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15 October 2016

“प्रेरणा” की कहानी…


14 अक्टूबर को स्वर्गीय भतीजे अचिन त्रिपाठी की तृतीय पुण्यतिथि के मौके पर इस बार जाना हुआ
शहर के हीरापुर इलाके में वीरसावरकर नगर वार्ड की हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी में स्थित नेशनल एसोसिएशन फार द ब्लांइड  दृष्टिबाधित बालिका पुनर्वास केंद्र (ब्लाइंड गर्ल्स हॉस्टल) में स्मृतिभोज करवाने के लिए। इस स्कूल और हॉस्टल को “प्रेरणा” के नाम से जाना जाता है। हॉस्टल में इन दृष्टिबाधित बच्चियों, युवतियों को अनुशासन के साथ रहते, भोजन करते देखने के बाद मन में ख्याल आया कि इस हॉस्टल की स्थापना कब, कैसे, और किन परिस्थितियों में हुई, इसके साथ यह भी सवाल कौंधा कि आखिर किसने की होगी इसकी स्थापना। यहां से शुरु हुई इन सवालों के जवाब की तलाश।


हॉस्टल वार्डन से कुछ बातें की तो कुछ नाम मिले और उनके फोन नंबर, यह कहते हुए कि आपके सवालों के जवाब इनसे मिल सकते हैं। हॉस्टल से लौटने के बाद पहला नंबर लगाया शहर के प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक डॉ राकेश कामरान को, डॉक्टर साहब उस समय बैंगलुरू एयरपोर्ट पर थे, 15 को मिलने की बात तय हुई। फिर दूसरे सज्जन श्री हरजीत जुनेजा को फोन लगाया तो वे विशाखापट्नम में थे। इस बीच दौरान शहर के ही एक अन्य बुद्धिजीवी श्री तारिणी आचार्य से बात हुई तो उनसे इस हॉस्टल की स्थापना के बारे में कुछ जानकारी मिली और यह सलाह भी कि डॉ कामरान ही सही व्यक्ति हैं जो इस मामले में पूरी जानकारी दे सकेंगे। 15 अक्टूबर यानि आज शाम मुलाकात हुई, जानकारी मिली और यह भी समझ आया कि जब तक डॉ कामरान और उनके साथियों जैसे शख्स रहेंगे, जमाने में मानव सेवा को भी एक धर्म माना जाता रहेगा।  प्रचार या आत्ममुग्धता जैसी चीज से कोसों दूर डॉ कामरान से मिलकर दिली खुशी हुई।

शुरुआत होती है सन 1985 के आसपास जब डॉ कामरान अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे थे। उनके मन में यह ख्याल आया कि यह कैसी विडंबना है, एक तरफ हम किसी दृष्टिबाधित को एक सर्टिफिकेट देकर भूल जाते हैं और उसकी बाकी समस्याओं से विमुख हो जाते हैं। कुछ किया जाए उनके लिए। ख्याल आया ब्लाइंड गर्ल्स हॉस्टल का। गर्ल्स का ही क्यों, इसका जवाब यह है कि बेटियां समाज की होती है, वे अगर दृष्टिबाधित हों तो उनके सब रास्ते बंद मान लिए जाते हैं( यह तब की सोच मानी जाती थी)। इसलिए उन्हें रास्ता सुझाने, आत्मनिर्भर बनाने के लिए गर्ल्स हॉस्टल ही।
सी दौरान शहर में दृष्टिहीन बालकों के लिए एक सरकारी हॉस्टल/स्कूल चल रहा था जिसके अधीक्षक विनोद कुमार टंडन हुआ करते थे (अब पुणे मे निवास)। खुद श्री टंडन की आंखें भी थोड़ी कमजोर ही थीं। वे एक बार इंदौर गए, वहां उन्होंने देखा कि वहां के ब्लाइंड गर्ल्स हॉस्टल में छत्तीसगढ़ की भी बहुत से लड़कियां रहती थीं। श्री टंडन के मन में ख्याल आया कि ऐसा हॉस्टल रायपुर में क्यों न हो।
ह दो इंसानों के एक से विचार दोनों को करीब ले आए, और फिर शुरुआत हुई  नेशनल ऐसोसिएशन फार द ब्लांइड रायपुर चैप्टर की,  तारीख (जो अब तवारीख बन चुकी है) मार्च 1986 की, तब तक डॉक्टर कामरान ने अपनी निजी प्रेक्टिस शुरु कर दी थी।  कुछ इन्होंने अपनी जेब से तो कुछ उन्होंने अपनी जेब से और कुछ जनसहयोग से, इस बीच साथ में सुरेश वैशंपायन, सुरेखा वैशंपायन(दोनो अब जबलपुर निवासी) और वास्तुविद टीएम घाटे जैसे लोग भी इस नेक काम में मदद देने साथ आ गए थे। सो इस तरह 7 बालिकाओं के साथ यह हॉस्टल शुरु हुआ।
फिर इस सफर में कुछ और साथी जुड़ गए, जैसे तारिणी आचार्य, हरजीत सिंह जुनेजा। यह हॉस्टल तब शैलेंद्र नगर में एक किराए के मकान में शुरु हुआ। खर्च काफी थे, अपने जेब के अलावा जनसहयोग जरुरी था। लोगों ने दिल खोलकर सहयोग किया तो कुछ लोग यह कहने वाले भी मिले कि “अरे ये सब क्या कर रहे हो, अभी तुम लोगों की कमाने की उमर है उस पर ध्यान दो, ये सब काम तो रिटायरमेंट के बाद करना”। लेकिन नेकी के इन दीवानों का जज़्बा कम नही हुआ।  इसी जज़्बे का परिणाम था कि लोगों से भी खूब सहयोग मिला, फिर सरकार का भी सहयोग मिला और हॉस्टल का अपना खुद का भवन तैयार हुआ 1995 में जिसका लोकार्पण हुआ था तत्कालीन केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल के हाथों।
ज 2016 में इस हॉस्टल का अपना खुद का एक स्कूल भी है इन बालिकाओं के लिए, जो कक्षा एक से आठवीं तक की शिक्षा देता है, इसके बाद की कक्षाओं के लिए मठपुरैना स्थित शासकीय स्कूल है, वहां तक ले जाने और लाने के लिए स्वयं की बस भी है। हॉस्टल है तो वार्डन भी है, आयाबाई भी है, कुक भी ड्राइवर भी है। और सभी की सैलरी आज के समय के हिसाब से सही भी है। लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश के तहत कैंपस से लगी हुई दो दुकानें भी खोली गई हैं जिनका संचालन यहीं की लड़कियां करती हैं। यह एक प्रयास है कि लड़कियां सिर्फ नौकरी के भरोसे न रहें, बल्कि स्वयं के रोजगार के बारे में भी सोचें। यहां कम्प्यूटर की भी ट्रेनिंग इन लड़कियों को दी जाती है।
ह जानकर खुशी होगी कि इस दृष्टिबाधित हॉस्टल की कई लड़कियां अब शिक्षा कर्मी, प्रथम श्रेणी शिक्षाकर्मी हैं तो कुछ यहीं से पढ़कर अब यहां के पिछले साल ही खुले मिडिल कक्षाओं तक वाले स्कूल में टीचर हो गई हैं। 116 बालिकाओं वाले इस हॉस्टल में सबसे कम उम्र की बालिका 7 वर्ष की है तो चार लड़कियां शहर के डिग्री गर्ल्स कॉलेज में एमए कर रही हैं। एक युवती तो डिग्री गर्ल्स कॉलेज में एमए की टॉपर रही और अब पीएचडी के लिए पंजीयन करवा चुकी है।
हालांकि नेशनल ऐसोसिएशन फार द ब्लांइड का मुख्यालय मुंबई में है, लेकिन देश के कई शहरों में उसके शाखाएं हैं जिन्हें चैप्टर कहा जाता है। यह सभी चैप्टर आत्मनिर्भर होते हैं, मुख्यालय से ही माली इमदाद हासिल होता हो ऐसा नहीं है। वह नाम मात्र का होता है। डॉ कामरान बताते हैं कि कुल जमा 30 से 35 फीसदी ही फंड सरकार से मिलता है, बाकी कुछ मानव रूपी भलाई दूतों के सहयोग से। संस्था का बकायदा दोहरे स्तर पर ऑडिट होता है। संस्था समय-समय पर स्कूलों में हेल्थ चेकअप अभियान चलाकर करीब सवा लाख बच्चों का आई टेस्ट भी कर चुकी है।
डॉ कामरान कहते हैं कि काम में इमानदारी हो, गंभीरता हो तो काम सफल होता ही है। उनकी यह बात सुनकर और हॉस्टल को आज देखकर लगता है कि वे सही हैं। डॉक्टर कामरान बार-बार यह उल्लेख करना नहीं भूलते कि लोग वाकई बहुत मददगार होते हैं, बहुत मदद करते हैं। संभवत: उनकी बात सही है इसलिए ही यह हॉस्टल कायम हो पाया और अभी भी इतने अच्छे से चल रहा है कि हॉस्टल की अपनी बस है, ड्राइवर है। हॉस्टल है तो वार्डन भी है, आयाबाई भी है, कुक और अन्य स्टाफ भी है, और खास बात यह कि इन सभी की सैलरी आज के समय के हिसाब से सही भी है।
आवारा बंजारा ऐसे नेकी के फरिश्तों को नमन करता है।
गर आप कभी इस “प्रेरणा” की यात्रा में सहभागी बन कुछ मदद करना चाहें तो नीचे दिए नंबरों पर संपर्क कर सकते हैं।
डॉ राकेश कामरान                वार्डन का नंबर              हॉस्टल का नंबर
0-9827180001                   0-9893129457          0771-6998866
0771-2425070 , 771-2425080/90 

22 February 2014

'नदी-महोत्सव' का आयोजन क्यों नहीं?



                            राजिम कुंभ के बहाने चर्चा एक नई उम्मीद पर

चित्रोत्पला गंगा यानी महानदी के किनारे बसी प्राचीन नगरी राजिम के बारे में यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी है। त्रिवेणी तट पर भगवान राजीव लोचन और संगम पर कुलेश्वर महादेव के मंदिर हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। ऋषियों की तपोभूमि रही है, यह कमल क्षेत्र।
महानदी छत्तीसगढ़ की भौगोलिक ही नहीं, सांस्कृतिक पहचान भी है। राजिम कुंभ के बहाने एक प्राचीन नदी-महानदी की महत्ता को रेखांकित करना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। ...लेकिन आज के संदर्भों में एक कड़वी सच्चाई यह है कि महानदी ही नहीं, राज्य की दर्जनभर प्रमुख नदियों की दशा दु:खदायी लगती है।
 सनत चतुर्वेदी

हम सदियों से यही कहते आए हैं हजारों साल में बनने वाली ये नदियां जीवनदायिनी हैं, पुण्यसलिला है। सभ्यता और संस्कृति की पहचान रही नदियों का इस तरह 'प्राणहीन' होते जाना दु:ख और चिंता का विषय है। इन मरती हुई, पटती हुई नदियों को बचाने का एक ही सही तरीका हो सकता है कि इन नदियों के किनारे मीलों तक हरित-पट्टी (ग्रीनबेल्ट) का निर्माण किया जाए। यह एक अनूठी बहुउद्देश्यीय परियोजना हो सकती है। राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से पहले कई बार इस मुद्दे पर चर्चा हुई है। उन्होंने गंभीरता तो दिखाई, पर कहीं कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा। हां, एक नई खबर अवश्य मिली है कि खारुन के किनारे (महादेव घाट के आसपास) पेड़ लगाए जाएंगे। भले ही यह वृक्षारोपण सौंदर्यीकरण के लिए किया जा रहा हो पर पर्यावरण को लाभ तो होगा ही। संतोष की बात है कि नदियों को लेकर कुछ सोचा तो गया। खारुन का हाल किसी से छिपा नहीं है। गंगरेल का पानी खारुन में छोड़ा जाता है, तब राजधानी रायपुर की 'प्यास' बुझती है।
नदियां हमारे जीवन का हिस्सा हैं। इसकी महत्ता को 'राजिम कुंभ'  की तरह राज्य में पुनस्र्थापित और नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। बेहतर होता कि नदियों को बचाने के उद्देश्य से राज्य सरकार 'नदी-महोत्सव' मनाने के बारे में विचार करती। वैसे, भी हम कई तरह के उत्सव मनाते हैं और हमारी सरकारें भी उत्सव मनाने में आगे रहती हैं। फिर 'नदी महोत्सव' जैसा आयोजन क्यों नहीं?
छत्तीसगढ़ छोटा और नवोदित राज्य है। कथित विकास, प्रदूषण और आबादी के बढ़ते दबाव के बीच नदी-नालों को बचाना मुश्किल हो जाएगा। आने वाले 20-25 साल बाद कहीं ऐसा न हो कि इस हरित-राज्य में 'साफ' हवा-पानी भी न मिले। समय रहते जल-जंगल-जमीन को बचाने के बारे में सोचना ही बुद्धिमानी होगी।
नदियां मरने लगी हैं। बरसात के दो-तीन महीने को छोड़ दें तो नदियां सालभर सूखी रहती हैं या फिर पानी की पतली-सी कोई धारा उसके नदी होने के अस्तित्व का बोध कराती हैं। राजिम के त्रिवेणी संगम पर जहां सोंढूर, पैरी और महानदी मिलती हैं, वहां पर बरसात के बाद प्यास बुझाने की बात तो दूर, कुल्ला मारने के लिए चुल्लूभर पानी नहीं रहता। 'कुंभ' के दौरान गंगरेल बांध का पानी महानदी में छोड़ा जाता है, तब कहीं साधु-संत और श्रद्धालु 'पुण्य स्नान' कर पाते हैं। ...ताज्जुब तो इस बात पर है कि महानदी की इस दुर्दशा पर न सरकार चिंतित है और न ही वे लोग, जो इस नदी को 'गंगा' मानते हैं। छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में भी नदियों का यही हाल है। हमने अपने स्वार्थों-जरूरतों के लिए बड़े बांध-जलाशय तो बना लिए लेकिन नदियों को न सिर्फ उनके हाल पर छोड़ दिया बल्कि उसे प्रदूषित करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी। महानदी के उद्गम क्षेत्र के जलस्रोत सूख चुके हैं। क्यों? किसी को न फिक्र, न चिंता। इतिहासकार कहते हैं, कभी इसी महानदी में बारहों महीने नौका-व्यापार होता था। अब बारिश के बाद सूखी रेत के अलावा महानदी में दूर-दूर तक कुछ नहीं दिखता। सालों-साल के भू-क्षरण का नतीजा है, महानदी उथली हो चुकी है। नदियों के किनारे जो जंगल थे, पेड़ थे, सब हम काट खाए। नदियों के आसपास नए पेड़ लगाने, जंगल ऊगाने के बारे में सोचा नहीं गया। यह दशा-दुर्दशा केवल महानदी की नहीं, वरन् अमूमन सभी प्रमुख नदियों- इंद्रावती से लेकर शिवनाथ, अरपा, केलो, ईब, जोंक, माढ़ आदि सभी की है।
जनश्रुति है, ऐसी मान्यता है कि वनवास काल में प्रभु श्रीराम दंडकारण्य से गुजरते हुए यहां आए थे और छत्तीसगढ़ के 'गंगा-जल' का आचमन किया था। इसी पवित्र त्रिवेणी संगम पर पिछले एक दशक से 'कुंभ' का आयोजन किया जा रहा है। वैसे, यहां सदियों से माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक मेला भरता रहा है, जिसे कुंभ का स्वरूप देकर राजिम की धार्मिक-सांस्कृतिक महत्ता को पुनर्स्थापित ही नहीं, वरन् उसे विस्तार देने का बखूबी प्रयास किया जा रहा है।