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11 September 2007

छत्तीसगढ़ में तीजा और पोला

छत्तीसगढ़ में हरेली के बाद हलशष्ठी और बहुलाचौथ नामक दो स्थानीय त्यौहार और आते हैं ( संभव है कि यह त्यौहार भारत के अन्य प्रांतों में किसी और नाम से मौजूद हों ) इनके बाद आता है "पोला" जिसे कि छत्तीसगढ़ी में पोरा भी कहा जाता है। पोला त्यौहार का छत्तीसगढ़िया संस्कृति में विशेष महत्व है क्योंकि इस दिन बैलों का श्रृंगार कर पूजा की जाती है और यह तो हम सभी जानते हैं कि बैल छत्तीसगढ़ ही नही बल्कि पूरे भारतीय कृषि संस्कृति में बहुत बड़ा महत्व रखते हैं।

पोला/पोरा
पोला,अगस्त महीने के दौरान कृषि कार्य समाप्त होने के बाद भाद्रपद ( भादो ) की अमावस्या को मनाया जाता है। जनश्रुति के मुताबिक इस दिन अन्नमाता गर्भधारण करती है मतलब कि इसी दिन धान के पौधों में दूध भरता है, इसी कारण इस दिन खेतों में जाने की अनुमति भी नही होती। पोला के दिन बैलों को उनके मालिक सजा कर पूजा करते हैं जबकि बच्चे आग में पकाए गए मिट्टी के बने या फ़िर लकड़ी के बने बैलों की पूजा कर उनसे खेलते हैं और आपस में बैलों की दौड़ करते हैं। इसी तरह गांव और शहरों में भी बैल दौड़, बैल सजाओ प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं और विजयी बैल-मालिकों को पुरस्कृत भी किया जाता है। इस दिन ठेठरी, खुर्मी और चौसेला जैसे खालिस छत्तीसगढ़ी पकवान बनाए जाते हैं। इन पकवानों को मिट्टी के खिलौने रुपी बर्तनों में रखकर पूजा की जाती है जिस से कि बर्तन हमेशा अन्न से भरे रहें।


"तीजा"
हरतालिका तीज व्रत भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती महिला गौरी-शंकर की पूजा करती है। कहते हैं कि हरितालिका तीज का महत्व वैसा ही है,जैसे करवा चौथ का इसीलिए इसे निर्जला रखा जाना चाहिए, अर्थात पानी भी नहीं पीना चाहिए। छत्तीसगढ़ में इसी हरतालिका तीज को ही "तीजा" के नाम से जाना-माना जाता है। छत्तीसगढ़िया महिलाएं तीजा का व्रत जरुर करती हैं और जैसा कि यहां की परंपरा में माना जाता है कि इस व्रत को विवाहित महिलाएं अपने मायके में ही रहकर करती हैं। मायके में रहकर तीजा मनाने के लिए महिलाएं रक्षाबंधन या पोला तक अपने मायके पहुंच जाती हैं इसके लिए मायके से कोई ना कोई बकायदा उन्हें लाने जाता है। हालांकि आजकल महिलाओं के कार्यरत होने के कारण ऐसा ज़रुरी भी नही कि रक्षाबंधन या पोला पर मायके पहुंच ही जाएं पर वे तृतीया के पहले दिन अर्थात द्वितीया या दूज को जरुर मायके पहुंचती हैं क्योंकि दूज के दिन यहां महिलाएं कड़ु-भात ( करेले की सब्जी और भात) खाने की परंपरा का पालन करती है साथ में इस मौके पर बने स्थानीय पकवान भी फ़िर रात्रि बारह बजे के बाद से निर्जला व्रत शुरु जो कि अगली रात बारह बजे तक चलता है। तीजा के दिन मायके से मिले कपड़े पहनकर जहां कहीं भी आस-पड़ोस में कथा बांचकर पूजा की जा रही हो वहां जाकर पूजा करती हैं। दूसरे दिन अर्थात चतुर्थी को ही भोजन ग्रहण होता है।


तो यह थे छत्तीसगढ़िया संस्कृति के दो और प्रमुख त्यौहार। इनके बाद है गणेशोत्सव। गली-चौराहों से लेकर मोहल्ले-कॉलोनियों मे इन दिन बच्चों और युवाओं की टोली गणपति के स्वागत की तैयारी में जुटे दिखाई दे रहे है तो बड़ी बड़ी समितियां अभी अपने बड़े-बड़े पंडाल और बड़ी-बड़ी मूर्तियों के सही व्यस्थापन को लेकर चिंतित हैं। इसके बाद विसर्जन झांकियों की तैयारी में जुट जाएंगे, समूचे छत्तीसगढ़ में खासतौर से एक तो रायपुर और एक राजनांदगांव इन दो जगहों पर गणेशोत्सव की विसर्जन झांकियों का दौर रात्रि 12 बजे के आसपास हुरु होता है जो कि सुबह आठ नौ बजे तक चलता रहता है, इस दौरान निर्धारित मार्ग पर हजारों की तादाद मे महिला,पुरुष और बच्चे सड़क पर, दुकान-मकान की छतों पर बैठकर-खड़े हो कर इन झांकियो को देखने का सुख लेते हैं। इसका भी एक अलग ही आनंद है।




(फोटो सौजन्य:- सूर्यकांत सोनी, नई दुनिया,रायपुर)

17 टिप्पणी:

Pankaj Oudhia said...

हमेशा की तरह रोचक जानकारी। बधाई एवम शुभकामनाए।

Surakh said...

तीजा पोला के बारे मे अच्छी जानकारी है,बधाई

Surakh said...

तीजा पोला पर लेख हेतू बधाई

Udan Tashtari said...

वाह भाई, बड़ी रोचक जानकारी रही. लोगों को अपने क्षेत्रों के रोचक त्यौहारों की जानकारी देना चाहिये-अन्यथा कहाँ पता लगता है.

बधाई, जारी रहो.

ghughutibasuti said...

छत्तीसगढ़ के बारे में इतनी सारी जानकारी देने के लिए आभार ।
घुघूती बासूती

Gyan Dutt Pandey said...

ऋतु के साथ त्यौहार और त्यौहार के साथ ब्लॉग पोस्ट! बड़ा अच्छा लग रहा है!

36solutions said...

बहुत अच्‍छा जानकारी प्रदान किये संजीत भाई, धन्‍यवाद
पोला के संबंध में छत्‍तीसगढ में एक और मान्‍यता है कि इस दिन बरसात होना अच्‍छा नहीं माना जाता, इस दिन यदि बरसात हो और उस पानी को भरकर गांव में घरो में जो चक्‍की होता है उसके नीचे गाड दिया जाय तो मान्‍यता है कि अगले वर्ष अवश्‍य अकाल पडता है, इस दिन बईगा, ग्रामीण तांत्रिक रात को मसान जगाते है यानी प्रेत बुलाते हैं ।
तीज छत्‍तीसगढ में सुहाग का सबसे बडा त्‍यौहार है, इस दिन महिलायें सर्वथा निर्जला उपवास करती हैं कुछ भी अन्‍न जल नहीं लेती । तीज के बाद चौथ को पारंपरिक चीला, बिंसा खाकर उपवास तोडती हैं । जिन लडकियों की इसी वर्ष विवाह हुआ रहता है एवं जो अपने मायके नहीं जा पाती उनके लिये उनके मायके वाले तिजहा साडी सिंदूर आदि सुहाग की वस्‍तु भिजवाते हैं ।

बाकी तो आपने लिखा ही है, मैं छत्‍तीसगढ के एक और त्‍यौहार जो तीजा के पूर्व मनाया जाता है खमरछठ के संबंध में कल एक पोस्‍ट प्रकाशित करूंगा ।
पुन: धन्‍यवाद

रजनी भार्गव said...

पोला की जानकारी दिल्चस्प लगी.

रजनी भार्गव said...

पोला के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा.धन्यवाद.

Anita kumar said...

शुक्रिया संजीत जी
आप ने छ्त्तीसघड़ के त्योहारों के बारे मे अच्छी जानकारी दी है। पोला जैसा ही एक त्योहार कर्नाट्क में भी मनाया जाता है, ऐसे ही शकंर पार्वती की पूजा होती है , उसे गौरी पूजा कहा जाता है, न सिर्फ़ पूजा की जाती है, बल्कि सब विवाहित स्त्रियों को निमंत्रण दिया जाता है और ह्ल्दी कुमकुम और सुहाग की निशानियाँ देकर विदा किया जाता है। पुराने जमाने में एक दूसरे से मिलने का बहाना बन जाता था ये त्योहार

रंजू भाटिया said...

बहुत ही सुंदर जानकारी ..नाम भी बहुत सुंदर लगे ..तीजा पोला
आपके लिखने का ढंग बहुत रोचक है .आगे और भी
सुंदर जानकारी का इंतज़ार है ..
बहुत बहुत शुभकामना के साथ
रंजना

सुनीता शानू said...

वाह छत्तीस गढ़ वाले पकवान की बात करके मुह में पानी आ गया बहुत ही अच्छी जानकारी है संजीत जी और चित्र भी बेहद खूबसूरत है...मिट्टी के बर्तन रूपी खिलौने भी बहुत खूबसूरत लग रहे है...
अब त्यौहार तो आपने मना लिया थौड़ी मिठाई भी पोस्ट कर दी जाये तो अच्छा रहेगा...:)

शानू

Shastri JC Philip said...

आपने कहा: "आपकी टिप्पणी हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। अत: टिप्पणी कर उत्साह बढ़ाते रहें।
शुक्रिया आपका।"

तो लीजिये एक और टिप्पणी:

संजीत, आजकल सचित्र लेख देने लगे हो. इससे लेख की पठनीयता बढ जाती है. आगे भी इस बात का ख्याल रखना.

"छत्तीसगढ़ में तीजा और पोला" के लिये आभार. भईया, मप्र की तो हर बात मुझे रोमांचित कर देती है -- शास्त्री जे सी फिलिप



आज का विचार: चाहे अंग्रेजी की पुस्तकें माँगकर या किसी पुस्तकालय से लो , किन्तु यथासंभव हिन्दी की पुस्तकें खरीद कर पढ़ो । यह बात उन लोगों पर विशेष रूप से लागू होनी चाहिये जो कमाते हैं व विद्यार्थी नहीं हैं । क्योंकि लेखक लेखन तभी करेगा जब उसकी पुस्तकें बिकेंगी । और जो भी पुस्तक विक्रेता हिन्दी पुस्तकें नहीं रखते उनसे भी पूछो कि हिन्दी की पुस्तकें हैं क्या । यह नुस्खा मैंने बहुत कारगार होते देखा है । अपने छोटे से कस्बे में जब हम बार बार एक ही चीज की माँग करते रहते हैं तो वह थक हारकर वह चीज रखने लगता है । (घुघूती बासूती)

मीनाक्षी said...

रोचक जानकारी . अपना देश में कितनी विविधता है, जानकर अच्छा लगा. बहुत बहुत धन्यवाद

Anonymous said...

अपन छत्तीसगढ़ के तिज-त्यौहार के तो बाते अलग हे/बहुत अच्छा लगिस,आप अच्छा लिखथव/

mausi said...

नमस्कार। मैं हिन्दी जल्दी पढ़ नहीं सकती। लेकिन आप का बलॉग धीरे धीरे पढूंगी, क़्योंकि मैं 5 बार छत्तीसगढ़ गई हूँ।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

पोला का प्रत्यक्ष अनुभव मुझे पहली बार वर्धा में आकर हुआ है। आपकी पोस्ट बहुत जानकारी पुर्ण और रोचक है। कल सुबह मेरी पोला-पोस्ट भी आने वाली है। शेड्यूल कर रखा है।

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आपकी राय बहुत ही महत्वपूर्ण है।
अत: टिप्पणी कर अपनी राय से अवगत कराते रहें।
शुक्रिया ।