चोला-माटी के बहाने छत्तीसगढ़ी गीत की रॉयल्टी को लेकर उपजा विवाद
अरुण काठोटे
अरुण काठोटे
अरूण काठोटे |
सवाल यह है कि हमारी चीजें राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में रेखांकित होने पर ही यहां के कलाकारों का स्वाभिमान क्यों कुलांचे मारता है? गत वर्ष भी सास गारी देवे.. को लेकर जब अखबारों में टिप्पणियां प्रकाशित हुई तब विधानसभा में विपक्ष ने स्थानीय संस्कृति के संरक्षण बाबत सवाल उठाए थे तथा मुख्यमंत्री ने उनके सवाल पर महज मुस्कुराकर उन्हें सांत्वना दी थी। सारे वाद-विवाद के बाद अंत में गीतकार प्रसून जोशी ने स्वयं इसका खुलासा किया था। सालभर हम महज इसी खुशी में नाचते रहे कि फिल्म में छत्तीसगढ़ी गीत लिया गया है। कलाकारों की उपेक्षा के दावे करते हितैषियों से ये पूछा जा सकता है कि इन्होंने खुद कितना लोक कलाकारों का संरक्षण किया? हबीब तनवीर की तुलना में इनके प्रयास कहां ठहरते हैं? बार-बार संस्कृति विभाग को उपेक्षा के लिए साधते इन कलाकारों को संस्कृति विभाग के मंच पर ही गाते हुए लोगों ने देखा है। इसी तरह इनमें शामिल एक रंगकर्मी ने भी विगत दिनों राज्य की प्रचलित 'गम्मत शैली' पर संस्कृति विभाग के सहयोग से एक वर्कशॉप किया था।
सबसे पहले तो इन कलाकारों को यह सोचना चाहिए कि छत्तीसगढ़ी संस्कृति पर जब भी कोई योगदान की बात उठती है तब हबीब तनवीर का ही नाम सबसे पहले क्यों आता है? चाहे बात देहली-6 की हो या फिर पिपली लाइव की, दोनों का प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध 'नया थिएटर' से है। सास गारी देवे.. इस गीत को हबीब साहब को उनकी मां ने 1930 में सुनाया था। जाहिर तौर पर पारंपरिक लोक गीत होने की वजह से इसके लेखक के बारे में निश्चित दावे नहीं किए जा सकते। इसे सबसे पहले हबीब साहब ने अपने नाटक 'मोर नांव दमाद गांव के नांव ससुरार' में इस्तेमाल किया था। इसी तरह पिपली लाइव का गीत चोला माटी के राम.. भी नया थिएटर की प्रस्तुति 'बहादुर कलारिन' में इस्तेमाल किया गया। न सिर्फ इतना पिपली लाइव में नया थिएटर के कलाकारों ने अभिनय भी किया है। चूंकि फिल्म की निर्देशक अनुष्का रिजवी, हबीब साहब की बेटी नगीन की अच्छी मित्र हैं लिहाजा फिल्म मे उन्होंने ग्रुप के कलाकारों का भी इस्तेमाल कर लिया। अब जबकि पिपली लाइव के प्रदर्शन की तारीख करीब आ रही है। ऐसे शगुफे छोड़कर वापिस इस फिल्म के गीत चोला माटी के राम... को गाकर फिर से यहां के गायक और अन्य मंडलियां कार्यक्रम हासिल करेंगे।
ऐसे अवसरवादी प्रचारों से इन्हें तात्कालिक लाभ तो मिल जाएगा लेकिन जिनकी बात ये करते हैं उन लोक कलाकारों का क्या भला होगा? भविष्य में फिर कोई छत्तीसगढ़ी गीत किसी फिल्म में आ जाए तो पुन: यही सिलसिला प्रारंभ हो जाएगा। निश्चित रूप से स्थानीय लोक कलाकारों को बेहतर मौके और उनका वाजिब हक उन्हें मिलना चाहिए लेकिन इसके लिए हितों की बात करते मंच के कर्णधारों को स्वांत: सुखाय की प्रवृत्ति को भी छोड़ना होगा। लोक कलाकारों के हितों की रक्षा की बात करने वाले हबीब तनवीर की तरह त्याग और समर्पण दिखाएं तभी मंच की सार्थकता नजर आएगी। अन्यथा बात फिर आई-गई ही रह जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी हैं।)
10 टिप्पणी:
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
संजीत भाई, पता नहीं क्या लोचा है, मुझे आपके ब्लॉग में फोंट्स के बदले केवल डाट डाट ही नज़र आते हैं
लोकगीतों को फिल्मों में डालने का क्रम बहुत पुराना है। समुचित आभार देने से प्रसन्नता बनी रहती है।
अरुण जी से जैसी उम्मीद थी, उसकी पूर्ति करता पोस्ट. आप दोनों को बधाई.
bahut hi badiya ..
acha laga apke blog par aakar.....
Meri Nayi Kavita aapke Comments ka intzar Kar Rahi hai.....
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बहुत बढ़िया पोस्ट संजीत जी.. तथ्य परक जानकारी, मुझे नहीं मालूम था की 'सास गारी देवे' गाने वाले स्टेज शो वगेरह से धन कमा रहे हैं.
ऐसा ही कुछ निम्बुड़ा के साथ हुआ, गीत फिल्म में आने के बाद लोक गायकों द्वारा गाया गया. पहले वह गीत लोकगीत था या फिल्म में आने के बाद मारवाड़ी शब्दों के चलते उसे लोकगीत बना लिया गया !!?
एक अच्छी पोस्ट के लिए बधाई स्वीकारें
मनोज खत्री
sundar aalekh!
ऐसे में जो पैसा गीतकार को मिलना चाहिए था वह लोक कलाकारों के भले के लिए दे दिया जाना चाहिए। फ़िल्म में कुछ भी मुफ़्त में क्यों हो?
घुघूती बासूती
hmmm...संजीत ji...lokgeeton aur hmaari lok sangeet dhrohar ke baare me aapke khyaal jaan kr bahut cha lgaa..bde nek vichaar hain aapke.
bdhaayi
take care
आपने बिल्कुल सही लिखा है | लोकगीत तो बहुत पहले से फ़िल्म जगत में लिए जाते रहे है |पर
केवल किसी फ़िल्म को प्रमोट करने के लिए या
प्रसिद्ध करने के लिए इतना कुछ किया जाए ,क्या यह उचित है ?बहुत अच्छी रचना |
आशा
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