भारतीय टीम वर्ल्ड कप के पहले ही दौर में बाहर हो गई, करोड़ों भारतीयों (जिनमें युवा व किशोर वर्ग ज्यादा है) को इस से ठेस पहुंची इनमें बड़े बड़े नेता भी शामिल हैं। भारत के ऐसे प्रदर्शन से सबको एक झटका सा लगा है और देश भर में उनके खिलाफ़ प्रदर्शन का दौर चल ही रहा है। भारतीय खिलाड़ी भी अपने ऐसे प्रदर्शन के बाद कुछ इस तरह घबराए हुए हैं कि घर वापस आने में भी डर लग रहा है, एक साथ आने की बजाय अलग अलग आ रहे हैं अलग अलग शहरों में उतर रहें है। काश ऐसा ही विरोध भारतीय जनता, खासतौर से युवा वर्ग तब करता जब हमारे चुने हुए जन प्रतिनिधि का प्रदर्शन संसद, विधानसभा या स्थानीय निकाय में जनता की उम्मीदों के खिलाफ़ हो। क्रिकेट खिलाड़ियों के शर्मनाक प्रदर्शन पर हमारे देशवासी, अपना सिर मुंड़ा सकते हैं । लेकिन जब हमारे जन प्रतिनिधि संसद, विधानसभा या स्थानीय निकाय मे शर्मनाक प्रदर्शन करते हैं तब हम सब देशवासी एक ठंडी उसांस भर कर रह जाते है लेकिन हंसते हुए टी वी पर यही देखते रहते है कि और क्या मजेदार हो संसद में। जब हमारे जनप्रतिनिधी शर्मनाक प्रदर्शन करते हैं तो हम यही टिप्पणी कर के रह जाते हैं कि इन सबका कुछ नही हो सकता । संसद में गाली देने वाले, मारपीट करने वाले यही जनप्रतिनिधी जब हमारे रुबरु होते हैं तो हम झुक के नमस्कार करते हैं माला पहनाने से भी नही चूकते।
हमारे क्रिकेट खिलाड़ियों का कर्तव्य यह नही था कि वह वर्ल्ड कप जीते हीं लेकिन उनका कर्तव्य यह था कि वह अच्छा प्रदर्शन जरुर करते। वह अपने कर्तव्य से चूक गए। इधर हमारे जन प्रतिनिधि तो दशकों से अपने कर्तव्य से चूक रहें हैं फ़िर हमारा युवा खून क्यों नही जन प्रतिनिधियों के खिलाफ़ ऐसा आक्रोश दिखाता कि जन प्रतिनिधि भी पब्लिक के गुस्से के डर से रात के अंधेरे में ही अपने घर जाए। जरा सोचिए, क्रिकेट खिलाड़ियों को तो यह मालूम है कि देश की जनता उनके खिलाफ़ कितने गुस्से से भरी होगी इसीलिए उन्होनें यह निर्णय लिया कि अलग अलग भारत आएं और वो भी अलग अलग शहरों में उतरें लेकिन हमारे देश का निकम्मे से भी निकम्मा जन प्रतिनिधि क्या जनता से कभी इतना डरा??
सोचने लायक बात यह भी है कि क्यों किसी फ़िल्म निर्देशक को "रंग दे बसंती" जैसी फ़िल्म बनाने की जरुरत पड़ी। माफ़ किजिएगा मैं इस फ़िल्म का उल्लेख कर के कही से भी यह नही कह रहा कि इस फ़िल्म में जो दिखाया गया है वही एक अंतिम रास्ता है, ना ही मैं यह कहने जा रहा हूं कि हमारे युवा इस फ़िल्म से प्रेरणा लेकर ऐसा ही कुछ कर डालें। मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूं कि इस फ़िल्म को बनाने का विचार आखिर निर्माता निर्देशक को देश की हालत देख कर ही आया होगा ना।
क्रिकेट खिलाड़ियों को चुनने में तो किसी आम आदमी की कोई भूमिका नही होती जबकि जन प्रतिनिधि को चुनने में तो उसकी सीधी भूमिका होती है, फ़िर क्या कारण है कि वह अपने ना चुने हुए क्रिकेट खिलाड़ी के प्रदर्शन से अपने को ज्यादा जोड़ पाता है बनिस्बत अपने चुने हुए जन प्रतिनिधि के प्रदर्शन के। क्यों हम जन प्रतिनिधियों के कर्तव्यों के प्रति एक उदासीनता वाले भाव में आ जाते हैं।
29 March 2007
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3 टिप्पणी:
Jaruri yeh bhi hai ki humein chunav ke darmiyan "Inmein Se ek bhi nahin" vala option bhi uplabdh ho tab yeh log darenge.
जनता को सोचना चाहिए कि ये अपने क्रिकेट खिलाडी देश का खाते हैं लाखों कमाते हैं मगर देश के लिए क्यों कुछ नहीं करते?? आम जनता हमेशा अपने खिलाडीयों से आस लगाए बैठती है।
u have raised a very strong issue sanjeev. my heartfelt congrats for this sensible expression.
keep doing.
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