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18 October 2007

गरबा का जलवा

गरबा का जलवा


हमारे आज के युवा वर्ग को ( लेखक खुद इस वर्ग में ही शामिल है) धर्म से उतना मतलब नही है जितना कि उससे जुड़े अन्य आयोजनों से।बतौर उदाहरण साफ़ नज़र आता है नवरात्रि मे होने वाले रास-गरबा या डंडिया महोत्सवों के दौरान उनमे युवाओं की हिस्सेदारी, चाहे वो लड़के हो या लड़कियां।दर-असल रास-गरबा या डांडिया अब सिर्फ़ धार्मिक आयोजन नही रह गया है।यह पिछले कुछ सालों से बदला है, फ़ैशन के साथ मांसलता के प्रदर्शन में, एंजॉयमेंट और फ़न में( इस फ़न की परिभाषा अलग अलग उम्र वर्ग के लिए अलग अलग है), साथ ही यह बदला है एक व्यवसाय मे भी।

आज का गुजरात नौवीं शताब्दी में चार भागों में बंटा हुआ था, सौराष्ट्र, कच्छ, आनर्ता (उत्तरी गुजरात) और लाट ( दक्षिणी गुजरात)। इन सभी हिस्सों के अलग अलग लोकनृत्य थे जिनके आधार पर हम कह सकते हैं कि आज गुजरात के लोकनृत्यों में गरबा, लास्या, रासलीला, डाँडिया रास, दीपक नृत्य, पणिहारी, टिप्पनी और झकोलिया प्रमुख है। अब सवाल यह उठता है कि करीब करीब मिलती जुलती शैली के बाद भी सिर्फ़ गरबा या डांडिया की ही नेशनल या इंटरनेशनल छवि क्यों बनी। शायद इसके पीछे इसका आसान होना, बिना एसेसरीज़ या अतिरिक्त उपकरणों-साधनों के किया जा सकना आदि प्रमुख कारण है। इसके अलावा और भी कारण हैं।


शुरुआत विदेशों से

रास गरबा या डांडिया महोत्सवों के आयोजन के वर्तमान स्वरूपों को पूरे तौर पर देशी नही कहा जा सकता। ऐसे आयोजनों की शुरुआत असल हुई थी विदेशों में, जहां बसे भारतीयों का संगठन अपनी संतानों, नई पीढ़ी को अपने धर्म, संस्कृति, परंपरा से परिचित कराने और स्नेह मिलन के लिए ही ऐसे आयोजन करता रहा है। चूंकि वहां बसे अधिकांश भारतीय मेहनतकश वर्ग से थे इसलिए ऐसे आयोजनों का आर्थिक खर्च उठाने के लिए कोई न कोई स्पॉन्सर्स तलाश लेते रहे।यही बात दिखाई जाती रही है हमारे सिनेमा के रुपहले पर्दे पर । बस इसी बात ने यहां भी क्लिक किया और धीरे धीरे यहां अपने देश मे भी रास-गरबा को लेकर ऐसे आयोजनों की शुरुआत हुई जो कि तामझाम और व्यावसायिकता से परिपूर्ण थे। वहीं युवाओं के बीच ऐसे आयोजनों का क्रेज़ बढ़ने के पीछे सबसे बड़ा कारण रहा है, नौ दिन-रात बंदिशों से मुक्ति, अलस्सुबह घर लौटो तो ज्यादा सवाल जवाब घर मे नही होते
भला ऐसे कौन से मां-बाप हैं जो अपनी संतान की मां दुर्गा की भक्ति पर सवाल उठाएं या शंका जाहिर करें।
( हालांकि अब पिछले कुछ सालों से माता पिता अपनी संतानो या घरवाले नवरात्रि के दिनो में अपने घर के सदस्यों की जासूसी भी करवाने लगे हैं)

गरबा की मार्केटिंग

खैर, अपने यहां देखें तो गरबा के मूल स्थान गुजरात के कई शहरों में ऐसे आयोजन होते हैं पर वहां सबसे ज्यादा और भव्य आयोजन अहमदाबाद मे होते हैं। गरबा का आयोजन गुजरात के बाद अगर किसी दूसरी जगह भव्य पैमाने पर होता है तो वह है मुंबई। इसके पीछे शायद गुजरातियों का मुंबई मे अच्छी खासी संख्या मे होना भी एक कारण हो। मुंबई मे तो कार्पोरेट स्तर पर रास-गरबा के आयोजन होते है जो रात भर चलते हैं।कुछ साल पहले ऐसे ही आयोजन मे हिस्सेदारी कर सुपर स्टार अमिताभ बच्चन की तत्कालीन कंपनी ए बी सी एल होम करते हाथ जला बैठी थी अर्थात घाटे(?) मे रही थी। मुंबई में बड़े और भव्य पैमाने पर गरबा आयोजित करने वाली करीब पचास से ज्यादा कंपनियां हैं जबकि मंझोले और छोटे स्तर की इवेंट मैनेजमेंट कंपनियां तकरीबन सौ से ज्याद होंगी है। इन कंपनियों की लागत करोड़ो में पहुंचती हैं। स्वाभाविक है कि यह कंपनियां खुद अकेले ही सारा खर्चा नहीं उठाती होंगी।

मार्केटिंग के इस दौर में गरबा की मार्केटिंग क्यों नही हो सकती रास गरबा की मार्केटिंग के तहत तलाशे जाते हैं स्पॉन्सर्स और फ़िर होता यह है कि गरबा स्थल पर सॉफ़्टड्रिंक से लेकर फ़ूड और पीने का पानी भी ऑफ़िशियल होता है। हो सकता है कुछ सालों बाद कपड़ों का भी ऑफ़िशियल ब्रांड रहे कि आपने फ़लां कंपनी के कपड़े पहने हो तभी तो आप यहां गरबा करने आ सकते हैं अन्यथा नही। गरबा स्थल पर अपने उत्पादों का स्टॉल लगाने बड़ी बड़ी कंपनियों मे होड़ लगती है। ऐसे आयोजनों के एंट्री पास की कीमत पांच सौ रुपए से लेकर दस हजार रुपए होती है। फ़ैमिली पास की कीमत का अंदाज़ आप लगाते रहिए। इसके बावजूद अक्सर छपाए गए पास कम पड़ जाते हैं क्यों? इसके पीछे भी अलग कारण है।

पहले नवरात्रि मे होने वाले आयोजन अधिकतर गुजराती समाज ही करवाता था चाहें वह कहीं भी आयोजित हो। इन आयोजनों के पीछे मूल भावना गरबा नृत्य के माध्यम से आराध्य देवी की उपासना तो होती ही थी लेकिन साथ ही इसके पीछे एक और भावना थी सामाजिक मेल-मिलाप, परिचय बढ़ाने, सबंध मजबूत करने की। गरबा जैसे आयोजनों में ही घर के लिए लड़के-लड़कियां पसंद कर शादी तय कर दी जाती रही है। जबकि आजकल युवावर्ग के लिए रास-गरबा आयोजन का मतलब हो गया है मार्केटिंग, फ़ैशन, फ़्लर्ट, रोमांस और बहुतेरी जगहों पर सेक्स भी।

नवरात्रि पर लगभग हर बड़ी परिधान कंपनियां गरबा वीयर की नई रेंज लॉंच करती है जो कि देह दिखाऊ ज्यादा होती है और ऐसे गरबा वीयर की बिक्री भी ज्यादा होती है। परिधानों के अलावा एसेसरीज़ और कास्मेटिक्स की भी नई रेंज लॉंच होते हैं और जमकर बिकते हैं।

डांडिया के बहाने

पिछले कुछ सालों से गरबा बोले तो फ़्लर्ट, रोमांस या नैनमटक्का का बिलकुल सही मौका। ये पंचलाईन है आज के युवा की। अगर आपकी पहले से कोई सेटिंग है तो बल्ले-बल्ले, नवरात्रि के नौ दिन-रात आपकी उससे बेहिचक मुलाकात हो सकती है। डांडिया के बहाने मिलने आ जाना…बॉलीवुड का यह गाना फ़ालतू ही नही बना है। नाचते-नाचते थक जाएं तो दूर कोने में दोनो अकेले बैठकर थकान दूर कर सकते हैं और अगर आपकी कोई सेटिंग नही है तो पहले दिन ही सेटिंग कर डालिए, आपके पास आगे के आठ दिन तो है हीं, जिसमे विवाहित या अविवाहित वाला कोई बंधन नही है । एज़ नो बार, कास्ट नो बार वाला फ़ॉर्मूला यहां भी लागू होता है। जिस तरह विदेशों मे ब्राजील और अपने देश के गोवा में होने वाले कार्निवाल के दौरान कंडोम की खपत में अचानक बढ़ोत्तरी हो जाती है वही हाल अहमदाबाद, मुंबई या अन्य बड़े शहरों में नवरात्रि के दौरान भी होता है। हममें से कुछेक को यह अतिश्योक्ति सा लगे पर यह हकीकत है।

छोटे शहरों या कस्बाई आयोजनों में भी बहुत हद तक उपरोक्त बातें लागू की जा सकती हैं पर अधिकतर यहां रास गरबा के बड़े पैमाने पर आयोजन के पीछे प्रमुख उद्देश्य होता है आयोजकों का अपना नाम चमकाना। अगर आयोजन सफ़ल हुआ तो यही आयोजक धीरे-धीरे इवेंट मैनेजमेंट का काम करते हैं या फ़िर समाजसेवी का चोला ओढ़ लेते हैं। बहरहाल, लू के थपेड़े रुपी कार्पोरेट गरबा महोत्सव के बीच ठंडी बयार के रुप में गुजराती समाज द्वारा करवाए जा रहे छोटे-छोटे गरबा उत्सव अभी भी मौजूद हैं जहां पारंपरिकता और सार्थकता बची हुई है।


( दैनिक नवभारत के बुधवारीय परिशिष्ट सुरुचि में 13 अक्टूबर 2004 को प्रकाशित)
(दोनो गुदना वाले चित्र द ट्रिब्यून डॉट काम से साभार)

14 टिप्पणी:

रंजू भाटिया said...

बहुत ही अच्छी जानकारी दी है आपने संजीत जी
गरबा भी अब आधुनिक हो गया है :)शुक्रिया इसको पढ़वाने के लिए !!

Dr Prabhat Tandon said...

यहाँ ऊत्तर प्रदेश मे गरबा तो नही लेकिन दुर्गा पूजा और रामलीला के जरिये इसी तरह की भद्दी नौटकीं देखने को मिल जाती है ।

काकेश said...

अच्छी जानकारी दी आपने...धन्यवाद

ALOK PURANIK said...

गरबा से अब डरबा लगता है।

ePandit said...

ओह हैरानी हुई यह सब जानकर। भइया करो रोमांस वगैरा कोई टैंशन नहीं, पर धर्म की आड़ में क्यों?

Satyendra PS said...

bahut sahi diya guru aapne.
Wah--wahhhh

sanjay patel said...

संजीत भाई;
गरबा अपनी गरिमा और लोक-संवेदना खो चुका है.मैने तक़रीबन बीस बरस तक मेरे शहर के दो प्रीमियम आयोजनो में बतौर एंकर पर्सन शिरक़त की . अब दिल खट्टा हो गया है. सारा तामझाम कमर्शियल दायरों में है. पैसे का बोलबाला है इस पूरे खेल में और धंधे साधे जा रहे हैं.शरीफ़ आदमी की मौजूदगी बेमानी हो गई है इस उत्सव में .बात सीधी सी भी है कि जब गरबा है ही नहीं हमारे राज्य का तो क्यों आयोजित किया जा रहा है दीगर राज्यों में ....बस अर्थ की प्राप्ति के लिये...आश्चर्य न करियेगा कि कल को नेपाल , केरल, मिज़ोरम,असम और ओडीशा भी अपने लोक नृत्यों को भूल कर गरबा करने लग जाएँ

सुनीता शानू said...

संजीत जी आज आधुनिकता का जामा सारी दुनियाँ ने पहन लिया है गरभा नृत्य बेहद खूबसूरत होता है हमारे प्राचीन भारत की संस्कृति को दर्शाता है...किसी जमाने में हम कॉलेज में बहुत गरभा किया करते थे डांडियाँ खेला करते थे मगर एक अरसे से इसका रूप ही बदल गया है...

दुख नही आत्म ग्लानी होती है कहीं न कही हमारे संस्कारों मे कमी रह गई है जो हम आज के नौजवानो के हाथों हमारे देश की संस्कृती की धज्जीयाँ उड़वा रहे हैं...

सुनीता(शानू)

Anita kumar said...

गरबा अपनी गरिमा खो चुका है ये हम बम्बई वालों से ज्यादा कौन जानेगा। फ़ोटू बड़िया ढ़ूढ़ कर लगाई हैं।

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छी जानकारी दी...आभार इसे पेश करने का. बड़ा मार्डन कान्सेप्ट है भाई.

मीनाक्षी said...

बहुत अच्छी जानकारी...काश कि हम भी भारत मे होते...सालो गुज़र गए होली दिवाली पर जाना ही नही हो सका.... जुलाई अगस्त की गर्म हवाएँ खाकर आ जाते है...सुन्दर चित्र् भी आकर्षित करते हैं.दशहरा दीपावली पर हमे भी याद कर लीजिएगा.

Manish Kumar said...

शुक्रिया इस जानकारी के लिए !

Anonymous said...

Kafi achchha coverage hai.

Unknown said...

आदरणीय सन्जु जी………
नमस्कार
आपने गरबा से सम्बन्धित बहुत अच्छी जानकारी दी है…… आपने जो कहा कि गरबा धीरे धीरे फ़ैशन का प्रतीक बनता जा रहा है बिल्कुल सही है………और आज के युवा इसे उचित भी मानती है…एक समय था जब गरबा अपनी भव्यता के लिये प्रसिद्ध था…पर आज इसका स्वरुप पूरी तरह बदल गया है………लोग सोणी सोणी कुडी देखने एवं नैन सुख के लिये इस त्योहार का आयोजन करते है। आज हर गली हर मोहल्ले मे गरबा का आयोजन होता दिखायी देगा पर बहुत कम ऐसी जगह है जहा पूरी श्रद्धा के साथ गरबा का आयोजन होता होगा……शायद इन सब के लिये हम खुद ही जिम्मेदार है……कि हम इस तरह की नौटंकी देखने चले जाते है……जिससे इन्हे बढावा मिलता है………

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