बीते दिनों में छत्तीसगढ़ में बहुत कुछ हुआ, इन बहुत कुछ होने के दौर में मेरे कुछ अपनों नें मुझे टोका कि क्या बात है इतना कुछ हुआ लेकिन तुम्हारा ब्लॉग खामोश क्यों है। जवाब मेरे पास नहीं था पर मन में कुछ शायद बहुत कुछ चल रहा था।
जो कुछ हुआ उसमें बारिश की राह तकती आंखों को उपरवाले ने इतनी बारिश दे दी कि बाढ़ की आशंका से कोसों दूर बसे रायपुर शहर में बाढ़ के हालात आ गए। राजधानी कहलाने वाले इस शहर के कुछ हिस्से तो मानों टापू बन गए थे। एक इलाके का आलम यह था कि वहां बारिश के जल निकासी के लिए समूची सड़क को ही काटना पड़ा उसके अलावा वहां अपने घर की छतों पर बैठे लोगों को बचाने के लिए मोटरबोट का सहारा लेना पड़ा। 24 घंटे की बारिश का 100 साल का रिकार्ड टूटा।
पर बारिश हुई तो सही, बारिश का होना ज्यादा जरुरी था न होने से, भले ही ऐसे हालात वाली बारिश हुई।
इसके बाद हुआ स्वर्गीय साहित्यकार प्रमोद वर्मा की स्मृति में दो दिवसीय एक साहित्यिक आयोजन। आयोजनकर्ता थे राज्य पुलिस के मुखिया विश्वरंजन जी। कहीं न कहीं यह प्रतीत हुआ कि यह आयोजन होने से पहले ही राजनीति का शिकार हुआ, साहित्यकारों की आपसी राजनीति का। जिसके चलते विश्वरंजन जी को बाकायदा मीडिया के माध्यम से एक लेखनुमा पत्र लिखकर यह कहना पड़ा कि वे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष इसलिए नहीं हैं कि वे डीजीपी हैं, वे इसलिए हैं क्योंकि प्रमोद वर्मा जी से उनकी निकटता थी।
खैर ऐसा अपन ने पहली बार देखा कि एक डीजीपी स्तर का अफसर और वह भी रिटायर्ड नहीं वर्तमान में पदस्थ इस तरह की साहित्यिक राजनीति के दांवपेंच खेल रहे हैं।
पहले भी चर्चा हो चुकी है कि एक सिपाही कविता क्यों नहीं लिख सकता। अपना तो मानना है कि बिलकुल लिख सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि कब?
अपना मानना है कि सिपाही तो शांतिकाल में ही कविता लिख सकता है, जब युद्ध के बादल न मंडरा रहे हों, गोलियों की आवाज कानों में न गूंज रही हो तब लिख सकता है सिपाही कविता। लेकिन अगर युद्ध के हालात हों, दिन ब दिन माटीपुत्र शहादत का वरण कर रहे हों तब कैसे एक सिपाही कविताओं में खोया रह सकता है?
जैसा कि अपन ने पहले ही कहा कि बीते दिनों छत्तीसगढ़ में बहुत कुछ हुआ लेकिन इस बहुत कुछ में सबसे बड़ी बात यह हुई कि नक्सलियों ने अब तक का सबसे बड़ा हमला बोलते हुए राजनांदगांव के मदनवाड़ा इलाके में जवानों को घेर हमला किया। खबरें बताती हैं कि पहली बार इतनी बड़ी संख्या में एकत्र होकर नक्सलियों ने इस घटना को अंजाम दिया। इस घटना में न केवल जवान शहीद हुए बल्कि एक एसपी वीके चौबे जी भी शहीद हुए।
यह घटना स्व प्रमोद वर्मा स्मृति आयोजन खत्म होने के ठीक दूसरे दिन घटी।
सिपाही कविता कैसे लिख सकता है भला ऐसे में? वह भी तब जब छत्तीसगढ़ जैसा राज्य शुरु से ही न केवल नक्सल इलाका रहा है, बस्तर व कुछ अन्य इलाकों मे तो एक तरह से युद्ध के ही हालात हैं।
स्वर्गीय वीके चौबे जी को ऐसे पुलिस अफसर के रूप में याद किया जाएगा जो न केवल शहीद हैं बल्कि अपने व्यवहार के चलते वे जनसामान्य में भी काफी लोकप्रिय थे उनकी शवयात्रा इस बात का गवाह है। उनकी शवयात्रा तो इस बात का भी गवाह है कि पुलिस के जो आला अफसर जो जंगलवार में शायद ही कभी जाते हों, वे भी अंत्येष्ट के दौरान सामान्य वर्दी की बजाय बकायदा जंगलवार वाली वर्दी में थे। अपन को यह बात समझ में नहीं आई, संभव है किऐसा नियमों में लिखा हो।
नमन शहीद चौबे जी और शहीद जवानों को
फिर इसके बाद क्या हुआ, हुआ वही जो होता आया है। राजनीतिक बयानबाजी, नक्सलियों को खदेड़ देंगे, ये कर देंगे वो कर देंगे। मतलब यह कि राजनीति चलती रहेगी और जवानों के शहीद होने का क्रम अभी और चलता रहेगा।
इसके बाद यह भी हुआ कि 12 मई को घटी इस घटना के पांच दिन तक सरकार समेत पुलिस के आला अफसरों को फुर्सत नहीं मिली कि वे मदनवाड़ा इलाके में घटनास्थल पर जाएं। अब इसे क्या कहें, जवान शहीद हों तो हों पर नीति निर्धारकों को घटनास्थल का मुआयना करने की भी फुर्सत नहीं। बीते रविवार को घटी इस घटना के बाद आखिरकार शुक्रवार को राज्य के गृहमंत्री समेत अफसरों को भी फुर्सत मिली और वे पहुंचे मुआयना करने के लिए।
इसके बाद एक और अच्छी खबर मिली कि डीजीपी साहब उस इलाके में गए हैं और रुकेंगे, कैंप करेंगे।
यह हुई न एक अच्छी बात, इससे निश्चित तौर पर जवानों का मनोबल बढ़ेगा। लेकिन जवानों के शहीद होते रहने का सिलसिला कब रूकेगा, कब राजनीति स्टैंड लेगी नक्सल मुद्दे पर?
तो यह है छत्तीसगढ़, द मोस्ट हैप्पेनिंग स्टेट
मिलते हैं फिर अगली बार, जल्द ही।
10 टिप्पणी:
शेर की नींद में खलल?
बहुत सही लिखा है। युद्ध के दौरान सिपाही कविता नहीं लिखता। उस समय तो वह हथियारों से शत्रु की पीठ पर कविता लिखता है।
पर शत्रु कौन है? अभी तक तो युद्धरत राजा और सेनापतियों को यह भी पता नहीं है। वे पता नहीं किस से लड़ रहे हैं?
नक्सल समस्या से निपटने के तरीके खोजने होंगे। उन से सीधे नहीं लडा़ जा सकता। नक्सलियों के साथ जो जनता (आदिवासी) हैं वह तो देश की जनता ही है न? एक जनप्रतिनिधि राजा जनता से नहीं लड़ सकता। लड़े तो जीत नहीं सकता। इस लड़ाई का तो एक ही हल है वह है जनता को शत्रु से काट देना, अलग-थलग कर देना। तब शत्रु या तो स्वयं मर जाएगा या रण छोड़ भाग लेगा।
पर इस जनता को कैसे शत्रु से अलग किया जाए? उस की योग्यता भी इन राजाओं में है या नहीं? क्या वे शत्रु के साथ खड़ी जनता में शत्रु के प्रति विश्वास कम करने में और अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करने में सफल होंगे?
छत्तीसगढ़ के बुद्धिजीवियों और राजनेताओं को इस पर विचार करना चाहिए।
अब वाकई लगने लगा है कि मोस्ट हैपनिंग स्टेट है!
कविता कोई लिखी थोड़े ही जाती है....बन जाती है...आश्चर्य तो यह है जहाँ जान अटकी हो मगर फ़िर भी कविता! यह तो कोई ऎसी बात हुई की तलवार नही कलम की धार बन गई हो तलवार...सोचने वाली बात है।
बहुत दिन बाद आई हूँ संजीत जी आपके ब्लॉग पर अच्छा लगा पढ़ना...
आना ही पड़ेगा आप जैसे युवाओं को आगे
संजीत तुम्हारा जाग जाना ही काफ़ी है।सच मे पिछले दिनों बहुत कुछ हुआ और जो कुछ भी हुआ वो छत्तीसगढ के लिये ज़रा भी अच्छा नही हुआ।किसी के कवि होने से किसी को भी ऐतराज नही है मगर तुम्हारा कहना सही है कि कविता युद्ध के समय्…………।खैर कहा तो बहुत कुछ गया मगर इससे विनोद चौबे और शहीद जवान वापस ज़िदा तो होने से रहे।करने दो कविता साहब लोगो को मरने दो जवानो को रोने के लिये उनके परिजन और हम-तुम तो है ही ना,फ़िर नेता भी है कागज़ी आंसू बहाने के लिये और सरकार भी है अनुकम्पा नियुक्ती देने के लिये।क्या लोग अनुकम्पा नियुक्ति के लिये नौकरी करते है?जाने दो गुस्सा आया तो।।
छत्तीसगढ़ सच में मोस्ट हैपनिंग स्टेट है, भगवान करे कि हैप्पी स्टेट भी बन जाए
संजीतजी,
पहले तो विलंब से ईमेल पढ़ने के लिए क्षमा चाहुंगा। अब आपके ब्लाग में लिखे विचारों का जिक्र करुंगा।
पहले तो आपको बता दूं कि ईमेल पढ़ने में विलंब का कारण यह था कि जिस समय रायपुर के पत्रकार लिखने में व्यस्त थे, उस समय मैं जगदलपुर से बीजापुर के धुआंधार दौरे पर था। किसी को बताया नहीं था। न पुलिस को और ना ही किसी अन्य अधिकारी को।
मैं इसके पहले भी तीन बार इन क्षेत्रों का दौरा कर चुका हूं। तीनों बार में हालात अलग दिखे। इस बार भी हालात कुछ अलग दिखे। जब घनघोर बारिश में बीजापुर का संपर्क गीदम से कटने जैसा हो गया था उस समय भी बसें चल रही थीं। लोग आना-जाना कर रहे थे। बसें पूरी रफ्तार से दौड़ीं। बीजापुर में जनजीवन सामान्य जैसा ही था। हां, एक बात अवश्य पिछली दफा जैसी ही थी, वह थी लोगों की आंखों की अजीब सी दहशत। नए आदमी को देखते ही वे आशंकित हो देखते हैं। लेकिन इस बार वह दहशत कम थी। लगभग ६ माह के अंतराल का यह परिवर्तन था।
आपके ब्लाग में जो टिप्पणियां पढ़ीं, वे कुछ अजीब सी थीं। आपका लिखना तो एक पत्रकार की व्याकुलता है क्योंकि कवि भले ही युद्ध के मैदान में कविता न कर पाए, जैसी बातें प्रचलित हैं लेकिन एक पत्रकार तो युद्ध के मैदान में भी रिपोर्टिंग के लिए ही जाता है।
संजीतजी, जिस समय मोहला-मानापुर वाली वारदात सामने आई, मैं नागपुर में था। क्षोभ तो मुझे भी बहुत था। डीजीपी को मैंने भी मन में जमकर कोसा था। कारण वही था साहित्य गोष्ठियां। इसके बाद ही मैंने फैसला किया कि जरा एक बार फिर जमीनी हकीकत देख कर आया जाए। इसलिए चला गया। मुझे मालूम था कि बारिश में जाना खतरे से खाली नहीं है, फिर भी गया। अब दो दिन आराम करने के बाद आपके सामने कुछ बातें रखना चाहता हूं।
आपके ब्लाग पर की गईं टिप्पणियां यह तो स्वीकार करती हैं कि यहां युद्ध जैसी स्थिति है। युद्ध के मैदान में सब कुछ होता है। न तो वहां मानवाधिकार की वकालत होती है और न ही टीकाटिप्पणी से युक्त हम जैसे पत्रकारों की कलम चलती है। वहां राष्ट्रप्रेम का एक जज्बा होता है।
द्विवेदी जी ने लिखा है कि नक्सलियों के साथ सीधे नहीं लड़ा जा सकता है। क्योंकि उनके साथ आदिवासियों के रूप में देश की जनता है। आप ही बताइये संजीत जी कि क्या अपराधी देश के नागरिक नहीं होते। फर्क सिर्फ इतना होता है कि कोई गुमराह होकर गलत काम करते हैं तो कोई आदतन होते हैं मगर कानून को तो अपना काम करना ही होता है। बस्तर में तो आदिवासी भाई इतने गुमराह हैं कि उन्हें यह भी नहीं मालूम कि वे गलत काम कर रहे हैं। नक्सलियों ने इस कदर उन्हें गुमराह किया है कि उन्हें कुएं के आगे की दुनिया ही नहीं दिखती है। इसे ही तो दूर करना है। लेकिन जो नक्सली ३००० करोड़ रुपए के रेड कारीडोर का हिस्सा हैं, उनसे तो सीधा ही निपटना होगा। जिस आदिवासी जनता की बात की जाती है, वो बुरी तरह गुमराह और आशंकित है।
बीजापुर में कुछ बुद्धिजीवियों से इस मुद्दे पर चर्चा हुई। मेरा एक ही मत है कि पहले इस बात का निर्णय तो कर लें कि क्या गलत है और क्या सही है। फिर हल की बात करेंगे। सीधी सी बात है कि अपराधों की आड़ में लोकतंत्र से विश्वास खत्म नहीं किया जा सकता। हां, अपराधों की रोकथाम के लिए आवाज उठाई जा सकती है।
मैंने पिछले दौरे के बात वहां की वस्तुस्थिति पर जनसत्ता में श्रृंखला चलाई थी। मुझे खुशी हुई कि जिन जमीनी हकीकतों को मैंने उजागर किया था, उस पर सरकार ने गंभीरता से अमल करना शुरू कर दिया है। इसकी एक लंबी फेहरिस्त है। वापस पहुंच कर मैं फिर एक बार इस पर लिखुंगा।
लेकिन, संजीतजी एक ही बात कहुंगा कि थोड़ा सब्र करने में कोई बुराई नहीं है। हां, हमारे जैसा पत्रकार राजनांदगांव जैसी घटना पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त करता है लेकिन उसकी आड़ में हम नक्सलियों को सही और पुलिस को गलत कैसे ठहरा सकते हैं। अनिल पुसदकरजी जैसे वरिष्ठ पत्रकार का आपको व्यंगात्मक अंदाज में यह कहना कि देर से जागे हो.... क्या इंगित करता है। जिस प्रकार किसी भी पुलिस कर्मी का गलत काम ज्यादा गंभीर माना जाती है, उसी प्रकार किसी पत्रकार या बुद्धिजीवी साहित्यकार का वैचारिक दिवालियापन भी गंभीर है।
एक बार फिर क्षमा चाहुंगा कि टिप्पणी लिखते-लिखते मैं लेख जैसा कुछ तो भी लिख गया। इसे एक पत्रकार हृदय की संवेदनशीलता ही मानियेगा। आपने कुछ भी गलत नहीं लिखा है। जो आपने लिखा है वही विचार मेरे मन में भी आए थे।
इस मुद्दे पर अपना लेखन जारी रखिये। हम जैसे सकारात्मक सोच वाले पत्रकारों की रायपुर में बहुत आवश्यकता है। आवश्यकता तो निःस्वार्थ सेवा वाले एनजीओ की भी है जो बस्तर में नक्सलियों का पुनर्वास करा सके।
नमस्कार
अंजीव आपने एक बड़ा काम किया युद्ध क्षेत्र में जाकर हालत देखने का . बधाई के पत्र हैं सही स्तिथि की जानकारी के लिए अन्यथा लोग तो ये कहते हैं रायपुर बैठे पत्रकारों को बस्तर का क्या पता . जहाँ तक अनिल की संजीत के बारे में टिप्पणी का सन्दर्भ है वह संजीत के काफी समय तक ब्लॉग से दूए रहने के बारे में था .
Apke jajbe ko salam...lajwab prastuti.
शब्द-शिखर पर नई प्रस्तुति - "ब्लॉगों की अलबेली दुनिया"
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