प्रति,
अरूंधति राय, लेखिका,मानवाधिकार कार्यकर्ता व एक्टिविस्ट जो दो दिन पहले छत्तीसगढ़ आईं थी
आदरणीया,
आप 2007 में रायपुर आईं थी। जब छत्तीसगढ़ सरकार ने राजधानी रायपुर में एक "मानवाधिकार कार्यकर्ता" को नक्सलियों को मदद पहुंचाने व उनसे संपर्क रखने का आरोप लगाते हुए गिरफ़्तार किया तो आप सबने रायपुर आकर यहां की भूमि को धन्य किया इसके लिए आप सबका आभार।
आप अभी दो दिन पहले भी रायपुर आईं और सही कहा कि हर लेखक को समाज सेवा करना चाहिये,और इस मुल्क मे जो भी चल रहा है उस पर लिखा जाना चाहिए।पत्रकारो को भी लिखना चाहिए।
यह तो सही बात कही आपने, पर एक बात, क्या बहते निर्दोष खून के खिलाफ लेखक को आवाज नहीं उठानी चाहिए?
आप या आपके साथी कार्यकर्ता जो अक्सर रायपुर आते हैं, नक्सलियों द्वारा निर्दोष खून बहाए जाने के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते?
ऐसा क्यों, क्या वे सही कर रहे है खून बहाकर?
आप लोगों ने यहां अपने साथी के लिए धरना दिया,प्रेसवार्ता ली और ज्ञापन सौंपे हैं। सच मानिए मेरा दिल भर आया कि अपने साथी की ऐसी चिंता करने वाले लोग आज के जमाने में भी मौजूद है। लेकिन कई बार एक सवाल मन में उठता है। लगता है आज आप लोगों से पूछ ही लूं,वो यह कि पिछले कई सालों से जब नक्सली आम लोगों की हत्याएं कर रहे हैं,बारूदी सुरंगे लगाकर विस्फोट कर पुलिस जवान समेत आम लोगों की हत्याएं कर रहे। सरकारी संपत्ति का नुकसान कर रहे हैं,ना जाने कितने मासूमों को अनाथ बनाए जा रहे हैं,बस्तर में रहने वाले व्यापारियों को जबरिया उनकी ज़मीन-ज़ायदाद से बेदखल कर बाहर भगा रहे हैं।
आप सबकी नज़र इन सब पर क्यों नहीं जाती?
क्या मारे जा रहे पुलिसकर्मी या आम लोग मानव नहीं हैं,क्या जीना उनका मौलिक अधिकार नहीं है?
जब नक्सली ऐसे नरसंहार करते हैं तो उसके विरोध में आप लोग छत्तीसगढ़ या राजधानी रायपुर में पधारकर इसे धन्य क्यों करते?
क्या नक्सली जो कर रहे थे/हैं, सही कर रहे थे/हैं?
और पिछली बार 2007 में आप सबके रायपुर से लौटने के बाद नक्सली और उग्र होकर जानलेवा गर्मी में समूचे बस्तर में जगह-जगह बिज़ली टावर गिरा रहें थे,बिज़ली सप्लाई लाईन काट जा रहे थे,यातायात बाधित किए जा रहे थे जिसके कारण वहां लोगो को खाद्यान्न व सब्जियां ढंग़ से नहीं मिली ना ही बिज़ली।
नक्सली बस्तर में "ब्लैक-आउट" के हालात पैदा कर रहे थे। तब, तब आप सब ने इसका विरोध क्यों नहीं किया, क्यों नहीं तब आप सब आए रायपुर विरोध प्रदर्शन करने, प्रेसवार्ताएं लेने व ज्ञापन देने या धरना प्रदर्शन करने?
आपका क्या विचार है नक्सली जो भी कर रहें हैं सही ही कर रहे हैं?
आप सब बहते निर्दोष खून को देखकर चुप कैसे रह जाते हैं? स्कूलों को तोड़े जाते देखकर भी खामोश कैसे रह लेते हैं? जान बचाने के लिए आदिवासियों को अपना गांव-घर-खेत छोड़ते देखकर भी आप कैसे निस्पृह रह लेते हैं? लेकिन जो मामले अदालत में चल रहे हैं उसके लिए आवाज जरुर लगा सकते हैं?
यह कैसा विरोध आपका?
हे विदूषी अरूंधति ज़ी,
दरअसल मैं ज्यादा समझदार नहीं हूं,दिमाग से पैदल हूं अत: ज्यादा सोच समझ नहीं पाता। बस जो देखा उसी के आधार पर यह पत्र दूसरे से लिखवा रहा हूं क्योंकि मुझे तो लिखना पढ़ना भी नहीं आता। क्या आप सब इस छत्तीसगढ़िया का आमंत्रण स्वीकार करेंगे कि आइए फ़िर से एक बार रायपुर,छत्तीसगढ़। आइए इस बार नक्सलियों के तांडव का विरोध करें,धरना दें और ज्ञापन दें नक्सलियों के खिलाफ़ क्योंकि जो मारे जा रहे हैं, तकलीफ़ पा रहे हैं वह भी मानव ही हैं और न केवल जीना बल्कि चैन से जीना उनका भी मौलिक अधिकार है।
निवेदन इतना ही है कि मै एक गरीब छत्तीसगढ़िया हूं। आप सबके आने-जाने का "एयर फ़ेयर" नहीं दे सकता न ही किसी अच्छे होटल में आपके रुकने का प्रबंध करवा सकता। बस! इतना ही कह सकता हूं कि अगर आप ऐसे नेक काम के लिए आएंगे तो इस गरीब की कुटिया हमेशा अपने लिए खुला पाएंगे और घरवालो के साथ बैठकर चटनी के साथ दाल-भात खाने की व्यवस्था तो रहेगी ही।
आपके उत्तर की नहीं बल्कि आपके आने के इंतजार में
आपका विनम्र
भोला छत्तीसगढ़िया
08 April 2009
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18 टिप्पणी:
पत्रोत्तर की प्रतीक्षा हमें भी है, बताइयेगा जरूर.
संजीत भाई, ये मानवाधिकार का पाठ्यक्रम अमेरिका में तैयार किया गया था, जिसका भारत और भारतियों से भी कोई सरोकार होगा, एक भोला भला भारतीय इस बात की कल्पना तो कर ही सकता है. लेकिन हकीकत कुछ और होती है भाई, जो बात आपने उठाई है कि आम जनता के मानवाधिकार की बात आखिर क्यों नहीं की जाती जो नक्सलियों की गोली से मरता है. अरे भाई जिसकी खाई उसकी बजाई, यह उक्ति तो आपने सुनी ही होगी. यह अजेंडा अमेरिका का है, कि भारत को अस्थिर रखो नक्सलियों, और चिंता मत करना तुम्हारे मानवाधिकारों का हनन भारत कि व्यस्था नहीं कर पायेगी, क्योंकि वहीँ के कुछ बिभीषन तुम्हारे मानवाधिकारों कि रक्षा करते रहेंगे, ताकि तुम भारत को लहूलुहान करते रहो और इसके लिए फंडिंग कि चिंता बिलकुल मत करना. पता नहीं क्यों मन में आता है कि मानवाधिकार के पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे बदलाव किये जाने कि जरुरत है जिससे कि आने वाली पीढी इसके सार्थक उपयोग से मानवता का कल्याण कर पाए और "मानवाधिकार" कि गरिमा बनी रहे. अन्यथा भावी पीढी भी इस पाश्चात्य पाठ्यक्रम कि पढाई करके मानवाधिकार के नाम पर साम्राज्यवादियों के अजेंडे को भारत में क्रिय्न्वित होने का अस्त्र बनकर रह जायेगी और फिर शायद तब इस देश को विखण्डित होने से कोई नहीं बचा पायेगा.
वाकई बहुत भोला है ये छत्तीसगढ़िया, जो नहीं जानता कि अरुंधती जैसे महान अंतर्राष्ट्रीय लेखक ऐरे-गैरों के सवालों के जवाब नहीं देते… :)
समाज के कंगूरे से अपेक्षा क्या करनी, नींव की ईंट की तरह काम करने वाला ही कोई भोले भाले मासूम छत्तीसगढ़िया का संताप हरने आएगा.
संजीत भाई,
मुझे खुद छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में हो रही हिंसा के बारे में अधिक जानकारी नहीं। लेकिन रायपुर में आप से व पुसदकर जी से जितनी जानकारी मिली थी उस से यह लगा था कि छत्तीसगढ़ में किसी तरह का नक्सलवाद नहीं है। जो कुछ हो रहा है उसे नक्सलवाद-या माओवाद कहना एक तरह से उस संगठित अवैध और अनैतिक हिंसा को गौरवान्वित करना है। जो लोग ये कर रहे हैं। वे भोले-भाले आदिवासियों को भी बहकावे में ले आते हैं।
इस हिंसा का मुकाबला लेखक के बस का नहीं। अपराधिक लोगों से निपटने के लिए पुलिस और सही न्यायव्यवस्था चाहिए। दूसरी ओर गुमराह किए गए आदिवासियों को राह पर लाने के लिए दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति और राजनैतिक हल जरूरी है। हिंसा ग्रस्त आदिवासी इलाकों में विकास की दुंदुभी बजानी होगी और वास्तविक विकास करना होगा। अपराधी सिर्फ इसीलिए कि विकास को अवरुद्ध किया जा सके तोड़ फो़ड़ के कदम उठाते हैं। जो आदिवासियों को उचित भी लगते हैं कि जिस विकास का उन्हें लाभ नहीं उसे क्यो न नष्ट कर दिया जाए। यदि छत्तीसगढ़ सरकार में दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति होती तो इस समस्या पर कब का काबू पाया जा सकता था।
इतनी उम्मीद कैसे कर ली ?
ये तो अच्छी इन्फर्मेशन हे / जानकारी केलिए दान्यवाद /
आप जो हिन्दी मे टाइप करने केलिए कौनसी टूल यूज़ करते हे...? रीसेंट्ली मे यूज़र फ्रेंड्ली इंडियन लॅंग्वेज टाइपिंग टूल केलिए सर्च कर रहा ता, तो मूज़े मिला " क्विलपॅड " / आप भी " क्विलपॅड " यूज़ करते हे क्या...? www.quillpad.in
सही सवाल उठाया- ये नक्सली मासूम लोगों की बजाय उन शोषक नेताओं को क्यों नहीं मारते जो लोगों के बीच खिलवाड कर के अपनी सत्ता जमाए बैठे है। ये तथाकथित प्रगतिवादी लेखक तो अलग ही खाद की पैदावर है ना!
इन भद्र महिला को दृष्टिदोष है क्या?
अजित वडनेरकर ई-मेल पर -
संजीत, बहुत महत्वपूर्ण पोस्ट है। इन तथाकथित मानवाधिकारों के रक्षकों से आम लोगों के हित में ऐसे सवालों की मुहिम छेडने की ज़रूरत है। नक्सली आंदोलन का न कोई लक्ष्य पहले था, न अब है। जिस तरह खालिस्तानी आंदोलन से तमाम गुंडे-मवाली जुड़ गए थे और अपना उल्लू सीधा कर रहे थे वही हाल नक्सली आंदोलन का हुआ है। साठ सालों में वनवासियों की बेहतरी के लिए अगर केद्र राज्य सरकारों की उदासीनता को ये लोग और नक्सली मुद्दा बनाते हैं तो इन्हीं वर्षों में इनकी तथाकथित सक्रियता का क्या लाभ उन वर्गों को मिल गया, इसका खुलासा उन्हें करना चाहिए। कटघरे में वे खड़े हैं। वनवासी सरकार से नहीं डरते, मगर नक्सलियों से डरते हैं। वनवासी सरकार की कठपुतली नहीं हैं, मगर नक्सलियों की ज़रूर हैं। वनवासियों के लिए सरकारी योजनाएं सब पर उजागर हैं मगर नक्सली उसे उन तक पहुंचने नहीं देना चाहते।
खालिस्तानी आंदोलन को जिस तरह कुचला गया, क्या वही तरीका, इच्छाशक्ति नक्सली आंदोलन को खत्म करने में नहीं आजमाई जानी चाहिए।
प्रिय संजीत.
एक नौकरीशुदा पत्रकार के तौर पर जो बात हम अपनी पत्रिका मे नहीं लिख सकते, उसे तुमने बहुत ही संजीदा ढंग से उठाया है, शुक्रिया और बधाई. मानव अधिकार के नाम पर यह सिर्फ नक्सालियों की बी टीम है, इससे ज्यादा कुछ नहीं.
उम्मीद है, लेखनी ऐसे ही चलती रहेगी.
Anil Dwivedi
Spl Correspondent, Chhattisgarh
The Sunday Indian
वाह सच ही कहा आपने...
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया और पता चला यंहा तो ज़मीन से जुडी सच्चाई और पोल खोल के जरिये किसी मंजिल की तलाश है.
भाई हम तो ये जानते है कि ऐसे लोग बकवास ज्यादा करते है और भोले मानुसो को ठगते है..
बाकी कुछ टिप्पणीकारो ने हमारी बात भी लिखी ही है..
आपकी कलम चलती रहे , सूरज का ताप आपके लक्ष्य को बेधेगा जरूर.
प्रियवर संजीत जी,
बिलकुल सही ढंग से
न्यौता दिया है आपने....
हवा के रास्ते ज़मीन की
जुगाली को धरातल पर लाने की
जुगत को हवा देना...साहस का काम है.
आपका पत्र उस दिशा में सार्थक पहल है.
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सस्नेह
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
संजीत जी लोग रंगीन चश्मा लगा कर देखते है . छत्तीसगढ़ के पत्रकारों और अखबारों ने ये बात लगातार उठाई है लेकिन शायद दिल्ली में किसी के कानो में जू नहीं रेंगती .बड़ी हस्तियों के आने से इनकी मुहिम को बड़े शहरों में कवरेज मिलता है छत्तीसगढ़ का नाम बदनाम होता है कि येहाँ मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है . ये अगर किसी जन जन से जुड़े व्यक्ति के समर्थन में यहाँ आते हैं तो उस व्यक्ति का यहाँ जनाधार कहाँ है ?
क्या यहाँ के सारे लोग जनविरोधी हैं
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भाई,
हम मुरीद हो गए आपके। आप जैसा नासमझ और दिमाग से पैदल सबको बनाए।
अब आप दिमाग से पैदल हैं इसलिए भोलेपन में आमंत्रण दे बैठे और साथ में कुटिया में चटनी-रोटी खिलाने का प्रस्ताव भी दे दिया।..भईया आप तो पैदल हैं और मैं तो दिमाग नाम की चीज से कोई वास्ता ही नहीं रखता लेकिन बिना दिमाग के भी ये बता सकता हूं कि ये लोग एसी कमरे में मुर्गे की टांग तोड़ते हुए, सिगरेट-वाइन जैसी चीजों को प्रगति का प्रतीक मानते हुए ही चिंतन या (अ)आंदोलन कर सकते हैं।
देख भइया भोले, अगर हमसे कोई गलती हो गई हो तो हमें माफ कर दियो।...और अरुंधति जी अगर हमारी बात आपको बुरी लगे, गुस्सा आवे तो हमें नक्सली समझ लियो। अगर आपने समझ लिया तो हमें माफी तो मिल ही जावेगी और आप जैसे लोग हमें देशभक्त, गरीबो का मसीहा, क्रांतिकारी बगैरह-बगैरह का दर्जा तो दे ही देंगे।
भाई आवारा बंजारा जी........मेरी बात को गाकर पढ़ना.......
दोगलापन....और पाखण्ड है इनकी बातों में.....
कुछ वहशी कुछ बहकी रातें हैं इनकी सारी रातों में.....
इनकी तू बात ना करना.......
इनसे कभी मुलाक़ात ना करना.....
समाज की बातें....असामाजिक कृत्य
जाने क्या करते हैं यह सब....
देखा है मैंने इन सेवकों को....
फर्जी हैं ये सब-के-सब......!!
हमें तो लगने लगा है कि प्रारंभिक नक्सलवाद और आज के नक्सलवाद में बहुत अंतर हैं. आज यह नक्सलवाद अरुंधती रॉय जैसे लोगों के द्वारा प्रायोजित जान पड़ता है या फिर इनके आका कहीं और हैं.
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