14 अक्टूबर को
स्वर्गीय भतीजे अचिन त्रिपाठी की तृतीय पुण्यतिथि के मौके पर इस बार जाना हुआ
हॉस्टल वार्डन से
कुछ बातें की तो कुछ नाम मिले और उनके फोन नंबर, यह कहते हुए कि आपके सवालों के
जवाब इनसे मिल सकते हैं। हॉस्टल से लौटने के बाद पहला नंबर लगाया शहर के प्रसिद्ध
नेत्र चिकित्सक डॉ राकेश कामरान को, डॉक्टर साहब उस समय बैंगलुरू एयरपोर्ट पर थे,
15 को मिलने की बात तय हुई। फिर दूसरे सज्जन श्री हरजीत जुनेजा को फोन लगाया तो वे
विशाखापट्नम में थे। इस बीच दौरान शहर के ही एक अन्य बुद्धिजीवी श्री तारिणी
आचार्य से बात हुई तो उनसे इस हॉस्टल की स्थापना के बारे में कुछ जानकारी मिली और
यह सलाह भी कि डॉ कामरान ही सही व्यक्ति हैं जो इस मामले में पूरी जानकारी दे
सकेंगे। 15 अक्टूबर यानि आज शाम मुलाकात हुई, जानकारी मिली और यह भी समझ आया कि जब
तक डॉ कामरान और उनके साथियों जैसे शख्स रहेंगे, जमाने में मानव सेवा को भी एक
धर्म माना जाता रहेगा। प्रचार या
आत्ममुग्धता जैसी चीज से कोसों दूर डॉ कामरान से मिलकर दिली खुशी हुई।
शुरुआत होती है
सन 1985 के आसपास जब डॉ कामरान अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे थे। उनके मन
में यह ख्याल आया कि यह कैसी विडंबना है, एक तरफ हम किसी दृष्टिबाधित को एक
सर्टिफिकेट देकर भूल जाते हैं और उसकी बाकी समस्याओं से विमुख हो जाते हैं। कुछ
किया जाए उनके लिए। ख्याल आया ब्लाइंड गर्ल्स हॉस्टल का। गर्ल्स का ही क्यों, इसका
जवाब यह है कि बेटियां समाज की होती है, वे अगर दृष्टिबाधित हों तो उनके सब रास्ते
बंद मान लिए जाते हैं( यह तब की सोच मानी जाती थी)। इसलिए उन्हें रास्ता सुझाने,
आत्मनिर्भर बनाने के लिए गर्ल्स हॉस्टल ही।
इसी दौरान शहर
में दृष्टिहीन बालकों के लिए एक सरकारी हॉस्टल/स्कूल चल रहा था जिसके अधीक्षक विनोद
कुमार टंडन हुआ करते थे (अब पुणे मे निवास)। खुद श्री टंडन की आंखें भी थोड़ी कमजोर
ही थीं। वे एक बार इंदौर गए, वहां उन्होंने देखा कि वहां के ब्लाइंड गर्ल्स हॉस्टल
में छत्तीसगढ़ की भी बहुत से लड़कियां रहती थीं। श्री टंडन के मन में ख्याल आया कि
ऐसा हॉस्टल रायपुर में क्यों न हो।
यह दो इंसानों के एक से विचार दोनों को करीब ले आए, और फिर शुरुआत हुई नेशनल ऐसोसिएशन फार द ब्लांइड रायपुर चैप्टर
की, तारीख (जो अब तवारीख बन चुकी है)
मार्च 1986 की, तब तक डॉक्टर कामरान ने अपनी निजी प्रेक्टिस शुरु कर दी थी। कुछ इन्होंने अपनी जेब से तो कुछ उन्होंने अपनी
जेब से और कुछ जनसहयोग से, इस बीच साथ में सुरेश वैशंपायन, सुरेखा वैशंपायन(दोनो
अब जबलपुर निवासी) और वास्तुविद टीएम घाटे जैसे लोग भी इस नेक काम में मदद देने
साथ आ गए थे। सो इस तरह 7 बालिकाओं के साथ यह हॉस्टल शुरु हुआ।
फिर इस सफर में
कुछ और साथी जुड़ गए, जैसे तारिणी आचार्य, हरजीत सिंह जुनेजा। यह हॉस्टल तब
शैलेंद्र नगर में एक किराए के मकान में शुरु हुआ। खर्च काफी थे, अपने जेब के अलावा
जनसहयोग जरुरी था। लोगों ने दिल खोलकर सहयोग किया तो कुछ लोग यह कहने वाले भी मिले
कि “अरे ये सब क्या कर रहे हो, अभी तुम लोगों की कमाने की उमर है उस पर ध्यान दो,
ये सब काम तो रिटायरमेंट के बाद करना”। लेकिन नेकी के इन दीवानों का जज़्बा कम नही
हुआ। इसी जज़्बे का परिणाम था कि लोगों से
भी खूब सहयोग मिला, फिर सरकार का भी सहयोग मिला और हॉस्टल का अपना खुद का भवन
तैयार हुआ 1995 में जिसका लोकार्पण हुआ था तत्कालीन केंद्रीय मंत्री विद्याचरण
शुक्ल के हाथों।
आज 2016 में इस
हॉस्टल का अपना खुद का एक स्कूल भी है इन बालिकाओं के लिए, जो कक्षा एक से आठवीं
तक की शिक्षा देता है, इसके बाद की कक्षाओं के लिए मठपुरैना स्थित शासकीय स्कूल
है, वहां तक ले जाने और लाने के लिए स्वयं की बस भी है। हॉस्टल है तो वार्डन भी
है, आयाबाई भी है, कुक भी ड्राइवर भी है। और सभी की सैलरी आज के समय के हिसाब से
सही भी है। लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश के तहत कैंपस से लगी हुई दो
दुकानें भी खोली गई हैं जिनका संचालन यहीं की लड़कियां करती हैं। यह एक प्रयास है
कि लड़कियां सिर्फ नौकरी के भरोसे न रहें, बल्कि स्वयं के रोजगार के बारे में भी
सोचें। यहां कम्प्यूटर की भी ट्रेनिंग इन लड़कियों को दी जाती है।
यह जानकर खुशी
होगी कि इस दृष्टिबाधित हॉस्टल की कई लड़कियां अब शिक्षा कर्मी, प्रथम श्रेणी
शिक्षाकर्मी हैं तो कुछ यहीं से पढ़कर अब यहां के पिछले साल ही खुले मिडिल कक्षाओं
तक वाले स्कूल में टीचर हो गई हैं। 116 बालिकाओं वाले इस हॉस्टल में सबसे कम उम्र
की बालिका 7 वर्ष की है तो चार लड़कियां शहर के डिग्री गर्ल्स कॉलेज में एमए कर रही
हैं। एक युवती तो डिग्री गर्ल्स कॉलेज में एमए की टॉपर रही और अब पीएचडी के लिए
पंजीयन करवा चुकी है।
हालांकि नेशनल
ऐसोसिएशन फार द ब्लांइड का मुख्यालय मुंबई में है, लेकिन देश के कई शहरों में उसके
शाखाएं हैं जिन्हें चैप्टर कहा जाता है। यह सभी चैप्टर आत्मनिर्भर होते हैं,
मुख्यालय से ही माली इमदाद हासिल होता हो ऐसा नहीं है। वह नाम मात्र का होता है।
डॉ कामरान बताते हैं कि कुल जमा 30 से 35 फीसदी ही फंड सरकार से मिलता है, बाकी कुछ
मानव रूपी भलाई दूतों के सहयोग से। संस्था का बकायदा दोहरे स्तर पर ऑडिट होता है। संस्था
समय-समय पर स्कूलों में हेल्थ चेकअप अभियान चलाकर करीब सवा लाख बच्चों का आई टेस्ट
भी कर चुकी है।
डॉ कामरान कहते
हैं कि काम में इमानदारी हो, गंभीरता हो तो काम सफल होता ही है। उनकी यह बात
सुनकर और हॉस्टल को आज देखकर लगता है कि वे सही हैं। डॉक्टर कामरान बार-बार यह
उल्लेख करना नहीं भूलते कि लोग वाकई बहुत मददगार होते हैं, बहुत मदद करते हैं।
संभवत: उनकी बात सही है इसलिए ही यह हॉस्टल कायम हो पाया और अभी भी इतने अच्छे से
चल रहा है कि हॉस्टल की अपनी बस है, ड्राइवर है। हॉस्टल है तो वार्डन भी है, आयाबाई
भी है, कुक और अन्य स्टाफ भी है, और खास बात यह कि इन सभी की सैलरी आज के समय के
हिसाब से सही भी है।
आवारा बंजारा ऐसे
नेकी के फरिश्तों को नमन करता है।
अगर आप कभी इस “प्रेरणा”
की यात्रा में सहभागी बन कुछ मदद करना चाहें तो नीचे दिए नंबरों पर संपर्क कर सकते
हैं।
डॉ राकेश कामरान वार्डन का नंबर हॉस्टल का नंबर
0-9827180001 0-9893129457 0771-6998866
0771-2425070 , 771-2425080/90