जैसे तुझे स्वीकार हो
जैसे तुझे स्वीकार हो !
डोलती डाली, प्रकम्पित पात, पाटल-स्तम्भ विलुलित
खिल गया है सुमन मृदु दल, बिखरते किंजल्क प्रमुदित
स्नात मधु से अंग रंजित-राग केशर अंजली से
स्तब्ध सौरभ है निवेदित
,मलय-मारुत, और अब जैसे तुझे स्वीकार हो।
पंख कम्पन-शिथिल। ग्रीवा उठी, डगमग पैर,
तन्मय दीठ अपलक-
कौन ॠतु है, राशि क्या है, है कौन सा नक्षत्र, गत शंका, द्विधा-हत
बिन्दु अथवा वज्र हो-
चंचु खोले आत्मविस्मृत हो गया है यति चातक-
स्वाति, नीरद, नील-द्युति, जैसे तुझे स्वीकार हो।
अभ्र लख भ्रू-चाप सा, नीचे प्रतीक्षा स्तिमित नि:शब्द
धरा पाँवर-सी बिछी है, वक्ष उद्वेलित हुआ है स्तब्ध
चरण की ही चाप किंवा छाप तेरे तरल चुम्बन की-
महाबल हे इन्द्र, अब जैसे तुझे स्वीकार हो।
मैं खड़ा खोले हृदय के सभी ममता द्वार,
मैं खड़ा खोले हृदय के सभी ममता द्वार,
नमित मेरा भाल, आत्मा नमित-तर, है नमित-तम
मम भावना संसार,
फ़ूट निकला है न जाने कौन हृत्तल बेधता-सा
निवेदन का अत्तल पारावार,
अभय-कर, वरद-कर हो, तिरस्कारी वर्जना, हो प्यार
तुझे, प्राणाधार, जैसे हो तुझे स्वीकार-
सखे, चिन्मय देवता, जैसे तुझे स्वीकार हो !
आगे अज्ञेय लिखते हैं--"यह कविता दिल्ली की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई तो एक कृपालु पत्रकार बंधु ने एक स्थानीय पत्र में इसका अर्थ करने के लिए पुरस्कार घोषित किया, शर्त यह थी कि "अर्थ" ही किया जाए, "व्याख्या" न की जाए। मेरा अनुमान था कि इस जाल में कुछ लोग फ़ंसेंगे ही, और हुआ भी ऐसा ही-कुछ उत्साही व्यक्तियों ने(मेरा पक्ष लेने के लिए मै उनकी सदिच्छा का क़ायल तो हूं पर उनके सद्विवेक का नही!) अर्थ करके भेजा, और उत्तर पाया कि यह तो "अर्थ" नही "व्याख्या" है। एक बार अचानक इस आशय का कार्ड एक मित्र के घर देखकर मैंने सोचा कि कविता का अर्थ स्वयं करना चाहिए। अत: छ्द्यनाम से सम्पादक केनाम इस आशय का पत्र लिखकर कि 'इन महाकवि की कविता इतनी गूढ़ होती है कि साधारण गद्य मे उसकी व्याख्या ही हो सकती है , अर्थ नही; अत: मैं उस का अर्थ पद्य में करके भेज रहा हूं; आशा है आप इस सर्वथा सम्पूर्ण अर्थ को प्रकाशित कर देंगे।' मै ने यह पैरोडी( जयतु हे कण्टक चिरंतन !) भेज दी जो पत्र में सम्पादकीय नोट के साथ छपी भी। पत्रकार सज्जनों को पुरस्कार देना नही था, अत: वह तो मुझे नही मिला, पर वैसे मैं ने समझा कि प्रकाशन ही काफ़ी पुरस्कार है; क्योंकि वे अभी तक नही जानते कि 'लिखे ईसा पढ़े मूसा' की इस कहानी में ईसा ही मूसा है। आशा है वे मुझे क्षमा कर देंगे क्योंकि मेरा आचरण शास्त्र-सम्मत है, 'पत्रकारे पत्रकारत्वं-इति हितोपदेश:'।"
जयतु हे कण्टक चिरंतन !
जय, सदा जय हो !
प्रबल झंझा के थपेड़ों से पिटे हैं फूल-
भूमि पर, नभ पर, पवन के चक्षुओं में भी भरी है धूल,
काव्य के झंखाड़ में बाक़ी बचे बस
निविड़ छायावाद के निष्प्राण रुखे शूल-
जयतु, हे कण्टक चिरंतन, जय सदा जय हो।
नेत्र विस्फ़ारित, अचम्भित दृष्टि, हृदगति स्तब्देह,
सहमी बुद्धि भौंचक
आह यह निर्लज्ज पाठक है नहीं अभिभूत अब तक,
आस में बैठा हुआ है-
पैर में चुभती ठीकरी भी यह कभी हो जाय रोचक-
किन्तु कविते ! कुलिश-सी कटु क्लिष्ट
लौह के हे चणक, जय, तेरी सदा जय हो।
बिछ गये हैं रबड़ के ये छन्द ज्यों शैतान की हो आंत,
हैं प्रतीक्षा के पुलक में कवि सभी अपने निपोरे दांत
तालियां हो, गालियां हो, चप्पलों की मार, घूँसे-लात,
महाबल हे काव्य-रजनीके निशाचर, जय सदा जय हो।
मैं खड़ा खोले सभि कटिबन्ध पिंगल के,
मुक्त मेरे छन्द, भाषा मुक्ततर, हैं मुक्ततम मम
भाव पागल के।
ज्ञेय हो, दुर्ज्ञेय हो, अज्ञेय निश्चल हो,
अर्थ के अभिलाषियों से सतत निर्भय हो,
असुर दुर्दम, दैत्य-कवि, तेरी सदा जय हो !
जय, पुन: जय सदा जय,
जय, सदा जय हो !
(तार सप्तक से साभार)
(तार सप्तक से साभार)
Tags:
13 टिप्पणी:
वाह भई, यह तो बहुत बेहतरीन प्रस्तुति. मजा आ गया. हीरा चुन कर लाये हैं.
वाह संजीत.. रोचक सूचना निकाल कर लाए.. कविता के अर्थ और व्याख्या के बारे में मौन ही उचित है.. और अज्ञेय के सन्दर्भों में मौन सदा ज़्यादा मुखर होता है..
कहां जी प्रेम से यहां कूद लिये।
ये क्या हो रहा है जी।
अच्छा किया जो आपने इसे प्रस्तुत किया ।रोचक प्रसन्ग है।
अज्ञेय जी की कविताओं के संबंध में सर्वविदित है कि वे एक बार पढने में समझ में आती ही नहीं थी कई कई बार पढना होता था । तार सप्तक में आपने यह देखा ही होगा । मैने अज्ञेय जी को कालेज के दिनों में पूरा चांटा है इसी का सार मैनें अपने ब्लाग में शुरूआती पोस्टों में लिखा है । वैसे राजकमल राय जी की कृति शिखर से सागर तक में अज्ञेय जी के अनेक अनछुए पहलुओं का विवरण है । आपने इसे यहां देकर बहुत ही अच्छा किया जो हम लोगों को अज्ञेय के ज्ञेय व्यक्तित्व का चित्र प्राप्त हो सका । हम में से कई लोग साहित्य के विद्यार्थी नहीं हैं इसलिए अज्ञेय जी को कई लोग कम जानते हैं आपने इनकी दोनों कविताओं को प्रस्तुत किया पुन: धन्यवाद ।
पहली बार इस तरह का कुछ पढने को मिला है।
bahut khoob sanjeet........maja aa gaya bas aise hi apne blog ko rochak banate raho.........god bless u
बहुत खूब । अच्छा लिखा है।
सचमुच अज्ञेय जी को पढ़ना बहुत ही मुश्किल है
उनकी गूढ़ बातें जल्दी से समझ नही आती...
बहुत वक्त लगता है कविता का अर्थ समझने में...
यहाँ अर्थ पढ़कर आसानी हुई..
बहुत-बहुत शुक्रिया!
सुनीता(शानू)
Bahot khoob bandhu....kya cheez pesh ki hai....ye bhi sahitya ke duniya ka ek alag pahloo hai....good.
बहुत बढिया प्रस्तुति है। यह सत्य है कि अज्ञेय जी रचना एक बार मे नही समझी जा सकती।लेकिन उन्हे पढने को मन बार-बार करता है।
Jis person hindi se chahat shuru karna chahta ho usse padha do ek baar, dusri baar hindi ka naam nahin lega..
yeh baat bhi sach hai ki jitna nuksaan woh language ke padhe likhe log uss language ka karte hai woh koi aam aadmi nahin karta.
संजीत जी ,बहुत रोचक जानकारी है।
कविवर का अनूठा व रोचक रुप सामने है ।
उम्मीद है भविष्य में भी कुछ नया और रोचक मिलेगा पढने को ।
Post a Comment