एक जमाना था जब अपने यहां चौबीस घंटे वाले खबरिया चैनलों की खेती शुरु नहीं हुई थी बस इक्के-दुक्के ही ऐसे चैनल थे जो खबरिया कहलाते थे।फ़िर अचानक बड़े पैमाने पर इनकी खेती होनी शुरु हुई तभी यह सवाल उठा था कि चौबीस घंटे तक का टाईम स्लाट भरने के लिए खबरें कहां से आएंगी। अब इस टाईम स्लाट को भरने के लिए राष्ट्रीय कहलाने वाले चैनलों पर भी स्थानीय से स्थानीय खबरें आती हैं ( मुंबई महानगरपालिका की वाटर सप्लाई पाईप का फूट जाना)।खबरें गढ़ी भी जाती हैं क्योंकि टी आर पी की होड़ में बना ही ना रहा जाए बल्कि सबसे तेज़ ही रहा जाए।यह सब बातें तो होती ही रहती हैं। फ़िलहाल मुद्दे की बात यह है कि क्या आज यह सब चैनल सिर्फ़ खबरिया चैनल रह सके हैं। यह सब चैनल खबरिया चोले की जगह अब पारिवारिक चैनल का चोला ओढ़ते जा रहे हैं। कहीं "योगा" करिये तो कहीं परिवारिक मामलों में सलाह पाईये।ज्यादातर चैनल स्थानीय दैनिक अखबारों की तरह दैनिक भविष्यफल बांच रहे है तो दुसरी तरफ यही चैनल मनोहर कहानियां और सत्यकथा जैसी पत्रिकाओं की कमी को भी पूरा करने में जूटे हुए हैं।मनोहर कहानियां और सत्यकथा जैसी पत्रिकाओं में अपराध कथा को इस तरह पेश किया जाता था कि वह महिमा-मंडित होता सा लगता था, यही हाल अब इन खबरिया चैनलों का हो गया है, इसी तरह पुराने किलों-खंडहरों में भटकती आत्माओं की कहानी हो या फ़िर कहीं किसी किले में जीवित लेकिन अधमरे भटक रहे अश्व्त्थामा की कहानी की पेशकश हो। यह सब दर्शक जुगाड़ने की कोशिश नही तो और क्या है।और सबसे बड़ी बात यह है कि खबरिया चैनलों मे हास्य आधारित कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है।कहीं राजू श्रीवास्तव मौजूद हैं कोई कार्यक्रम लेकर तो कहीं कोई और।
अब सोचने वाली बात यह है कि आखिर क्यों इन खबरिया चैनलों को खबरें दिखाने के लिए हास्य का सहारा लेना पड़ रहा है।क्या इसलिए कि चैनलों के बाज़ार में अगर कोई सबसे ज्यादा बिकने वाली चीज है तो वह है हास्य। क्या इसलिए कि अगर टी वी पर सफ़ल कार्यक्रमों की सूची बनाई जाए तो हास्य आधारित कार्यक्रम ज्यादा हैं। क्या इसलिए कि खबरिया चैनलों को सिर्फ़ खबरें दिखाने पर विज्ञापनदाता कम मिल रहें है या फ़िर दर्शक कम मिल रहे हैं। शायद वह दिन दूर नहीं जब किसी चैनल पर राजू श्रीवास्तव, सिद्धू या फ़िर रऊफ़ लाला खबरें पढ़ते हुए या प्रस्तुत करते हुए दिख जाएं।
03 April 2007
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7 टिप्पणी:
Yeh log khabar sirf dikhate nahin hai, faisla bhi saath mein sunane lagey hai. Har khabar ki 2 side hoti hai aur yeh wahin side select karte hai jahan se viewing badhti hai. Andhshradha ko bhagane ke liye woh isi ko jyada dikhayenge.
ठीक कहा भाई
ख़बर पर नज़र - कुछ दुकानें हैं जहां सामान इम्पोर्ट करके बेचते हैं तो कुछ जुगाड करके बेचते हैं और कुछ ख़ुद तैयार करके बेचते हैं।
बिल्कुल सही कहते हो आप. जिस तरह ज्यादा मीठा खाने से उब जाते हैं उसी तरह जहाँ देखो हास्य - हास्य वाले कार्यक्रमों से अब घिन आने लगी है। बहुत कलाकार तो पुराने घिसे पिटे चुटकुलों को सुनाते रहते हैं।
www.nahar.wordpress.com
चेहरा बदल चुका है| ये लोग खबरों का चेहरा ही बदल देते है |
खबरिया चैनलों को हास्य का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि इनकी खबरों में दम तो है नहीं। इनकी भी हालत कुछ बॉलीवुड फिल्मों की सी है जहां बस एक ही घिसी पिटी कहानी होती है और नया जामा पहना कर कह देते हैं कि यह फिल्म 'औरों से हट के है।'
खबरें इस लिए देख लेते हैं कि इन पर तरस तो नहीं आता, पर इनकी मूर्खता पर हंसी उड़ाने का तो अवसर मिल ही जाता है। कहते हैं 'हंसना' स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। भाई, इस कारण से ही देख लिया करो। वैसे तो 'हंसने' के लिए आंख मूंद कर कोई भी हिंदी चैनल खोल दो -चाहे सीरियस कहानी ही हो। अभिनेता महोदय लेबर्ड ऐक्टिंग की ऐसी मिट्टी पलीद करते हैं कि वह रोता है और दर्शक को हंसी आती है।
त्रिपाठी जी नमस्कार
मीडिया पर मैने भी चार लाईने लिखी हैं
कृपया एक बार नजरे-इनायत करें.
http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2007/04/blog-post_26.html
क्या ऐसे मीडिया का कोई इलाज नहीं ?
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