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22 February 2014

'नदी-महोत्सव' का आयोजन क्यों नहीं?



                            राजिम कुंभ के बहाने चर्चा एक नई उम्मीद पर

चित्रोत्पला गंगा यानी महानदी के किनारे बसी प्राचीन नगरी राजिम के बारे में यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी है। त्रिवेणी तट पर भगवान राजीव लोचन और संगम पर कुलेश्वर महादेव के मंदिर हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। ऋषियों की तपोभूमि रही है, यह कमल क्षेत्र।
महानदी छत्तीसगढ़ की भौगोलिक ही नहीं, सांस्कृतिक पहचान भी है। राजिम कुंभ के बहाने एक प्राचीन नदी-महानदी की महत्ता को रेखांकित करना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। ...लेकिन आज के संदर्भों में एक कड़वी सच्चाई यह है कि महानदी ही नहीं, राज्य की दर्जनभर प्रमुख नदियों की दशा दु:खदायी लगती है।
 सनत चतुर्वेदी

हम सदियों से यही कहते आए हैं हजारों साल में बनने वाली ये नदियां जीवनदायिनी हैं, पुण्यसलिला है। सभ्यता और संस्कृति की पहचान रही नदियों का इस तरह 'प्राणहीन' होते जाना दु:ख और चिंता का विषय है। इन मरती हुई, पटती हुई नदियों को बचाने का एक ही सही तरीका हो सकता है कि इन नदियों के किनारे मीलों तक हरित-पट्टी (ग्रीनबेल्ट) का निर्माण किया जाए। यह एक अनूठी बहुउद्देश्यीय परियोजना हो सकती है। राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से पहले कई बार इस मुद्दे पर चर्चा हुई है। उन्होंने गंभीरता तो दिखाई, पर कहीं कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा। हां, एक नई खबर अवश्य मिली है कि खारुन के किनारे (महादेव घाट के आसपास) पेड़ लगाए जाएंगे। भले ही यह वृक्षारोपण सौंदर्यीकरण के लिए किया जा रहा हो पर पर्यावरण को लाभ तो होगा ही। संतोष की बात है कि नदियों को लेकर कुछ सोचा तो गया। खारुन का हाल किसी से छिपा नहीं है। गंगरेल का पानी खारुन में छोड़ा जाता है, तब राजधानी रायपुर की 'प्यास' बुझती है।
नदियां हमारे जीवन का हिस्सा हैं। इसकी महत्ता को 'राजिम कुंभ'  की तरह राज्य में पुनस्र्थापित और नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। बेहतर होता कि नदियों को बचाने के उद्देश्य से राज्य सरकार 'नदी-महोत्सव' मनाने के बारे में विचार करती। वैसे, भी हम कई तरह के उत्सव मनाते हैं और हमारी सरकारें भी उत्सव मनाने में आगे रहती हैं। फिर 'नदी महोत्सव' जैसा आयोजन क्यों नहीं?
छत्तीसगढ़ छोटा और नवोदित राज्य है। कथित विकास, प्रदूषण और आबादी के बढ़ते दबाव के बीच नदी-नालों को बचाना मुश्किल हो जाएगा। आने वाले 20-25 साल बाद कहीं ऐसा न हो कि इस हरित-राज्य में 'साफ' हवा-पानी भी न मिले। समय रहते जल-जंगल-जमीन को बचाने के बारे में सोचना ही बुद्धिमानी होगी।
नदियां मरने लगी हैं। बरसात के दो-तीन महीने को छोड़ दें तो नदियां सालभर सूखी रहती हैं या फिर पानी की पतली-सी कोई धारा उसके नदी होने के अस्तित्व का बोध कराती हैं। राजिम के त्रिवेणी संगम पर जहां सोंढूर, पैरी और महानदी मिलती हैं, वहां पर बरसात के बाद प्यास बुझाने की बात तो दूर, कुल्ला मारने के लिए चुल्लूभर पानी नहीं रहता। 'कुंभ' के दौरान गंगरेल बांध का पानी महानदी में छोड़ा जाता है, तब कहीं साधु-संत और श्रद्धालु 'पुण्य स्नान' कर पाते हैं। ...ताज्जुब तो इस बात पर है कि महानदी की इस दुर्दशा पर न सरकार चिंतित है और न ही वे लोग, जो इस नदी को 'गंगा' मानते हैं। छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में भी नदियों का यही हाल है। हमने अपने स्वार्थों-जरूरतों के लिए बड़े बांध-जलाशय तो बना लिए लेकिन नदियों को न सिर्फ उनके हाल पर छोड़ दिया बल्कि उसे प्रदूषित करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी। महानदी के उद्गम क्षेत्र के जलस्रोत सूख चुके हैं। क्यों? किसी को न फिक्र, न चिंता। इतिहासकार कहते हैं, कभी इसी महानदी में बारहों महीने नौका-व्यापार होता था। अब बारिश के बाद सूखी रेत के अलावा महानदी में दूर-दूर तक कुछ नहीं दिखता। सालों-साल के भू-क्षरण का नतीजा है, महानदी उथली हो चुकी है। नदियों के किनारे जो जंगल थे, पेड़ थे, सब हम काट खाए। नदियों के आसपास नए पेड़ लगाने, जंगल ऊगाने के बारे में सोचा नहीं गया। यह दशा-दुर्दशा केवल महानदी की नहीं, वरन् अमूमन सभी प्रमुख नदियों- इंद्रावती से लेकर शिवनाथ, अरपा, केलो, ईब, जोंक, माढ़ आदि सभी की है।
जनश्रुति है, ऐसी मान्यता है कि वनवास काल में प्रभु श्रीराम दंडकारण्य से गुजरते हुए यहां आए थे और छत्तीसगढ़ के 'गंगा-जल' का आचमन किया था। इसी पवित्र त्रिवेणी संगम पर पिछले एक दशक से 'कुंभ' का आयोजन किया जा रहा है। वैसे, यहां सदियों से माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक मेला भरता रहा है, जिसे कुंभ का स्वरूप देकर राजिम की धार्मिक-सांस्कृतिक महत्ता को पुनर्स्थापित ही नहीं, वरन् उसे विस्तार देने का बखूबी प्रयास किया जा रहा है।

5 टिप्पणी:

प्रतिभा सक्सेना said...

आपने बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है.नदियों के साथ सदा से हमारा का बहुत गहरा संबंध रहा है,पूरी संस्कृति का ताना-बाना और जीवन के कार्य-व्यापार जिनके साथ जुड़े हैं,धरती की इन प्राण-धाराओँ को उपेक्षित कर आने आनेवाली पीढ़ियों
के साथ भयानक छल किया जा रहा है.

प्रवीण पाण्डेय said...

सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा तीर्थ, आधुनिकता में भी सशक्त सम्पर्क सूत्र बना रहे।

Anonymous said...

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when i read this post i thought i could also create comment due to
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संजय भास्‍कर said...

बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है

Anusia said...

Padke acha laga. Aaha karti hu ki aapko jurur safalta mile.

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आपकी राय बहुत ही महत्वपूर्ण है।
अत: टिप्पणी कर अपनी राय से अवगत कराते रहें।
शुक्रिया ।