माधवराव सप्रे जी का जन्म जून 1871 में दमोह जिले के पथरिया ग्राम में हुआ था। बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। 1899 में कलकत्ता
विश्वविद्यालय से बी ए करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रुप में शासकीय नौकरी मिली लेकिन जैसा कि उस समय के देशभक्त युवाओं में एक परंपरा थी सप्रे जी ने भी शासकीय नौकरी की परवाह न की।सन 1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नही था तब इन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से "छत्तीसगढ़ मित्र" नामक मासिक पत्रिका निकाली। हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन
साल ही चल पाई। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहां हिंद केसरी के रुप में छापना प्रारंभ किया, साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी
ग्रंथमाला भी प्रकाशित की।आपनें कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई।
सप्रे जी की कहानी एक टोकरी मिट्टी (जिसे बहुधा लोग "टोकनी भर मिट्टी" भी कहते हैं) को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है।
सप्रे जी ने लेखन के साथ-साथ विख्यात संत समर्थ रामदास के मराठी दासबोध व महाभारत की मीमांसा,दत्त भार्गव,श्री राम चरित्र,एकनाथ चरित्र और आत्म विद्या जैसे मराठी ग्रंथों,पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी बखूबी किया।
1924 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। यह दोनो विद्यालय आज भी चल रहे हैं।
हिंदी के इस पहले कहानीकार का निधन 26 अप्रेल 1926 को हो गया।
सप्रे जी के कुछ स्मरणीय कथन:-
1---"मैं महाराष्ट्री हूं पर हिंदी के विषय में मु्झे उतना ही अभिमान है जितना कि किसी हिंदीभाषी को हो सकता है।"
2---"जिस शिक्षा से स्वाभिमान की वृत्ति जागृत नहीं होती वह शिक्षा किसी काम की नहीं है"
3---"विदेशी भाषा में शिक्षा होनें के कारण हमारी बुद्धि भी विदेशी हो गई है।"
पाठकों के लिए प्रस्तुत है सप्रे जी द्वारा लिखित हिंदी की पहली कहानी
"एक टोकरी भर मिट्टी"
किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोपड़ीं थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोपड़ी हटा ले। पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी। उसका पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पांच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थीं। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दुख के फूट–फूटकर रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना,तब से वह मृतप्राय हो गयी थी। उस झोपड़ीं में उसका मन ऐसा लग गया था कि बिना मरे वहां से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए। तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि
उसे यहां से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली कि "महाराज,अब तो यह झोपड़ी तुम्हारी ही हो गयी है। मैं उसे लेने नहीं आयी हूं। महाराज क्षमा करें तो एक बिनती है।" जमींदार साहब के सिर
हिलाने पर उसने कहा कि "जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना–पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल¸ वहीं रोटी
खाऊंगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊंगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज¸ कृपा करके आज्ञा दीजिए तो
इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।" श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोपड़ी के भीतर गयी। वहां जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। अपने आन्तरिक दुख को किसी तरह सम्हालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से
भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आयी। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी कि "महाराज¸ कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूं।"
जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए,पर जब वह बार–बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गयी। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने
आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा,पर जिस स्थान पर
टोकरी रखी थी वहां से वह एक हाथ–भर ऊंची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे कि "नहीं,यह टोकरी हमसे न उठायी जावेगी।"
यह सुनकर विधवा ने कहा, "महाराज नाराज न हों,आप से तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठायी जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियां मिट्टी पड़ी है। उसका भार आप जन्म भर क्यों कर
उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए!"
जमींदार साहब धन–मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे पर विधवा के उपरोक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोंपड़ी
वापस दे दी।
संदर्भ- 1-डाक्टर मन्नूलाल यदु द्वारा प्रकाशित "छत्तीसगढ़ की अस्मिता" 2-"सर्वज्ञ"पर उपलब्ध सामग्री
4 टिप्पणी:
अत्यंत सुन्दर. बन्धु, आपने यह कहानी जो उपलब्ध कराई उससे तो पोस्ट पर चार चांद लग गये. भैया, अब लगा कि हिन्दी ब्लॉगरी में ऊर्जा है... बहुत धन्यवाद.
माधव राव सप्रे जी की कहानी टोकरी भर मिट्टी का नाम लेते ही एक विशेषण याद आता है और वह है – हिन्दी साहित्य की पहली कहानी।
नन्दलाल दुबे का चेले और पेन्ड्रा राज के राजकुमार के गुरु सप्रे जी हमारे छत्तीसगढ के शान है आपने सप्रे जी की कहानी को अपने चिठ्ठे मे डाल कर हमारा मान बढाया है हिन्दी साहित्य से प्रेम रखने वालो को इसे अवश्य पढना चाहिये इसे सुलभ बनाया उसके लिये धन्यवाद ! सन्जीत जी लिखते रहे . . .
साधुवाद मित्र. एक विलक्ष्ण जानकारी उपलब्ध कराई. इसे विकी पिडिया पर डाला जाये.
भावना प्रधान कहानी. कृपया इसी प्रकार देश का समृद्ध साहित्य सबके साथ बाँट्ते रहिए.
Post a Comment