मौसम भी बड़ा बेईमान होता है, गर्मी दे रहा था तो जोरदार, बारिश में बस कंजूसी लेकिन कई जगह उसमें भी अति, अब ठंड दे रहा है तो ऐसे कि न पूछिए। यूरोप, अमेरिका, कश्मीर तो छोड़िए, छत्तीसगढ़ का शिमला कहलाने वाले इलाके मैनपाट-अंबिकापुर में भी पारा शून्य पर है। यहां भी बर्फ जमने लगी है। ऐसा लगता है कि हम हिमयुग की ओर चल पड़े हैं। कुछ साल पहले ग्लोबल वार्मिंग की चिंता में हमारे वैज्ञानिक व बुद्धिजीवी दुबले हो रहे थे तो अब ग्लोबल कूलिंग को लेकर होंगे।
वैसे सच कहूं तो बुद्धिजीवियों का भी कुछ समझ में नहीं आता। न जाने कब किस चिंता में दुबले होने लगें। कभी ये तो कभी वो। पता नई उनके घरवालों के लिए कुछ चिंता बचती भी होगी या नहीं करने के लिए। हाल फिलहाल छत्तीसगढ़ की एक अदालत द्वारा दिए गए फैसले को लेकर जहां भर के बुद्धिजीवी चिंतित हैं। उन्हें लगता है कि ये लोकतंत्र की हत्या है।
भईया, जिस लोकतंत्र की हत्या का ढिंढोरा पीट रहे हैं आप, उसी लोकतंत्र में यह व्यवस्था है कि आप उपरी अदालत में अपील कर सकते हैं। और जिस लोकतंत्र की हत्या का रोना आप रो रहे हैं, उसी लोकतंत्र की ही महिमा है इस देश में कि आप अदालत के फैसले पर टीका-टिप्पणी कर पा रहे हैं। और कोई देश होता तो अदालती फैसले पर टीका-टिप्पणी के आरोप में आपका पुलंदा बांध दिया गया होता।
बुद्धिजीवियों की यह बात भी समझ में नहीं आती कि अदालती फैसले से उन्हें लोकतंत्र की हत्या होते तो नजर आती है लेकिन नक्सल हिंसा के दौरान उन्हें आम आदमियों का मारा जाना, वसूली करना, स्कूल भवनों का उड़ा दिया जाना नजर नहीं आता।
लगता है वे सिर्फ लोकतंत्र की हत्या(?) होने पर ही बयान जारी करते हैं या अपने ब्लॉग या चिट्ठाचर्चा में लिखते हैं, बाकी आम आदमी की हत्या से कोई मतलब नहीं। शिक्षा का अधिकार के जमाने में स्कूल भवनों के उड़ाए जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
खैर, चश्मा अपना-अपना, अपने चश्में से हम वही देख सकते हैं जो देखना चाहते हैं। चश्में से बात याद आई, मुझे अपने चश्में का नंबर बढ़वाना पड़ेगा ताकि और अच्छे से विज़न आ सके।
ये भी बाद में, फिलहाल तो गर्दन की नस चढ़ी हुई है पिछले चार दिनों से इन बुद्धिजीवियों की ऊंचाई देखते हुए, गर्दन ही टंग गई है एकतरफा। सो दफ्तर से छुट्टी लेकर घर पे बैठे हुए हैं, दर्द झेलते हुए, ना-ना, सारे जहां का दर्द नहीं फिलहाल सिर्फ़ अपनी गर्दन का दर्द।
अब सोच रहा हूं कि नाई के पास जाऊं या किसी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के पास, गर्दन की नस का इलाज कराने. लेकिन नाई के झटके से तो ऐसा डर लगता है कि सोचकर ही सिहर जा रहा हूं।
नए साल की भली शुरुआत हुई है टंगी हुई गर्दन के साथ। नए साल की यह पहली पोस्ट बुद्धिजीवियों से लेकर चश्में और टंगी गर्दन के नाम। नव वर्ष की बधाई और शुभकामनाएं आप सभी को।
शुभ हो, ख्वाब पूरे हों।
04 January 2011
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15 टिप्पणी:
badhiyaa
आपको और आपके परिवार को नव वर्ष की अनंत मंगलकामनाएं
नव-वर्ष की अनंत-असीम शुभकामनाएं....
अपना ख्याल रखिए अच्छी तरह.
कुछ इस तरह से वयां किया है आपने अपना दर्द कि हमें भी दर्द होने लगा ...लोकतंत्र शब्द का प्रयोग करके आपने दर्द को सार्वजानिक कर दिया ...सोचने पर मजबूर करती पोस्ट बहुत बढ़िया ...शुक्रिया
नव वर्ष कि असीम शुभकामनायें ..स्वीकार करें
भाईया आप की गर्दन तो सुराई दार लगती हे, बहुत सुंदर:) अब क्या हाल हे आप की इस नाजुक गर्दन का, नये साल की सुभकमनाऎ जी.
जब गर्दन तकलीफ दे रही है तो कोम्पुटर पर आँखें गड़ा कर किसने कहा पोस्ट करने को?
फिर भी काफी कुछ सोच डाला और लिख भी दिया नए साल पर, तो शुरुआत अच्छी हुई है तो साल भर अच्छा लिखते रहिये
लोकतन्त्र भी जीवित है और न्यायपालिका भी, न्याय अन्ततः तो मिलेगा ही।
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनांए. छत्तीसगढ़ के बात दिल्ली पहुंचत तक बारा हाथ के खीरा हो जथे का करबे.
नया साल शुरू करें, नई उम्मीदों के साथ, शुभकामनाएं.
गर्दन वाले समस्या बहुत खीज पैदा करती है !
पोस्ट पर संजीव जी के कमेन्ट से सहमत !
आपको और आपके परिवार को नव वर्ष की अनंत मंगलकामनाएं
jan din ki bahut bahut badhai
aaj tumhara janmdin hai....badhai sanjit,
शीघ्र स्वस्थ होने की कामना है।
aap chhadm buddhijiwiyon kee gardan daboche rahie, aapki gardan to theek ho chuki hogi. naw warsh aapke liye "maanglik" ho
सहमत हूँ आपसे संजीत ! दर्द के लिए शुभकामनायें भैया !!
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