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23 September 2010

शिष्य नही सहयोगी


शिष्य नही सहयोगी
अंबरीश कुमार
अयोध्या पर एक रपट मैंने कुछ मित्रों को भेजी थी ताकि ब्लाग के माध्यम से वहां  के हालात की जानकारी मिल सके .साठ साल बाद एक फैसला आ रहा है जिसपर पूरे देश की निगाह है .ऐसे में अयोध्या से लेकर लखनऊ तक जो माहौल है उसकी कवरेज भी आसान नही है .फ़तवा वाली पत्रकारिता और सनसनी वाली ख़बरों के बीच तथ्यों के साथ लिखना काफी चुनौती भरा काम होता है .पर इंडियन एक्सप्रेस समूह में करीब बीस साल की पत्रकारिता के चलते काफी कुछ सीखने को मिला है .शब्दों से लेकर तथ्यों का भी काफी ध्यान रखना पड़ता है वर्ना अख़बारों में डेस्क पर कई खबरे पोस्मार्टम के बाद निपट जाती है .शब्दों के चयन को लेकर ही यह पोस्ट भी लिख रहा हूँ .
कल अपनी पोस्ट के नीचे राज कुमार सोनी  ने लिखा -  "अंबरीश जी जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार होने के अलावा मेरे गुरू भी है" . सोनी के शब्दों पर हैरानी हुई .छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के खट्टे मीठे अनुभव है पर जो लोग लगातार मेरे साथ खड़े रहे उनमे राज कुमार सोनी प्रमुख है .सोनी से करीब दशक भर पुराना परिचय है .सन २०००  में मुझे इंडियन एक्सप्रेस ने छत्तीसगढ़ राज्य की कवरेज की जिम्मेदारी दी और दिल्ली से रायपुर भेजा गया .एक जिले को राजधानी बनते और एक लोकप्रिय प्रवक्ता को मैंने राज्य का  ताकतवर मुख्यमंत्री बनते देखा जो  बाद में कुछ अफसरों-पत्रकारों  के चलते वे अहंकार के के शिखर पर पहुँच गए .मै अजित जोगी की बात कर रहा हूँ .जोगी से घनिष्ठ  सम्बन्ध भी रहे और जब बिगड़े तो टकराव का लम्बा दौर चला .खैर २००१ में ही मुझे एक्सप्रेस प्रबंधन ने छत्तीसगढ़ से  जनसत्ता निकलने की जिम्मेदारी दी तो लिखित टेस्ट लेकर  करीब पचास लोगो का चयन किया गया जिसमे रायपुर से लेकर दुर्ग बिलासपुर के लोग शामिल थे .फिर साक्षात्कार में लोगों को बुलाया गया जिसमे सोनी भी आए थे . तभी उनसे पहली मुलाकात हुई  .मैंने उनकी कापी देखी और कहा - जनसत्ता में संवाददाता  के रूप में काम कर सकेंगे तो उनका जवाब था - क्या विज्ञापन भी लाना होगा .सोनी का जवाब सुनकर काफी झल्लाहट हुई क्योकि एक्सप्रेस की परम्परा अलग रही है .मेरा जवाब था - विज्ञापन का काम संवादाता नही करता है उसके लिए मार्केटिंग के लोग है .मेरे साथ उस समय छत्तीसगढ़ जनसंपर्क के निदेशक चितरंजन खेतान भी साक्षात्कार ले रहे थे .खेतान पत्रकार रहे है और उसी नाते उन्हें भी आमंत्रित किया गया था .इसी बीच रायपुर संस्करण के व्यवस्थापक मुझे अलग ले गए और बोले -यह तो पक्का कम्युनिस्ट है इसे कहा ले रहे है .मैंने कहा -अखबार निकलना है पार्टी नहीं बनानी जो टेस्ट पास कर चूका है उसे लिया जाएग .चाहे कम्युनिस्ट हो या संघी . 
 
सोनी उस समय समाज और व्यवस्था  से नाराज  जेहादी विचारों से लैस थे .पर लिखने की कला और ख़बरों को पकड़ने की क्षमता भी गज़ब की थी जिसे एक दिशा देने की जरुरत थी .उस समय रिपोर्टिंग में सोनी और डेस्क पर भारती यादव जनसत्ता की टीम के सबसे प्रतिभाशाली लोगों में शामिल थे .बाद में अनिल पुसदकर से लेकर अनुभूति ,आकांक्षा  संजीत त्रिपाठी आदि इसी कतार  में शामिल हुए .एक बात सभी से साफ़ थी कि यहाँ पर सभी एक टीम का हिस्सा होंगे कोई छोटा बड़ा नही . सोनी को उनकी ख़बरों के चलते प्रमुखता मिली तो भीतर से बाहर तक  मेरा विरोध शुरू हुआ .सरकार के स्तर पर दबाव पड़ा कि सोनी को रिपोर्टिंग से हटा दिया जाए .इस दबाव  के बाद हमने सोनी   की जिम्मेदारिया और बढा दी .तब भी वे अपने सहयोगी थे शिष्य नही .एक दिन विद्याचरण शुक्ल ने मुझसे पूछा - आप का जोगी की निरंकुशता के  खिलाफ अभियान कब तक चल पाएगा.सोनी को कही हटा तो नहीं दिया जाएगा ,मैंने कहा जब तक मै रायपुर में हूँ तब तक कुछ नही होगा .पर चुनाव से पहले सरकार भारी पड़ी ,अखबार के व्यस्थापकों के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज करा दिए गए और मुझे दिल्ली बुला लिया गया .हालाँकि बाद में भाजपा के नेता प्रभात झा ने एक दिन लखनऊ में कहा -जोगी को हराने में जनसत्ता की भूमिका रही जिसने पूरे राज्य में माहौल बना दिया .लेकिन यह भी किसी अकेले का नही बल्कि उस टीम का काम था जिसके अगले दस्ते में सोनी से लेकर पुसदकर तक थे .यह सब सहयोगी रहे है शिष्य नही .और सहयोगी भी ऐसे जिन्हें सिपहसालार माना गया ,गुरु जैसा शब्द बहुत भारी लगता है  .गुरु तो हम सबके  प्रभाष जोशी रहे है जिन्होंने पत्रकारिता सिखाई .

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