इतिहासकारों से क्षमा मांगते हुए
राज-शाही 'गढ़ों' का प्रतीक नहीं है छत्तीसगढ़!
सनत चतुर्वेदी
''वियोगी
होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान''। यह प्रसिद्ध पंक्ति सुमित्रानंदन
पंत की है। अच्छे और सच्चे कवि सदा अपनी समस्त संवेदनाओं को समेटकर अंतर्मन
के भावों को शब्दों के रूप में प्रकट करते हैं चाहे व हर्ष हो या विवाद।
ऐसे ही अंचल के पुरातन विस्मृत कवियों को नमन करते हुए यहां पर उन्हें याद
कर रहे हैं जिन्होंने 15-17वीं शताब्दी के दौरान अपनी रचनाओं में
'छत्तीसगढ़' शब्द का प्रयोग किया है। इन कवि-पुरखों में गोपाल मिश्र, बाबू
रेवा राम और दलराम के नाम लिए जा सकते हैं।
अंचल के इन ज्ञात कवियों से सबसे पुराने खैरागढ़ राज के कवि दलराम हैं,
उन्होंने 1487 के आसपास लिखी रचनाओं में छत्तीसगढ़ का उल्लेख किया है। इसका
मतलब यह है कि 1487 के पहले से छत्तीसगढ़ शब्द प्रचलित था। इतिहासकारों का
मानना है कि इसके पहले इस क्षेत्र को दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था।
इसके बाद रतनपुर राज्य के हैहयवंशी राजाओं के (950-1750) काल में राज-काज
की दृष्टि से जो 36 परगना-जनपद थे, इन्हें ही 'गढ़' मानकर छत्तीसगढ़ नाम
व्यवहार में आया होगा। स्पष्टत: मराठा काल में छत्तीसगढ़ शब्द का खुलकर
प्रयोग होने लगा। रतनपुर राज्य के 36 जनपदों में शिवनाथ के उत्तर में 18
जनपद थे- रतनपुर, मारो, विजयपुर, खरौद, कोटगढ़, नवागढ़, सोंठी, ओहर,
पंडरभटा, सेमरिया, मंदनपुर (चांपा) और कारकट्टी। शिवनाथ के दक्षिण 18 जनपद
थे- रायपुर, पाटन, सिमगा, सिंगापुर, लवन, अमोरा, दुर्ग, सारधा, सिरसा,
मोहेंदी, खल्लारी, सिरपुर, फिंगेश्वर, राजिम, सिंगारगढ़, सुअरमाल, टेगनागढ़
और अकलबाड़ा। इन 36 जनपदों (जिन्हें गढ़ मान लिया गया) में सिर्फ तीन-चार
नाम ही ऐसे हैं जिनमें गढ़ शब्द प्रयुक्त हुआ है, शेष में नहीं।
अब सवाल यह उठता है कि हैहयवंशी राज्य के जनपदों को 'गढ' क्यों कहा गया
जबकि इस अंचल में दर्जनों ऐसे स्थान हैं जिनके नाम के साथ गढ़ शब्द आज भी
जुड़े हुए हैं। जैसे- रायगढ़ (सरगुजा), पामगढ़ (बिलासपुर), सारगंढ़,
धर्मजयगढ़, अंतागढ़ (कांकेर), भैरमगढ़ (बस्तर), खैरागढ़, डोंगरगढ़ आदि। ये
गढ़ के नाम सारे क्षेत्र रतनपुर राज्य से अलग रहे हैं। रामगढ़ सरगुजा में
है। मान्यता है कि भगवान श्रीराम वनवास काल में दण्डाकरण्य आए थे। उस दौरान
सरगुजा क्षेत्र की पहाडिय़ों में आश्रय लिया था, इसलिए उस पहाड़ी क्षेत्र
का नाम 'रामगढ़' पड़ा। रायगढ़ अलग रियासत थी। छत्तीसगढ़ में 12 रियासतों का
उल्लेख मिलता है जिनमें बस्तर, कांकेर, राजनांदगांव, खैरागढ़, छुईखदान,
कवर्धा, सक्ती, रायगढ़, सारंगढ़, सरगुजा, उदयपुर-धर्मजयगढ़ और चांगमखार। इन
रियासतों में कई ऐसे स्थान थे जिनमें गढ़ शब्द शामिल हैं। बस्तर में
भैरमगढ़, कांकेर में अंतागढ़ ऐसे ही नाम हैं। डोंगरगढ़, जहां बम्बलेश्वरी
देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। कहने का तात्पर्य यह कि रतनपुर राज्य के 36
जनपदों (गढ़ों) के आधार पर छत्तीसगढ़ नाम पड़ा, यह तर्कसंगत प्रतीत नहीं
होता। दरअसल, गढ़ शब्द को सीमित अर्थों में मान लिया गया, मालूम होता है।
गढ़ शब्द के प्रचलित अर्थों में और भी मायने प्रयुक्त होते रहे हैं। 'गढ़'
शब्द का इस्तेमाल सामान्यत:उस रूप में भी होता है जहां खास चीज की बहुलता
होती है या फिर वह स्थान जहां व्यक्ति विशेष या विशेष गुणों की छाप जीवंत
होती है। यह अलग बात है कि समय के साथ नाम के कारणों को जानने की महत्ता या
जिज्ञासा कम हो जाती है अथवा काल के प्रवाह में मूल शब्द अपभ्रंश होकर
अपनी पहचान खो बैठते हैं।
घूम-फिरकर बात वहीं पहुंचती है, आखिर इस अंचल का नाम छत्तीसगढ़ कब और कैसे
पड़ा? रामायणकाल में इसे दंडाकारण्य और बौद्धकाल में महाकांतार, के अलावा
दक्षिण कोसल नाम से भी यह क्षेत्र उल्लेखित होते रहा है। हैहयवंशी राजा सन्
950 के आसपास यहां आए थे। ऐसा इतिहासकारों का मत है। जब हैहयवंशी यहां आए
तब भी इस क्षेत्र का कोई-न-कोई तो अवश्य रहा होगा? क्या नाम हो सकता है? इस
सवाल का सहजता से उत्तर देना या अनुमान लगाना कठिन है।
इस कठिनाई के बावजूद कुछेक बिन्दुओं पर इतिहासकारों को अवश्य गौर करना
चाहिए। छत्तीसगढ़ की सीमा से सटा हुआ क्षेत्र महाकोशल है। महाकोशल की
अघोषित राजधानी जबलपुर है। जनश्रुति हैं- जबलपुर का नाम वैदिक काल के ऋषि
की याद में है। ऋषि जब्बाल का आशय नर्मदा क्षेत्र में ही था। जब्बाल से
धीरे-धीरे वह पौराणिक नाम जबल बना और फिर जबलपुर। नर्मदा घाटी का यह
क्षेत्र अति प्राचीन है। पुरावेत्ताओं के अनुसार नर्मदा घाटी के आसपास
प्राचीन प्राचीन सभ्यता थी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र वस्तुत: नर्मदाघाटी क्षेत्र
का ही विस्तार है। इस क्षेत्र में घनघोर जंगल थे। और यह वैदिक काल में
ऋषि-मुनियों की तपोभूमि थी। पौराणिक काल के कुछेक ऋषियों के यहां होने का
उल्लेख मिलता है। जैसे यह माना जाता है कि सिंहावा क्षेत्र में ऋंगी ऋषि का
आश्रम था। (उन्होंने ही राजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न
कराया था।) राजिम में त्रिवेणी संगम के समीप लोमस ऋषि का आश्रम है।
जनश्रुतियों के अनुसार तुरतुरिया के वन क्षेत्र में महर्षि वाल्मीकि का
आश्रम था। यहां पर इन बातों के उल्लेख का अर्थ यह है कि इस अंचल में
ऋषि-मुनि रहा करते थे और तपस्या करते थे।
भगवान श्रीराम वनवास काल में दंडकारण्य आए थे और भक्तों-तपस्वियों से मिले
थे। शिवरी नारायण को शबरी-नारायण के रूप में भी माना जाता है। बहुत संभव है
वैदिक काल में किसी प्रज्ञावान (कवि) व्यक्ति ने इस अंचल को सप्तर्षि भूमि
(सात ऋषियों की तपोभूमि) कहा हो। कालान्तर में अपभ्रंश होते-होते
सप्त-ऋषि से छप्तश्रृषि, फिर छत-ऋषि, छतरीषि, छतरिष भूमि हुआ जो
राजाओं-श्रीमंतों (सामंतों) के काल में कवियों-विद्वानों की कलम से होते
हुए छतरिष-भूमि, छत्तीस-गढ़ में तब्दील हो गया हो। हालांकि इस बात को पुष्ट
तौर पर नहीं कहा जा सकता। कइयों को यह बेतुकी धारणा भी लग सकती है लेकिन
विचार किया जाना चाहिए कि जब्बाल नाम जब- जबलपुर हो सकता है तब सप्त-ऋषियों
की भूमि का नाम बदलते-बदलते छतरिष और फिर छत्तीसगढ़ भी हो सकता है।
छत्तीसगढ़ी में स को छ जैसा आज भी उच्चारित करते हैं। वस्तुत: यह विषय
इतिहासकारों से ज्यादा भाषाविदों के विचार करने योग्य मालूम होता है। काल
विशेष के विद्वान ही धारणाओं को खारिज या पुष्ट करते हैं। बहरहाल,
विद्वानों से विनम्र आग्रह है, छत्तीसगढ़ के नाम के साथ सप्त-ऋषि-गढ़ नाम
पर भी चिंतन-मनन किया जाए।
(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार व रायपुर से प्रकाशित सांध्य दैनिक जनदखल के संपादक हैं)
आज एक नवंबर छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस है। सर्वजन को बधाई और शुभकामनाएं
01 November 2012
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 टिप्पणी:
राम यहीं से होकर निकले थे, वहीं से ही इसका महत्व प्रारम्भ हो जाता है।
जानकारीपरक रोचक आलेख.
''छत्तीसगढ़ में 12 रियासतों का उल्लेख मिलता है जिनमें बस्तर, कांकेर, राजनांदगांव, खैरागढ़, छुईखदान, कवर्धा, सक्ती, रायगढ़, सारंगढ़, सरगुजा, उदयपुर-धर्मजयगढ़ और चांगमखार।''
मुझे लगता है कि इस सूची में जशपुर और कोरिया का नाम भी होना चाहिए, यानि कुल 14.
Post a Comment