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26 October 2010

छत्तीसगढ़ का सफर : 80 साल पहले फूटी थी पहली चिंगारी

छत्तीसगढ़ राज्य एक नवम्बर को अपनी दसवीं सालगिरह मनाने जा रहा है, इस मौके पर अग्रणी समाचार पत्र दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार श्री सनत चतुर्वेदी ने इतिहास में झांकते हुए छत्तीसगढ़ राज्य  की संघर्ष यात्रा के सौ साल के उन क्षणों को अपने शब्दों में सहेजा है जिन क्षणों से गुजरकर इस राज्य की कल्पना की गई और आख़िरकार यह कल्पना फलीभूत हुई.  साभार दैनिक भास्कर वह सफर यहाँ प्रस्तुत है.

सनत चतुर्वेदी

छत्तीसगढ़ की संघर्ष यात्रा करीब सौ साल पुरानी है। राज्य के लिए पहला सपना किसने कब देखा यह कहना मुमकिन नहीं, लेकिन एक बात जरूर भरोसे से कही जा सकती है कि छत्तीसगढ़ की लड़ाई अस्मिता और स्वाभिमान की लड़ाई थी। इसका बीजारोपण किया था पं. सुंदरलाल शर्मा और पं. माधवराव सप्रे ने। समय यही कोई सन् 1900 के आसपास का था। यह विशुद्ध रूप से भावनात्मक मुद्दा था, जिसे राजनीतिक होने में सौ साल लगे। तब जाकर साकार हुआ पुरखों का सपना। अब उड़ने के लिए सारा आकाश है। एक नवंबर को राज्य स्थापना की 10वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में बीते कल पर दैनिक भास्कर  ने एक निगाह डाली
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इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि छत्तीसगढ़ को पृथक पहचान से लेकर अलग राज्य बनने में करीब 300 साल लगे। इस मान्यता को लेकर इतिहासकारों में मतभिन्नता हो सकती है, पर ज्ञात तथ्यों के अनुसार सन् 1700 के आसपास ‘छत्तीसगढ़’ शब्द अस्तित्व और चलन में आया। उसी कालखंड में रतनपुर राज्य के कवि गोपाल मिश्र की कविताओं में छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके पहले किसी अभिलेख में छत्तीसगढ़ का उल्लेख नहीं मिलता। यह क्षेत्र इतिहास के पन्नों और पौराणिक ग्रंथों में दंडकारण्य, कोसल, दक्षिण कोसल, महाकोसल, महाकांतार या फिर गोंडवाना क्षेत्र आदि के नामों से संबोधित या चिह्न्ति होते रहा है।

मोटे तौर पर माना यही जाता है कि मराठों के शासनकाल के दौरान इस इलाके को ‘छत्तीसगढ़’ के रूप में जाना-पहचाना गया या यह कहें कि इसे इसी नाम से परिभाषित किया गया। वजह शायद यही रही होगी, तब यहां छोटे-बड़े कई गढ़ थे। इन्हीं गढ़ों के कारण इस इलाके को ‘36गढ़’ नाम दिया गया।

इसमें दो मत नहीं कि यहां की प्राकृतिक सुषमा, सांस्कृतिक ऊर्जा और गुरतुर बोली ने सभी का मन मोहा। संभवत: इसीलिए नाम को विशिष्ट पहचान और महत्ता मिलती गई। मराठों के बाद अंग्रेजों ने भी छत्तीसगढ़ को पृथक भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक इकाई के रूप में स्वीकार किया, लेकिन दर्जा नहीं दिया। वह दौर एक तरह से नवजागरण काल था। उस काल के विशिष्टजनों ने ‘माटी की गंध’ को दूर-दूर तक पहुंचाया। पं. सुंदरलाल शर्मा और पं. माधवराव सप्रे की भूमिका प्रणम्य है।

ब्रिटिश शासनकाल में यह क्षेत्र ‘सीपी एंड बरार’ स्टेट के अंतर्गत था। कांग्रेस के उदय के करीब तीन दशक बाद रायपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष पं. वामनराव लाखे ने सन् 1922-23 में सबसे पहले नागपुर की बैठक में ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश’ की मांग उठाई। कांग्रेस के भीतर उठी यह आवाज दबा दी गई। इस आवाज को दबाने का सिलसिला कांग्रेस में आजादी के बाद भी चलते रहा।

कांग्रेस के चर्चित त्रिपुरी अधिवेशन के पूर्व बिलासपुर में उस काल के दिग्गज नेता पं. सुंदरलाल शर्मा, ठा. प्यारेलाल सिंह, बैरिस्टर छेदीलाल, छबिराम चौबे, गजाधर साव, पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी, ‘विप्र’ आदि की मौजूदगी में बैठक हुई और छत्तीसगढ़ की अस्मिता व पहचान को लेकर चर्चा की गई।

उसी साल रायपुर के आनंद समाज वाचनालय में पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र की अध्यक्षता में बैठक हुई, जिसमें ‘छत्तीसगढ़ राज्य’ की भूमिका तैयार की गई। इस बीच 1945 में ठा. प्यारेलाल ने छत्तीसगढ़ शोषण विरोधी मंच की स्थापना कर समाज को जगाने का प्रयास किया। 1947 में आजादी के ठीक पहले कांग्रेस के नेता वीवाई तामस्कर ने एक बार फिर छत्तीसगढ़ राज्य की मांग उठाई पर तवज्जो नहीं मिली।

आजादी के बाद सन् 1951 में इसी मुद्दे को लेकर बैरिस्टर छेदीलाल, ठा. प्यारेलाल, डॉ. खूबचंद बघेल, बुलाकीलाल पुजारी आदि कई नेता कांग्रेस से अलग हो गए। छत्तीसगढ़ का सपना संजोए ठा. प्यारेलाल सिंह दुनिया से विदा हो गए। उनके पुत्र ठा. रामकृष्ण सिंह ने 30 अक्टूबर 1955 को रायपुर के गिरधर भवन (अब नहीं है) में एक बैठक आहूत की जिसमें कमल नारायण शर्मा, मदन तिवारी, दशरथ लाल चौबे आदि नेताओं ने छत्तीसगढ़ राज्य संबंधी मांग की पुरजोर वकालत की।

ठा. रामकृष्ण सिंह ने इस मांग को सदन में रखा। तब राज्य पुनर्गठन की तैयारियां शुरू हो चुकी थी। उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। उस जमाने में आदिवासी नेता लालश्याम शाह, बृजलाल वर्मा आदि ने इस प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया था। तब पं. रविशंकर शुक्ल जो मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने, छत्तीसगढ़ राज्य के पक्षधर नहीं थे। हालांकि पं. शुक्ल तब छत्तीसगढ़ (रायपुर) के निवासी थे। मध्यप्रदेश बनने से पहले राजनांदगांव में प्रतिनिधि सम्मेलन व खुला अधिवेशन हुआ जिसमें डॉ. खबूचंद बघेल ने जोशीला उद्घाटन भाषण दिया और छत्तीसगढ़ राज्य की मांग को एक बार फिर बुलंद आवाज दी। उन्होंने इसके बाद ‘छत्तीसगढ़ी महासभा’ का गठन किया जिसमें दशरथ लाल चौबे सचिव, केयूर भूषण और हरि ठाकुर संयुक्त सचिव बनाए गए। साथ ही उप समिति बनाकर कलाकारों, साहित्यकारों को भी उसमें शामिल किया गया। तब तक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए व्यापक जनाधार तैयार हो चुका था परंतु कांग्रेस इसके पक्ष में नहीं थी।

क्रमश:

साभार दैनिक भास्कर

7 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय said...

लम्बी और सतत संघर्ष यात्रा।

जयकृष्ण राय तुषार said...

very nice

Unknown said...

thanks sanjitbhai,

this is really nice information
thanks once again

Unknown said...

thanks sanjitbhai,

this is really nice information
thanks once again

cgswar said...

इतनी अच्‍छी जानकारी उपलब्‍ध कराने के लिये धन्‍यवाद।

नीरज दीवान said...

सनत जी को देखकर ही प्रसन्न हो गया चित, आंदोलन का इतिहास भी ताज़ा हो गया। आभार संजीत।

govind said...

thanks for

cg ki kahani kam logon ko pata hai
govind

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आपकी राय बहुत ही महत्वपूर्ण है।
अत: टिप्पणी कर अपनी राय से अवगत कराते रहें।
शुक्रिया ।