि लड़ाई लंबी है। बीते 35-40 वर्षों नक्सली जड़े इतनी दूर-दूर तक फैल गई कि उन्हें काटने में वक्त लगेगा। जैसा कि गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने कहा है- खिलाफ अभियान में राज्यों की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी। आंध्रप्रदेश के जंगलों से नक्सलियों का सफाया मूलत: वहां की पुलिस ने ही किया था। अत: छत्तीसगढ़ सरकार को भी कमर कसनी होगी। भाषा, हथियार, संसाधनों की समस्याएं अपनी जगह हैं, महत्वपूर्ण हैं साहस का संचार एवं आदिवासी जनता के साथ तालमेल एवं उनका विश्वास। यदि सलवा जुडूम शिविर में 50 हजार से अधिक लोग रह सकते हैं तो 5 लाख क्यों नहीं? इससे बस्तर खासकर दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर एवं कांकेर जिले के गहन नक्सल प्रभावित गांवों के आदिवासियों की पहचान हो सकेगी। जुडूम के जरिए यदि यह पहचान हुई तो नक्सली एवं संघम सदस्य अलग-थलग पड़ जाएंगे और फिर उनकी पहचान कठिन नहीं। इससे पुलिस को आपरेशन ग्रीन हंट में आसानी होगी। इस युद्घ में यदि वायुसेना का भी उपयोग होता है तो जान-माल का नुकसान कम से कम होगा। कोई भी युद्घ बगैर बलिदान के सम्पूर्ण नहीं होता। यद्यपि यह दुखद है किंतु इसके सिवाय कोई चारा भी तो नहीं।


दिवाकर मुक्तिबोध


लेखक वरिष्ठ पत्रकार व रायपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक आज की जनधारा के संपादक हैं।

6 टिप्पणी:

मिहिरभोज said...

नक्सलवाद देश के खिलाफ लङाई है और इसका समर्थन किसी भी हालत मैं देश द्रोह से कम नहीं

कडुवासच said...

.... प्रभावशाली अभिव्यक्ति, प्रसंशनीय प्रस्तुति!!!

अनामिका की सदायें ...... said...

sach kaha aapne jo buddhijivi margdarshak hai aaj ki tareekh me vo bhi isi hinsa ka samarthan karne wale desh-drohi hi kehlaye jane chaahiye aur saza milni chahiye.
ek marmik vishay. acchha laga padhkar.

36solutions said...

आदरणीय मैं आपके विचारों से सहमत हूं. आपने अंमित पैराग्राफ में सलवा जुडूम शिविरों में पांच लाख आदिवासियों को पनाह देने का सुझाव दिया है इस संभावना से जुडूम विरोधी पहले से ही घबरा रहे हैं इसीलिये उनके द्वारा जुडूम शिविरों का विरोध किया जा रहा है. क्‍योंकि वे जानते हैं कि इससे दूध और पानी में अंतर करना आसान हो जावेगा.
किन्‍तु इन शिविरों में बिना लूट खसोट बेहतर सुविधाओं की संभावनांए बहुत कम है सरकार को जूडूम शिविरों की विशेष जवाबदारी लेनी चाहिए व समय समय पर वहां रहने वालों की समस्‍याओं व उनके स्‍वाभाविक जीवन का सामाजिक अंकेक्षण भी कराना चाहिए व जनता के बीच उस सच को लाना चाहिए नहीं तो संगीनों के साये में जीवन अजायबघर में आदिम जिन्‍दगी प्रतीत होगी.

36solutions said...

आदरणीय मैं आपके विचारों से सहमत हूं. आपने अंमित पैराग्राफ में सलवा जुडूम शिविरों में पांच लाख आदिवासियों को पनाह देने का सुझाव दिया है इस संभावना से जुडूम विरोधी पहले से ही घबरा रहे हैं इसीलिये उनके द्वारा जुडूम शिविरों का विरोध किया जा रहा है. क्‍योंकि वे जानते हैं कि इससे दूध और पानी में अंतर करना आसान हो जावेगा.
किन्‍तु इन शिविरों में बिना लूट खसोट बेहतर सुविधाओं की संभावनांए बहुत कम है सरकार को जूडूम शिविरों की विशेष जवाबदारी लेनी चाहिए व समय समय पर वहां रहने वालों की समस्‍याओं व उनके स्‍वाभाविक जीवन का सामाजिक अंकेक्षण भी कराना चाहिए व जनता के बीच उस सच को लाना चाहिए नहीं तो संगीनों के साये में जीवन अजायबघर में आदिम जिन्‍दगी प्रतीत होगी.

anjeev pandey said...

sanjeev tiwari ji ki pratikriya bilkul sahi hai. mera manana hai ki shiviro mei hi nahi, vikas ki dhara se judne vale sabhi ke liye vikas ka marg prashasht hona chahiye. maine ek baar shiviro ka daura kar likha tha ki agar in shiviro mei vikas nahi pahuchi to bastar ko ek naya vidroh jhelna padega.
anjeev

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